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विलुप्त प्रजातियों के पुनर्जीवन से जुड़े नैतिक पहलू

रोमुलस, रेमस और खलीसी का ‘सृजन’
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हजारों साल पहले विलुप्त डायर वुल्फ व आधुनिक भेड़ियों के डीएनए मिलाकर संकरित भेड़िये पैदा किये गये हैं। ‘कोलोसल बायोसाइंसेज’ द्वारा आनुवंशिक बदलाव के जरिए सृजित ये भेडि़ये अपने पूर्वज डायर वुल्फ की नकल हैं। निस्संदेह यह विलुप्त हो चुके जीवों को फिर जिंदा करने की दिशा में बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि है लेकिन इसे लेकर कई नैतिक सवाल भी उभरे हैं।

हरविंदर खेतल

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मानो यह सीधा किसी विज्ञान परिकल्पना– या यूं कहें गेम ऑफ थ्रोन्स से - लिया गया दृश्य हो, जब गत मंगलवार आनुवंशिक रूप से बदलाव करने के बाद पैदा किए गए रोमुलस, रेमस और खलीसी नामक तीन भेड़िया शिशुओं को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया गया। ये कोई साधारण भेड़िये नहीं हैं। इन्हें बायोटेक कंपनी ‘कोलोसल बायोसाइंसेज’ द्वारा विकसित किया गया है, ये भेड़िए आधुनिक स्लेटी भेड़िए के डीएनए को बहुत पहले विलुप्त हो चुके डायर भेड़िए के प्राचीन जीन से संकरित कर पैदा किए गए हैं।

यह तिकड़ी जैव-विज्ञान में आश्चर्यजनक वैज्ञानिक उपलब्धि है : 12,000 वर्ष पहले पृथ्वी पर विचरने वाले पुरातन भेड़ियों की पहली नकल। इनके ‘सृजन’ से हैरानी, उत्साह और, सही तौर पर, नैतिक बहस छिड़ गई है। ऐसा करके क्या हम इतिहास की गलतियां सुधार रहे हैं या फिर कल्पनात्मक संतुष्टि के लिए प्रकृति की पटकथा फिर से लिख रहे हैं?

रोमुलस, रेमस और खलीसी आनुवंशिक बदलाव के जरिए विलुप्त हो चुके जीवों को फिर जिंदा करने के व्यापक अभियान का एक नवीनतम अध्याय भर हैं। कुछ साल पहले, एलिज़ाबेथ एन -जो कि ब्लैक-फुटेड फेरेट का एक क्लोन था - उसके जन्म ने यह कर दिखाया कि बहुत पहले मर चुके जानवरों के डीएनए का उपयोग करके, उनकी व्यवहार्य संतानें बनाई जा सकती हैं। अब, वूली मैमथ, डोडो और थायलासीन (तस्मानियाई बाघ) को फिर से जीवित करने के प्रयास चल रहे हैं–यह सभी प्रयोग कोलोसल बायोसाइंसेज जैसी फर्में कर रही हैं, जो खुद को ‘डी-एक्सटिंक्शन टेक्नोलॉजी’ के अग्रदूत के रूप में पेश करती हैं।

इस किस्म के विकास हमारी कल्पना को लुभा रहे हैं। एक वूली मैमथ (लंबे बालों वाला विशालकाय हाथी) को टुंड्रा अंचल में फिर से चिंघाड़ते कौन नहीं देखना चाहेगा या जंगल में भयानक भेड़िये की गूंजती चीख सुनना? लेकिन जैसे-जैसे परिकल्पना और यथार्थ के बीच लकीर मिट रही है, वैसे-वैसे हमारी आत्मसंतुष्टि भी खत्म हो रही है। सवाल है, क्या विलुप्त जानवरों को वापस लाना चाहिए?

‘डी-एक्सटिंक्शन’ समर्थकों का तर्क है कि यह दोहरा नैतिक उद्देश्य पूरा करता है : सुधार और बहाली। थायलासीन और पैसेंजर कबूतर जैसी कई प्रजातियां मानवीय करतूतों- शिकार, वनों की कटाई, प्रदूषण के कारण विलुप्त हो गईं। उन्हें पुनर्जीवित करना, सदियों की पारिस्थितिकी क्षति की नैतिक भरपाई का एक तरीका है। पारिस्थितिकीय पहलू भी है। पुनर्जीवित प्रजातियां बिगड़ चुके पारिस्थितिकीय तंत्र में गायब हो चुके कई कार्यों को बहाल करने में मदद कर सकती हैं। मसलन, एक फिर से जिंदा हुआ वूली मैमथ आर्कटिक में घास मैदानों की सततता बनाए रखने और पर्माफ्रॉस्ट पिघलने की दर कम करने में सहायक हो सकता है। इसी प्रकार,सैद्धांतिक रूप से, पुरातन भेड़िये की नकलें, उन परिदृश्यों में शिकारी-शिकार अनुपात संतुलित कर सकते हैं, जहां ऐसी भूमिकाएं अब नदारद हैं।

