दिनेश सी. शर्मा
यूक्रेन पर रूस की चढ़ाई ने भारतीय मेडिकल पढ़ाई व्यवस्था पर अप्रत्याशित रूप से ध्यान खींचा है। युद्धग्रस्त यूक्रेन के कई शहरों में फंसे भारतीय छात्रों के दृश्य विचलित करने वाले हैं। संघर्षरत इलाके से निकलकर पड़ोसी मुल्कों की सीमा तक पहुंचने के प्रयासों में इन्होंने खुद को भीषण संग्राम की चपेट में पाया। इस निकासी ने लगभग दो साल पहले, कोविड महामारी की शुरुआत में, चीन के वुहान शहर में फंसे भारतीय छात्रों को निकालकर लाने की यादें ताज़ा कर दीं। यह सर्वविदित है कि बहुत बड़ी संख्या में भारतीय विद्यार्थी मेडिकल शिक्षा पाने को विदेशी यूनिवर्सिटियों में पढ़ने जाते हैं, लेकिन यूक्रेन में इतनी बड़ी गिनती ने हैरत में डाला है। इस परिदृश्य के आलोक में भारत की मेडिकल शिक्षा व्यवस्था की समग्र पुनर्समीक्षा करना जरूरी हो जाता है।
भारतीय विद्यार्थियों द्वारा विदेशी यूनिवर्सिटियों में मेडिकल पढ़ाई करने के पीछे एक मुख्य कारण है भारत में बहुत ऊंची फीस और स्वदेशी मेडिकल कॉलेजों में पर्याप्त सीटें न होना। किंतु यह आंशिक रूप से सही है, असल समस्या बहुत गहरी है और हमारे स्वास्थ्य तंत्र की स्थिति से जुड़ी है। समस्या सुधारने का एकमात्र उपाय स्वास्थ्य व्यवस्था में ढांचागत बदलाव करके होगा और मेडिकल शिक्षा इसका एक अवयव है। मेडिकल शिक्षा समेत स्वास्थ्य व्यवस्था पर सबसे पहला सर्वे सर जोसेफ भोरे की अध्यक्षता वाली स्वास्थ्य सर्वे एवं विकास समिति ने वर्ष 1940 में करवाया था। इस पैनल की अनेक सिफारिशों को आजादी के उपरांत लागू किया गया और लोगों की स्वास्थ्य जरूरतें पूरी करने हेतु नए संस्थान बनाए गए और स्थितियों के अनुसार मेडिकल शिक्षा पाठ्यक्रम में सुधार किया गया। स्वास्थ्य व्यवस्था का वैसा व्यापक और बृहद सर्वे दोबारा नहीं हुआ, अलबत्ता समय-समय पर खास विषयों को लेकर विशेषज्ञ समितियां जरूर बनीं।
1980 के दशक में, जब स्वास्थ्य तंत्र में कॉर्पोरेट निजी अस्पताल चलाने की इजाजत मिली तो इनकी आमद के साथ लोगों की वास्तविक जरूरतें और इनके मुताबिक बनने वाली मेडिकल शिक्षा का संबंध जाता रहा। इस वक्त से पहले तक स्वास्थ्य सेवा और मेडिकल शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी खैराती अस्पताल, धर्मार्थ और अल्पसंख्यक स्वास्थ्य केंद्र खोलने तक सीमित थी। मुनाफा-गत या कॉर्पोरेट खिलाड़ियों को अनुमति देने वाले नीति निर्णय ने जगह-जगह निजी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल खोलने की राह खोल दी। कायदे से मेडिकल शिक्षा का विषय सरकार की जिम्मेवारी है, लेकिन कुछ राज्य सरकारों ने निजी मेडिकल कॉलेजों को बढ़ावा देने पर ज्यादा जोर दिया। बतौर एक नियामक, मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई), जिसको स्व-नियंत्रण संस्था होना चाहिए था, उसने उलटा निजी खिलाड़ियों की मदद की। कृषि क्षेत्र की अतिरिक्त कमाई मेडिकल और इंजीनियरिंग शिक्षा में निवेश करने की ओर मुड़ गई, बहुत से निजी कॉलेजों के मालिक राजनेता हैं या फिर उनके प्यादों के नाम पर चल रहे हैं। उधर अदालत ने भी अपने फैसले में निजी व्यावसायिक शिक्षा कॉलेजों को सरकारी संस्थानों से ज्यादा फीस वसूलने का हक दे डाला। भर्ती को आसान करने के लिए अनिवासी भारतीय (एनआरआई) और प्रोमोटर कोटे जैसी श्रेणियां जोड़ी गईं। मेडिकल सीटें सबसे ऊंचे बोलीदाता को बेची जाने लगीं।
