स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अधिकांश स्वतंत्रता सेनानियों ने नैतिक राजनीति का जो प्रतिमान स्थापित किया था उसका केंद्र-बिंदु कर्तव्य, आत्मानुशासन व लोककल्याण था और वह गीता-दृष्टि से ही अनुप्राणित था।
छब्बीस नवंबर का दिन भारतीय गणतंत्र के इतिहास में केवल संविधान अंगीकरण का उत्सव भर नहीं है, यह उन मूलभूत मूल्यों के पुनर्स्मरण का अवसर भी है, जिन पर हमारे लोकतंत्र की आत्मा टिकी हुई है। भारतीय संविधान केवल विधिक प्रावधानों का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि एक नैतिक संकल्प है... एक ऐसी मूल्य-व्यवस्था का घोषणापत्र है जो देश, समाज और व्यक्ति के संबंधों को संतुलन, न्याय और कर्तव्य के ढांचे में देखती है। इसी संदर्भ में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय संविधान की नैतिक चेतना का आधार-स्तंभ है। गीता का यह प्रभाव प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि दार्शनिक और नैतिक स्तर पर है। वह भारतीय मानस में सदियों से प्रवाहित उस दृष्टि का संहिताबद्ध रूप है, जिसने संविधान निर्माताओं की मूल्य-चेतना को आकार दिया।
संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ जैसे शब्द केवल विधिक संकल्प नहीं हैं, बल्कि नैतिक मूल्यों का दार्शनिक प्रतिपादन हैं। यह मूल्य किसी बाहरी प्रभाव से नहीं आए, वे भारतीय परंपरा की लंबी साधना में विकसित हुए हैं। संविधान सभा की चर्चाओं में कई सदस्यों ने बार-बार यह रेखांकित किया कि संविधान की आत्मा को समझने के लिए भारतीय संस्कृति के मूल में निहित ‘कर्तव्य-बोध’ को देखना आवश्यक है।
गीता का यह विशिष्ट योगदान है कि वह ‘कर्तव्य’ को किसी पुरस्कार, निजी-लाभ या भावनात्मक दबाव से ऊपर रखकर उसे समाज के प्रति उत्तरदायित्व के रूप में स्थापित करती है। यही दृष्टि आगे चलकर संविधान के ‘भाग-4क’ में नागरिकों के मूलभूत कर्तव्यों के रूप में प्रकट होती है। यद्यपि नागरिकों के मूलभूत कर्तव्यों को संविधान के बयालीसवें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा बाद में जोड़ा गया था तथा इसे 3 जनवरी 1977 से लागू किया गया था।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अधिकांश स्वतंत्रता सेनानियों ने नैतिक राजनीति का जो प्रतिमान स्थापित किया था उसका केंद्र-बिंदु कर्तव्य, आत्मानुशासन व लोककल्याण था और वह गीता-दृष्टि से ही अनुप्राणित था। यहां ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यही नैतिक विचार संविधान सभा के अधिकतर सदस्यों का भी मार्गदर्शन करता था।
जब संविधान में मूलभूत कर्तव्यों को शामिल किया गया, तो उसके पीछे यही भारतीय दृष्टि थी कि अधिकार और कर्तव्य परस्पर पूरक हैं। गीता में यह नैतिक आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है कि बिना कर्तव्य-पालन के कोई व्यवस्था स्थिर नहीं रह सकती। संविधान भी यही संदेश देता है कि नागरिक के अधिकार उसकी कर्तव्य-निष्ठा से सशक्त होते हैं, कमज़ोर नहीं।
भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र के शासन का आधार केवल अधिकारों की बहुलता नहीं है, बल्कि संतुलन की व्यवस्था है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की त्रि-संरचना संतुलन और विवेक पर आधारित है। गीता में जो जीवन-दृष्टि मिलती है, वह अतिरेक व अतिवाद से बचने और मध्यमार्गीय बुद्धि को अपनाने की शिक्षा देती है। संविधान में ‘युक्तियुक्त विवेक’, ‘नैतिकता’, ‘सार्वजनिक व्यवस्था’, ‘विवेकपूर्ण संतुलन’ जैसे सिद्धांत इसी नैतिक परंपरा से प्रेरित जान पड़ते हैं। यह दृष्टि भारतीय संविधान को केवल कानूनी दस्तावेज़ नहीं रहने देती, बल्कि उसे मूल्य-निष्ठ शासन की आधारशिला बनाती है।
भारतीय परंपरा में समाज के कमजोर, पीड़ित, वंचित और हाशिए पर खड़े व्यक्ति की सुरक्षा का दायित्व हमेशा से शासन पर रहा है। गीता में वर्णित दृष्टि यह मानती है कि समाज का वास्तविक धर्म वही है जो दुर्बलों की रक्षा करे, न्याय को प्राथमिकता दे और जीवन में संतुलन स्थापित करे। संविधान का उद्देश्य भी यही है कि ऐसा समाज बनाया जाये जिसमें व्यक्ति की गरिमा सर्वोपरि हो और राज्य लोककल्याण को अपना कर्तव्य समझे।
संविधान न केवल नागरिकों को, बल्कि शासन-तंत्र को भी उत्तरदायित्व और पारदर्शिता का पाठ पढ़ाता है। शासन का लक्ष्य ‘सेवा’ है। गीता के अनुसार भी नेतृत्व वह है जो दूसरों के लिए आदर्श प्रस्तुत करे, समाज की भलाई को प्राथमिकता दे और निर्णयों में निष्पक्षता बनाए रखे। यही नेतृत्व-दृष्टि भारतीय लोकतंत्र को स्वस्थ और जीवंत बनाती है। जब एक प्रशासक, न्यायाधीश, विधिनिर्माता या जनप्रतिनिधि इस नैतिक दृष्टि को अपनाता है, तो संविधान की आत्मा कार्यान्वित होती है और जब यह दृष्टि खो जाती है, तो संवैधानिक संस्थाएं केवल औपचारिक संरचनाएं बनकर रह जाती हैं।
अधिकारों के साथ उत्तरदायित्व, स्वतंत्रता के साथ संयम और विविधता के साथ सहिष्णुता... ये सभी संविधान की उसी नैतिक परंपरा से निकले हैं, जिसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि गीता ने दी है। जब समाज इस चेतना को भूलता है, तो कानून की संख्या बढ़ती है, किंतु व्यवस्था कमजोर हो जाती है।
आज संविधान दिवस आत्ममंथन का अवसर है... क्या हम संविधान की उस नैतिक दृष्टि के अनुरूप चल रहे हैं जिसने हमें दुनिया का सबसे जीवंत लोकतंत्र बनाया? क्या हम अधिकार मांगते समय अपने कर्तव्यों को भी याद रखते हैं? क्या प्रशासन और राजनीति पारदर्शिता और सेवा की भावना पर चल रही है? क्या हम समानता, न्याय और सह-अस्तित्व को प्राथमिकता देते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर हमें बताता है कि संविधान कितनी गहराई से हमारे दैनिक जीवन से जुड़ा है।
लेखक पंजाब विवि. चंडीगढ़ में कानून के प्रवक्ता हैं।

