सहीराम
ऊपरवाला भी जैसे सरकार हो गया है जी। खैर, सरकार तो वह पहले भी था और सरकार से पहले सरकार था। उसके दरबार में प्रार्थना करना, सरकार के दरबार में प्रार्थना करने से कहीं आसान माना गया है। सरकार के दरबार में प्रार्थना करने की प्रक्रिया बड़ी लंबी और जटिल है। इसीलिए तो लोग थाने-कचहरी का मुंह भी नहीं देखना चाहते। वैसे तो नेताओं की ड्यौढ़ियां हैं नाक रगड़ने के लिए। नेता जनता की ड्यौढ़ी पर पांच साल में एक बार नाक रगड़ता है, लेकिन फिर जनता पांच साल तक उसकी ड्यौढ़ी पर नाक रगड़ती है।
हो सकता है कुछ महान नेताओं को यह विचार आया हो कि जनता की नाक रगड़वाने का यह तरीका ठीक नहीं है, इसलिए उन्होंने जनता दरबार लगाने शुरू कर दिए कि चलो अब यहां नाक रगड़ो। इस स्थिति में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो भगवान के दरबार में साष्टांग लेट जाना ज्यादा पसंद करते हैं, बजाय नेताओं के दरबार में नाक रगड़ने के। उन्हें लगता होगा कि नेताओं के दरबार में नाक रगड़ने से तो हो सकता है कि एक ही जन्म सुधरे और उसकी भी गारंटी नहीं। पर भगवान के दरबार में सिर झुकाने से हो सकता है अगला जन्म भी सुधर जाए। जो लोग धर्म को अफीम मानते हैं, उन्हें राजनीति को कम से कम गांजा तो स्वीकार कर ही लेना चाहिए, जिसकी एक कश तमाम दुनियावी कष्टों से मुक्ति दिला देती है।
लेकिन अभी तो जनाब बात इतनी-सी है कि ऊपरवाला भी सरकार की तरह से ही व्यवहार करने लगा है। चौमासे में भी बारिश की बूंदें ऐसे गिरा रहा है जैसे सरकारी खैरात बांट रहा हो। सरकारी खैरात कहने को ही खैरात होती है, मिलता कुछ नहीं है। सरकार कहती है कि हम बीस लाख करोड़ का पैकेज दे रहे हैं, लेकिन मिलता बीस रुपया भी नहीं। मौसम विभाग वाले भी कहीं रेड अलर्ट और कहीं औरेंज अलर्ट की भविष्यवाणी कर देते हैं, लेकिन मिलती है बस बारिश की महीन फुंहारें।
ऐसे में यह दलील दी जा सकती है कि भई असम, बंगाल, बिहार में बाढ़ भी तो आयी हुई है। तो भैया सरकारी पैकेज भी उन्हीं राज्यों को मिलते हैं, जहां चुनाव होने वाले हों। ऐसे में तो इसी बात की पुष्टि होती है कि ऊपर वाला भी सरकार की तरह ही व्यवहार करने लगता है। अब सरकार किसानों के लिए लाखों करोड़ के पैकेज की घोषणा करती है लेकिन किसान कभी अपने बाजरे की बोरी तो कभी गेहूं की बोरी उठाए आढ़तियों के दर पर भटकता रहता है और फिर कर्ज के तले दबकर आत्महत्या कर लेता है।
ऐसे में सरकार कह सकती है कि यह तो किसान की आदत है, हम उसकी आदत कैसे बदल सकते हैं। लेकिन ऊपर वाला तो जमकर बरस कर किसान की मदद कर ही सकता है न। नेताओं की तरह किसान तो उसे कभी कोसता भी नहीं।