इस सबका परिणाम यह हुआ कि एक धंधे की तरह मेडिकल कॉलेज यहां-वहां कुकुरमुत्ते की भांति उग आए। इसके अलावा, निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या में बढ़ोतरी ज्यादातर पश्चिमी और दक्षिणी सूबों में हुई है, जिससे बाकी देश की बनिस्बत इस क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज अधिक केंद्रित हो गए। दक्षिणी राज्यों में सरकार चालित मेडिकल कॉलेज भी अधिक हैं। डेंटल शिक्षा के लिए इतनी बड़ी संख्या में कॉलेजों की स्वीकृतियां दे दी गईं कि कुछ संस्थानों को छात्र तक जुटाने मुश्किल हो रहे हैं। यहां से उत्तीर्ण होकर निकले एक डेंटल डॉक्टर को जो वेतन मिलता है, वह ड्राइवर और प्लम्बर से भी कम है। मेडिकल और डेंटल पढ़ाई का स्तर गिरता गया। कई निजी मेडिकल कॉलेजों के पास न तो योग्यता प्राप्त स्टाफ है और न ही संलग्न प्रशिक्षण अस्पताल है। तुर्रा यह कि मेडिकल और डेंटल कॉलेज सीटों के लिए मांग बढ़ती गई। चूंकि शहरी इलाकों के कॉर्पोरेट निजी अस्पतालों में बढ़िया वेतन या निजी प्रैक्टिस करने पर कमाई अच्छी हो जाती है, लिहाजा उन बच्चों के अभिभावक, जिनके बस में निजी कॉलेजों में ऊंचा चंदा देने की हैसियत नहीं थी, उन्होंने अपने बच्चों को विदेशों में खुली ‘शिक्षा की दुकानों’ में भेजना शुरू कर दिया।
अनुभव दर्शाता है कि शिक्षा में निजी मेडिकल कॉलेजों की भागीदारी बनाकर व्यवस्था में सुधार लाने वाला प्रयोग असफल सिद्ध हुआ है। ग्रामीण इलाकों में उचित योग्यता प्राप्त मेडिकल कर्मियों की कमी आज भी बरकरार है। शहरी-उपनगरीय क्षेत्र में डॉक्टरों की सघनता कहीं ज्यादा है। कुछ खास तरह के रोग-विशेषज्ञ कोर्सों की मांग अधिक है जबकि अन्य विधाएं जैसे कि प्रिवेंटिव मेडिसिन, पब्लिक हेल्थ और छूत रोग माहिर बनने की ओर रुझान कम है। मेडिकल कॉलेज आवंटन और विस्तार करने में कुछ सूबों को ज्यादा तरजीह दी जाती है। मेडिकल शिक्षा प्राप्त करना गरीब तबके की पहुंच से बाहर हो गया है। सबसे ऊपर, निजी क्षेत्र में इलाज करवाने के दाम आसमान छू गए हैं। ऐसे परिदृश्य में, यह आस लगाना व्यर्थ है कि स्वास्थ्य ढांचे में व्याप्त तमाम कमियों से निजी क्षेत्र के जरिए निजात पाई जा सकती है, इसमें छात्रों के यूक्रेन जैसे देशों की ओर जाने वाली प्रक्रिया भी शामिल है।
जो सरकारी एजेंसियां और अधिक निजीकरण करने पर जोर दे रही हैं, उन्हें पिछले कुछ सालों में हल सुझाने वाले विशेषज्ञों के दिए कुछ उपायों पर अवश्य ध्यान चाहिए। ऐसे कुछ विचार यूनिवर्सल हेल्थ केयर पर बने पैनल ने पिछले सालों के दौरान सुझाए हैं। इनमें कहा गया कि सरकारें वंचित जिलों में मेडिकल कॉलेज और संलग्न अस्पताल खोलें। इनमें भर्ती के लिए स्थानीय छात्रों को तरजीह दी जाए। इस तरह वंचित क्षेत्रों को मेडिकल कॉलेज मिल जाएंगे और वहां से पढ़कर निकले वह डॉक्टर मिलेंगे जो खुद इस इलाके से होने की वजह से अपने ग्रामीण इलाकों में सेवा करने में इच्छुक होंगे। साथ ही, पढ़ाई-प्रशिक्षण के दौरान स्थानीय स्वास्थ्य समस्याओं के उपचार का अनुभव प्राप्त करने से इनकी दक्षता और क्लीनिकल अनुभव में इफाजा होगा। इलाज संबंधी कुछ खास ग्रामीण जरूरतें जैसे कि सर्प-दंश, जच्चा-बच्चा मृत्यु दर में कमी, कुष्ठ रोग, दूषित जल-जनित बीमारियां इत्यादि में खास महारत हासिल हो पाएगी। इसके अलावा, डॉक्टरों का प्रशिक्षण अलग-थलग संस्थानों में न करके इसको समग्र स्वास्थ्य कार्यबल योजना का अंग बनाया जाए। विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों की स्थानीय विशेष जरूरतों के हिसाब से अनेक नूतन विचारों पर क्रियान्वयन किया जा सकता है। यदि भारत ने सतत विकास लक्ष्य में निहित सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल पाने का ध्येय प्राप्त करना है तो इस किस्म की योजनाएं अपनाना बहुत महत्वपूर्ण है। युद्धक्षेत्र में फंसे युवा भारतीयों की त्रासदी इस जरूरत पर आंख खोलने का सबब बन सकती है।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।