बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव के जो भी नतीजे होंगे, उसका असर सबसे सीधे तौर पर पंजाब में महसूस किया जाएगा। क्योंकि पंजाब में बतौर प्रवासी श्रमबल बिहारी लोगों की बहुत बड़ी संख्या रहती है। बिहार विधानसभा के लिए भाजपा के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस के खिलाफ अपनी टिप्पणी में पंजाब का जिक्र किया।
गत सप्ताह की शुरुआत में, बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक टिप्पणी में पंजाब में काम करने वाले बिहारी प्रवासियों के लिए हीनता-सूचक शब्द बरतने के लिए कांग्रेस पार्टी को आड़े हाथ लिया, इसने पंजाब में 30 लाख की विशाल संख्या वाले कार्यबल पर फिर ध्यान खींचा, जबकि इनके बिना पंजाब में आज कोई भी परिवार काम नहीं चला सकता। लेकिन इससे पहले कि आप यह तय कर लें कि पंजाब में बिहार-यूपी की यह प्रवासी आबादी 21वीं सदी के गिरमिटिया, यानी ब्रिटिश राज द्वारा दुनियाभर में गन्ने के खेतों में काम करवाने को ले जाए गए बंधुआ मज़दूरों का आधुनिक रूप है या नहीं, आइए इस तर्क का संदर्भ समझते हैं।
सर्वप्रथम, पीएम मोदी की टिप्पणियां बिहार में बीजेपी की असाधारण पहुंच बनाने का हिस्सा हैं, जहां इसके सहयोगी दल के नीतीश कुमार पिछले 20 सालों से सत्ता पर काबिज हैं। इस अंतिम दौर में, बीजेपी के सभी शीर्ष नेता सियासी रूप से बेहद जागरूक इस राज्य में प्रचार के लिए अवतरित हैं - बीजेपी शासित छोटे से हरियाणा से भी 54 नेता चुनाव प्रचार में हैं, मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी भी दो बार जा चुके हैं।
द्वितीय, जैसे बीजेपी ने एक साल पहले हरियाणा में किया था, वह कोई कसर नहीं छोड़ेेगी। वह विपक्ष को बिहार में सत्ता में आने से रोकने के लिए सब कुछ करेगी। बीजेपी जानती है कि महागठबंधन की जीत हुई तो बीजेपी की अजेयता की धारणा टूट जाएगी। साथ ही, यह विजय राहुल गांधी में 2026 में असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में नई ऊर्जा से चुनाव लड़ने का जोश भर देगी और फिर 2027 में पंजाब के लिए भी तैयार कर देगी।
यही वजह है कि मुज़फ़्फ़रपुर में नरेंद्र मोदी ने 2022 में तत्कालीन पंजाब कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी द्वारा की गई ‘यूपी के भैया’ वाली टिप्पणी का मुद्दा उछाला। मोदी बखूबी समझते हैं कि कांग्रेस, चाहे कितनी भी कमज़ोर व बंटी हुई हो - आज पंजाब इकाई में मुख्यमंत्री पद के कम से कम पांच दावेदार हैं - फिर भी वह देश में एकमात्र पार्टी है जो बीजेपी के संभावित विरोधियों को एकजुट कर सकती है।
एक बार फिर, चन्नी को अपना बचाव करने को मजबूर होना पड़ा – उन्होंने कहा कि वह तो सिर्फ दिल्ली के आम आदमी पार्टी नेताओं को निशाना बना रहे थे, जो 2022 में पंजाब में जबरदस्ती घुसने की कोशिश कर रहे थे – लेकिन सच यह है कि यह शब्द, ‘भैया’, एक तुच्छता-सूचक संबोधन है, जो गिरते पंजाबी आत्म-सम्मान में श्रेष्ठता भाव जगाने की गर्ज से है। कभी दूध और शहद की धरती रहा पंजाब अब लगातार मुश्किलों में घिरता जा रहा, क्योंकि वह एक ही वक्त में कृषि संकट, जो कई दशकों की भीषणतम बाढ़ से और बढ़ गया व करीब नदारद उद्योग जैसी समस्या से जूझ रहा है, जिससे सूबे का स्थान राज्यवार जीडीपी के बरक्स कर्ज के अनुपात में देश में दूसरे नंबर पर है (सिर्फ अरुणाचल प्रदेश की हालत इससे पतली है)।
चूंकि प्रकृति को शून्यता पसंद नहीं, इसलिए कनाडा और दूसरे पश्चिमी देशों को पलायन कर रहे पंजाबियों की वजह से पैदा हुआ खालीपन भरने को –2021 की कनाडा की जनगणना के अनुसार, वहां करीब 10 लाख पंजाबी (कुल आबादी का 2.6 फीसदी) हैं – सीमांचल, पूर्वांचल, मगध और मिथिला से आए सांवले रंग के ‘भैया’ लोगों ने उनके द्वारा रिक्त रोजगार मौकों को भर दिया।
