कृष्ण प्रताप सिंह
जब ज्यादातर लोग नये साल के मंगलमय होने की उम्मीद करते हुए एक-दूजे को ‘हार्दिक शुभकामनाएं’ दे रहे थे, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के शिकारपुर कोतवाली क्षेत्र के एक इंटर कॉलेज से आई एक खबर ने माथे पर चिन्ता की गहरी लकीरें खींच दीं। यह खबर कालेज के एक अवयस्क छात्र द्वारा अपने सहपाठी की, क्लॉस रूम में ही गोली मारकर हत्या कर देने की थी।
इस हत्या से एक दिन पहले ही इन दोनों के बीच क्लास रूम की एक खास सीट को लेकर झगड़ा हुआ था। अगले दिन उनमें से एक स्कूल बैग में अपने चाचा की लाइसेंसी पिस्तौल छिपाकर क्लास रूम में ले आया और प्रतिद्वंद्वी पर फायर झोंककर जान ले ली। फिर, छात्रों में भगदड़ मच गई, सूचना पाकर पुलिस मौके पर पहुंची, गोली चलाने वाले छात्र को पकड़कर पिस्तौल बरामद की और जिस छात्र को मार डाला गया था, उसके शव को पोस्टमॉर्टम के लिए भेजा। अपना बेटा गंवाने वाले परिवार ने उसकी हत्या के पीछे साजिश होने का आरोप लगाया और कालेज प्रशासन से सवाल खड़ा किया कि उसने हत्यारे छात्र को पिस्तौल के साथ क्लास रूम तक क्योंकर पहुंचने दिया?
लेकिन यह घटना इतनी गम्भीर है कि कई दूसरे, अपेक्षाकृत ज्यादा बड़े सवालों के जवाब की भी मांग करती है। इस कारण और भी कि विकसित देशों की नकल करने की भरपूर कोशिशों के बावजूद हम अमेरिका नहीं बन पाये हैं, जहां के समाज में इस तरह की फायरिंग की घटनाएं होती रहती हैं और उन्हें सामान्य आपराधिक गतिविधि माना जाता है। अलबत्ता, हमारी पुलिस के उलट वहां की पुलिस सुनिश्चित करती है कि ऐसी वारदातों का कोई भी दोषी माकूल सजा से बचकर आगे ऐसी वारदातों की प्रेरणा न बनने पाये।
अपने देश के संदर्भ में बात करें तो याद आता है कि तीन साल पहले 2017 में आठ सितम्बर को हरियाणा में गुरुग्राम स्थित एक निजी स्कूल में एक मासूम छात्र की निर्मम हत्या हुई थी और कैसे क्षुब्ध अभिभावक उसे लेकर उग्र प्रदर्शन पर उतरकर सो रही हरियाणा सरकार को जगाने में लग गये थे। मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाया गया और कहा गया था कि उक्त हत्या सारे देशवासियों की चिंता का सबब है। उसे किसी एक बच्चे द्वारा दूसरे की जान लिये जाने या किसी एक स्कूल प्रबंधन अथवा शासन-प्रशासन की लापरवाही या संवेदनहीनता का मामला नहीं माना जा सकता।
यही नहीं, समाज की मूल इकाई कहे जाने वाले परिवारों का माहौल भी हिंसा व तनाव से बुरी तरह भरा हुआ है। ऐसे में हमारे चारों ओर फैलती जा रही भय, असुरक्षा, क्रोध, क्षोभ और बदले की जो ‘संस्कृति’ बच्चों व किशोरों के मन-मस्तिष्क को प्रदूषित कर रही है, उसके लिए क्या पुलिस प्रशासन व सरकारों के साथ यह व्यवस्था भी जिम्मेदार नहीं है? मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अभिभावकों द्वारा अपने पाल्यों की समुचित देखरेख व निगरानी नहीं किया जाना ही उनके हिंसक अपराधों की ओर आकर्षित होने का सबसे बड़ा कारण है, जबकि हिंसात्मक फिल्मों, निरुद्देश्य उत्तेजक मनोरंजन से भरे टीवी सीरियलों व वीडियो गेमों के साथ क्लेशकारी सामाजिक व पारिवारिक वातावरण इस लिहाज से कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है। इन सबके चलते भविष्य के नागरिकों के कोमल मन कठोर हो रहे हैं और उनमें सहनशीलता व धैर्य जैसे सकारात्मक गुणों का ह्रास होता जा रहा है। वे चिड़चिड़े, जिद्दी, उन्मादी और बदले की भावना से पीड़ित होते जा रहे हैं, सो अलग।
यों, गुरुग्राम की घटना का ठीक-ठाक नोटिस लिया गया होता तो बहुत संभव है कि बुलन्दशहर की घटना होती ही नहीं, क्योंकि तब हम बच्चों व किशोरों को ऐसी वारदातों की जननी आपराधिक मानसिकता की ओर ले जा रही दुष्प्रेरणाओं के खात्मे की दिशा में खासा आगे बढ़ चुके होते। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कर्मी कैलाश सत्यार्थी गलत नहीं कहते कि देश में हर सेकेंड बच्चों या किशोरों के खिलाफ कोई न कोई ऐसा अपराध होता है, जिसमें उनसे उनकी मासूमियत छीन ली जाती है। आगे चलकर वे असुरक्षा और भेदभाव से पीड़ित होते हैं, तो उनमें भी आपराधिक मनोवृत्ति पनपने लगती है और वे अपराधों में लिप्त होकर अपने साथ देश का भविष्य भी असुरक्षित करने लग जाते हैं। मुश्किल यह है कि हम बच्चों व किशोरों को देश का भविष्य तो कहते हैं लेकिन उनके भविष्य की सुरक्षा को देश के भविष्य की सुरक्षा की तरह नहीं लेते।
साफ है कि हम अभी भी नहीं चेते तो हमें उसकी अमेरिका से कहीं ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी क्योंकि ऐसी वारदातों से निपटने के लिए अमेरिका जैसा पुलिस व प्रशासनिक तंत्र हम तब भी शायद नहीं ही बना पायेंगे।