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मनुष्य हेतु संजीवनी है परम शक्ति में आस्था

अंतर्मन
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डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

दर्शन शास्त्र में दो विशिष्ट शब्द हैं- ‘अस्ति’ और ‘नास्ति’, जिनका अर्थ होता है- ‘जो है’ और ‘जो नहीं है’। ‘अस्ति’ से आस्तिक बनता है और ‘नास्ति’ से नास्तिक बनता है। एक कहता है- ‘परमात्मा है’, तो दूसरा कहता है- ‘परमात्मा नहीं है’।

उक्त कथन का सीधा-सा तात्पर्य यह है कि ‘अस्ति’ सकारात्मक भाव है, जबकि दूसरी ओर ‘नास्ति’ नकारात्मकता को इंगित करता है। जब भी हमारा चिंतन सकारात्मक होता है, तब हम आस्था, निष्ठा, विश्वास, समर्पण और परहित जैसी भावनाओं से परिपूर्ण होते हैं। दूसरी ओर नकारात्मक सोच होने पर हमारे मन में संदेह, अनास्था, ईर्ष्या, वंचना आदि के भाव-प्रधान हो जाते हैं।

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‘अस्ति’ भाव मन में आ जाए तो हमारा मन सृजनशील हो जाता है और हम ‘परम शक्ति’ में विश्वास करके यही सोचते हैं :-

‘होइहिं सोई जो राम रची राखा।

को करि तरक बढावहिं साखा।’

यानी हमारा मन परमात्मा के प्रति विश्वास और निष्ठा से परिपूर्ण होता है, जबकि ‘नास्ति’ भाव होने पर यह सोच बिल्कुल उल्टी हो जाती है। तब यक्ष-प्रश्न यह खड़ा होता है कि ‘नास्ति’ से बचें कैसे? बहुत ही सरल उत्तर यह है कि ‘नास्ति’ से ‘नकार’ को निकाल कर उसे ‘अस्ति’ बना लिया जाए। ‘नास्ति’ में तो सहज रूप से ‘अस्ति’ है, जबकि ‘अस्ति’ में ‘नास्ति’ हो ही नहीं सकता।

‘बदलें अपनी सोच सखे, परहित का हो ध्यान।

नकारात्मक छोड़ कर, सृजन बने पहचान।’

इसी संदर्भ में एक रोचक बोधकथा ऐसी मिली जो सबसे साझी करना जरूरी लगा—

‘गंगा के किनारे एक संत रहा करते थे, जो बहुत ही दयालु स्वभाव के थे। संत नित्य भगवान की पूजा-अर्चना करते थे। उस संत के बहुत सारे शिष्य थे, जो उनके सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। संत जन्म से अंधे थे, लेकिन उसका एक नियम था। वह प्रतिदिन दिन ढल जाने के बाद पहाड़ों पर सैर के लिए जाया करता था। जब भी वह भ्रमण के लिए जाता था, तो हरि का कीर्तन करते हुए जाता और इसी प्रकार वहां से रोज़ लौट आता था।

अपने गुरु को प्रतिदिन ऐसा करता देख उसके शिष्य असमंजस में पड़ जाते थे कि अंधे होने के बावजूद वे ऐसा कैसे कर लेते हैं? एक दिन जिज्ञासा के चलते एक शिष्य ने उनसे पूछा, ‘बाबा! आप हर रोज इतने ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर सैर के लिए जाते हैं, जहां बहुत गहरी खाइयां होती हैं और आप तो देख भी नहीं सकते। क्या आपको कभी डर नहीं लगता? कहीं आपके पांव कभी डगमगा गये तो?

संत पहले थोड़ा मुस्कराए और फिर चले गए। अगले दिन सुबह उन्होंने अपने उसी शिष्य को भ्रमण के लिए साथ चलने को कहा। पहाड़ों पर चढ़ते समय बाबा ने शिष्य से कहा कि यदि कोई गहरी खाई आए तो मुझे बता देना। ऐसे ही वे दोनों चलते रहे और जैसे ही गहरी खाई आयी, शिष्य ने बाबा को इस बारे में बताया और कहा, ‘बाबा गहरी खाई आ गयी है।’

यह सुनकर बाबा ने शिष्य से कहा, ‘अब तुम मुझे इस खाई में धक्का दे दो।’ बाबा की यह बात सुनकर शिष्य विस्मित होकर चारों ओर देखने लगा।

उसने कहा, ‘मैं, भला आपको कैसे धक्का दे सकता हूं। ऐसा कुछ करने की तो मैं सोच भी नहीं सकता। आप तो मेरे गुरु हैं। मैं तो अपने किसी दुश्मन को भी इतनी गहरी खाई में नहीं धकेल सकता।’

बाबा ने कहा, ‘मैं खुद तुमसे इस खाई में धक्का देने को कह रहा हूं, यह मेरा आदेश है और यदि तुम इस आज्ञा का पालन नहीं करोगे, तो तुम्हें नरक की प्राप्ति होगी।’ शिष्य ने कहा, ‘मुझे नरक भोगना स्वीकार है बाबा, किन्तु मैं ऐसा बिलकुल नहीं कर सकता।’

तब संत ने शिष्य से कहा, ‘अब तुम्हें समझ आया, जब तुम एक सामान्य मनुष्य होकर मुझे गहरी खाई में नहीं धकेल सकते, तो भला मेरा परमात्मा मुझे खाई में कैसे गिरने दे सकता है? भगवान हमेशा गिरे हुए को उबारते हैं और कभी किसी के भी साथ गलत नहीं होने देते हैं।’ यह सुनकर शिष्य ने अपने गुरु को प्रणाम किया और इस सच्ची सीख के लिए गुरु जी को धन्यवाद दिया।

मित्रो! सच यही है कि अनागत के प्रति हम जब नकारात्मक सोच रखते हैं तो मन में ‘भय’ की भावना बनी रहती है। महाकवि तुलसीदास की तरह हम भी अगर परम शक्ति के प्रति आस्था और निष्ठा का भाव रखें, तो अहित की सोच से मुक्त होना सरल हो जाएगा :-

‘एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।

एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।’

निश्चय ही, परम शक्ति में आस्था और निष्ठा मनुष्य के लिए संजीवनी होती है।

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