नेक इरादे हमेशा अच्छे परिणाम नहीं देते - और जैव-इंजीनियरिंग के क्षेत्र में, अच्छे इरादे वाले प्रयोग भी नैतिक अस्पष्टता में फंस सकते हैं। रोमुलस, रेमस और खलीसी भयानक भेड़ियों जैसे दिखाई दे सकते हैं। लेकिन क्या वे असल में हैं? ये विलुप्त प्रजाति के नैसर्गिक जन्मे वंशज न होकर जैनेटिकली संकरित हैं - अपने मूल रूप में न होकर अपने विलुप्त पूर्वजों के रूप की नकल। कोलोसल बायोसाइंंस इसको ‘व्यावहारिक प्रति-विलुप्ति’ बता रही है, जबकि कुछ वैज्ञानिक मानते हैंै कि लाखों वर्षों के विकासक्रम की जगह महज 20 जीनों के मेल से बना जीव नहीं ले सकता। प्रश्न उठता है : क्या इन प्राणियों की प्रवृत्ति अपने पूर्वजों वाली होगी या फिर ये महत्वाकांक्षा और पुरानी यादों के अहसास कराने को पैदा किए जैविक शोपीस हैं? क्या ये व्यवहार के बेमेलपन, अप्रत्याशित स्वास्थ्य जोखिम या पारिस्थितिक विसंगतियों का सामना कर पाएंगे?

कोलोसल बायोसाइंसेज अपना काम उत्साह से आगे बढ़ा रही है। सवाल उठता है क्या यह विज्ञान है, पर्यावरणीय न्याय है, या फिर जुरासिक पार्क सरीखा एक मनोरंजन? इसको लेकर व्यावहारिक चिंताएं कायम हैं। मसलन इस अंतराल में जीवों के आवास स्थल बदल चुके हैं। पारिस्थितिकी तंत्र बदल चुका। जहां कभी मैमथ विचरते थे, वह आज जैसा आर्कटिक नहीं था। वह घास के मैदान, जहां कभी खूंखार भेड़िया शिकार करता था, वहां अब शहर हैं। हम पुनर्जीवित प्रजातियों को रखेंगे कहां? और क्या होगा जब उनका सामना मौजूदा पारिस्थितिकीय तंत्र, प्रजातियों या मानवीय गतिविधियों से होगा? कुछ वैज्ञानिकों का तर्क है, ये जानवर कभी भी जंगल लायक नहीं हो सकते। कुछ को डर है इनका पुनर्जीवन नाजुक बन चुके पारिस्थितिकी तंत्र को और अस्थिर कर सकता है या जो प्रजातियां गंभीर संकटग्रस्त हैं, उनके बचे-खुचे संसाधनों को ये नए जीव छीन सकते हैं। प्रति-विलुप्ति में आत्म संतुष्टि को और प्रोत्साहित करने का जोखिम है। मसलन यदि विलुप्ति को उलटा जा सकता है, तो फिर विलुप्ति होने की रोकथाम क्यों करें? जब हमारे पास क्षमता है कि उन्हें बाद में प्रयोगशाला में कभी भी पुनर्जीवित कर लेंगे, तो गैंडा या गंभीर रूप से संकटग्रस्त ऑरेंगुउटेन को बचाने की कोशिशें क्यों करें? यह भ्रमजाल समाज को पारिस्थितिकी के प्रति आैर लापरवाह बना सकता है।

प्रजातियों को वापस लाने की क्षमता, मानवता द्वारा अब तक इस्तेमाल की गई सबसे गहन - एवं खतरनाक भी - शक्तियों में से एक है। हालांकि प्रति-विलुप्ति अपने-आप में अनैतिक नहीं है। यह जैव विविधता, बहाली और वैज्ञानिक खोज में एक शक्तिशाली औजार हो सकती है। लेकिन इसे अत्यधिक सावधानी, पारिस्थितिक दूरदर्शिता और प्रकृति के प्रति विनम्रता की गहन भावना के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ में सहायक संपादक हैं।

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