कहा जाता है कि पंजाब की 30 लाख प्रवासी आबादी में 60 प्रतिशत बिहार और 21 प्रतिशत उत्तर प्रदेश के हैं। मतलब, तीन करोड़ वाले राज्य में आबादी के हिसाब से हर दस पंजाब वासियों में एक प्रवासी है। वे पंजाब में दशकों से रह रहे, उनके बच्चे यहीं पैदा हुए और यहीं स्कूल जाते हैं – द ट्रिब्यून के पत्रकारों की खबरों के मुताबिक प्रवासी समुदाय के कई बच्चे गुरमुखी में पंजाबी मूल के स्कूली बच्चों की तुलना में बेहतर अंक ले रहे, हालांकि यह साफ नहीं कि यह शब्द, ‘मूल निवासी’, उन पर लागू होता है या नहीं।
आखिरकार, उसी देश में ‘मूल निवासी’ कौन है, जहां सैद्धांतिक रूप से सभी नागरिक समान हैं? और फिर, महाराष्ट्र में दिया जाने वाला ‘धरती पुत्र’ वाला तर्क पंजाब पर लागू नहीं होता–महाराष्ट्र में, ‘मराठी मानुस’ सिद्धांतत: ‘बाहरी लोगों’ के खिलाफ नौकरी के अपने हक के लिए लड़ रहा है, उनके मामले में ये बाहरी लोग ‘दक्षिण भारतीय’ हैं, लेकिन पंजाब में काम करने को शायद ही कोई पंजाबी बचा है। तब, बिहार और उत्तर प्रदेश के ‘भैया’ के लिए पंजाब में मैदान खुला है, जिन्होंने न केवल लगभग कृषि संबंधी क्रियाकलाप पर कब्जा कर लिया, बल्कि घरेलू काम समेत शहरी रोजगार में भी बड़ी घुसपैठ कर ली। अगर आप उन्हें निकालें,तो काम नहीं चलेगा।
ऐसे कई किस्से हैं कि पंजाबी (यानी सिख) ज़मींदारों ने कोविड के बाद बिहार व यूपी के गांवों में बसें भेजीं, और इन ‘भैया’ लोगों से वापस आने की मिन्नतें कीं। बीते हफ़्ते, पंजाब में सतलुज और ब्यास नदियों व अन्य जलस्रोतों किनारे बिहारी त्योहार छठ उत्साह से मनाया गया। खासकर लुधियाना में, जहां प्रवासी आबादी तेज़ी से बढ़ी, छोटे-बड़े पंजाबी उद्योगपतियों में बिहारी मज़दूरों को छठ के लिए घर जाने और इसके बाद बिहार विधानसभा चुनाव तक वहीं ठहरने सेे रोकने की होड़ थी– उन्हें पता है कि यदि ये परिवार चले गए तो उनकी फैक्टरियां बंद हो जाएंगी और खेतों में काम रुक जाएगा।
चंडीगढ़ स्थित इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट एंड कम्युनिकेशन के अनुसार, इस साल पंजाब में एमएसपी के मुताबिक गेहूं-धान फसल चक्र का कुल कारोबार 49,000 करोड़ रुपये रहेगा, जबकि प्रवासी मज़दूरों का मेहनताना 30,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। एक स्थानीय पंजाबी मजदूर और प्रवासी श्रमिक की मज़दूरी में औसत अंतर करीब 7000 रुपये है। साफ है यदि स्थानीय लेबर काम पर रखी गयी तो वेतन खर्च बहुत बढ़ जाएगा।
फिर भी, तुच्छता-सूचक यह शब्द, ‘भैया’, कायम है। विचार करें तो, इसका इस्तेमाल ज़्यादातर पंजाब में अपनी उच्चता की खुशफहमी पाले धनाढ्य वर्ग करता है – इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो दोपहर तक सोते हैं, शानदार कारें चलाते हैं, जिनने फोन में अपने धर्मगुरुओं के नंबर सेव हैं और कार्टियर सरीखी फैशन एक्सेसरीज़ के प्रदर्शन मेंें पटियाला के पूर्व-राजपरिवार से होड़ लगाते हैं। निश्चित ही दोआबा के दलितों को-जिनमें सभी विदेश नहीं गये- उनसे कोई दिक्कत नहीं जो ईमानदारी से दिहाड़ी करते हैं, चाहे वे देश के किसी भी हिस्से से हों।
इसीलिए आपको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी गौर से सुननी चाहिए। जब वे ‘यूपी/बिहार के भैया’ शब्द का जिक्र करते हैं और इसके बाद ‘गांधी परिवार के एक सदस्य’ की आलोचना करते हैं कि 2022 में यह तंज कसे जाने के वक्त वह तालियां बजा रहा था। वे सिर्फ कांग्रेस को ही निशाना नहीं बना रहे बल्कि छठ उत्सव मनाने लिए खचाखच ट्रेनों में घर पहुंचे बिहारी मज़दूरों को भी लुभा रहे हैं कि वे बीजेपी के पक्ष में वोट दें – यह जताकर कि देखो कांग्रेस तुम्हारे बारे में क्या सोच रखती है।
साफ़ है कि बिहार में हर वोट मायने रखता है। इसके अलावा, बिहार में जो होगा, वह निश्चित रूप से बिहार तक सीमित नहीं रहेगा - उस चुनाव का नतीजा सबसे सीधे तौर पर पंजाब में महसूस किया जाएगा।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।

