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पर्यावरण भी प्राथमिकता हो डिजिटल युग में

नये दौर की शिक्षा
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अब हम ऐसे प्राइमरी स्कूलों की संभावनाएं देख रहे हैं, जहां बच्चों को आरंभ से ही डिजिटल और कृत्रिम मेधा की शिक्षा दी जाएगी। लेकिन इस दौड़ में कहीं स्कूलों की हरियाली समाप्त न हो जाए। कहीं खेल मैदान बहुमंजिला इमारतों की भेंट न चढ़ जाएं।

शिक्षा वह माध्यम है, जिसके सहारे हम तेजी से बदलती दुनिया के साथ कदम से कदम मिला सकते हैं। आज की दुनिया में कृत्रिम मेधा का बोलबाला है। रोबोट मनुष्य का स्थान लेने लगे हैं, क्योंकि संपन्न निवेशकों को लागत प्रबंधन में यही उपयुक्त लगता है। ऐसे में शिक्षा को यह सुनिश्चित करना होगा कि ज्ञान सही दिशा में पहुंचे, न कि डीपफेक और साइबर अपराध जैसे खतरनाक गलियारों में खो जाए।

यदि सर्वेक्षण बताते हैं कि बच्चों को दस तक का पहाड़ा या प्रतिशत निकालना भी नहीं आता, तो सवाल उठता है—वे इस बदलती दुनिया के ज्ञान से कैसे कदम मिला पाएंगे? सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में स्पष्ट किया है कि भारत में शिक्षा क्रांति का अर्थ केवल व्यावसायिक विस्तार नहीं है। शिक्षा संस्थानों का निर्माण करते समय पर्यावरणीय प्रभावों का संज्ञान लेना आवश्यक है। 29 जनवरी, 2025 को केंद्र सरकार की एक अधिसूचना कोर्ट के विचाराधीन हुई, जिसमें औद्योगिक शेड, स्कूल, कॉलेज और छात्रावास जैसी परियोजनाओं को पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना, 2006 के तहत पूर्व पर्यावरण मंजूरी से छूट प्रदान की गई थी।

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अधिसूचना में यह स्वीकार किया गया कि 20,000 वर्गमीटर से अधिक क्षेत्र में निर्माण कार्य पर्यावरण को प्रभावित करेगा, लेकिन यह भी कहा गया कि इन संस्थानों का राष्ट्रीय विकास में इतना महत्व है कि इन्हें पूर्व मंजूरी से मुक्त किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन अत्यंत आवश्यक है। जब यह संतुलन बिगड़ता है, तो घुटन, हरित क्षेत्र की कमी, खेल के मैदानों का लोप और शिक्षा के नाम पर व्यापार का विस्तार देखने को मिलता है।

बीते वर्षों में अनेक राजनीतिक दलों ने शिक्षा क्रांति के विभिन्न मॉडल प्रस्तुत किए हैं। यह कहा जाता है कि शिक्षा केवल निजी पब्लिक स्कूलों की बंधक नहीं होनी चाहिए। नीति यह होनी चाहिए कि सरकारी स्कूलों को इतना सक्षम बनाया जाए कि माता-पिता को अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने की कोई जल्दबाज़ी न रहे। लेकिन इस लक्ष्य के बावजूद, सरकारी स्कूल अब भी उस स्तर को नहीं छू पा रहे हैं, जिसकी कल्पना करके हमने निजी स्कूलों के वर्चस्व को चुनौती देने की कोशिश की थी।

सवाल यह है कि इतने प्रयासों के बावजूद, शिक्षा क्षेत्र में बड़े निवेशक क्यों प्रवेश कर रहे हैं? क्या शिक्षा अब सेवा नहीं, एक लाभकारी व्यवसाय बन गई है? अब तो स्कूलों के बीच नए स्कूल खोलने की परंपरा-सी बन गई है। पहले जहां खेल मैदान हुआ करते थे, वहां अब नर्सरी और प्री-नर्सरी की कक्षाएं बन रही हैं।

कहा जाता है कि निजी पब्लिक स्कूल एक लाभकारी सौदा बन चुके हैं। हर वर्ष इन स्कूलों की फीस और अन्य शुल्क बढ़ते जाते हैं। अब प्राइमरी कक्षाओं के साथ-साथ नर्सरी और प्री-नर्सरी भी ‘खुलने’ लगी हैं—जिनका मकसद शिक्षा कम, व्यापार अधिक लगता है।

संभावना है कि भविष्य में पुरानी शिक्षा प्रणाली अप्रासंगिक हो जाएगी और एक नई ‘डिजिटल शिक्षा’ उभरेगी—जो डेटा, एल्गोरिद्म और इंटरनेट के इर्द-गिर्द घूमेगी। ऐसे में स्कूलों में हरियाली, खेल मैदान और खुलापन खत्म न हो जाए, यह चिंता का विषय है।

अब हम ऐसे प्राइमरी स्कूलों की संभावनाएं देख रहे हैं, जहां बच्चों को आरंभ से ही डिजिटल और कृत्रिम मेधा की शिक्षा दी जाएगी। लेकिन इस दौड़ में कहीं पर्यावरण बलि का बकरा न बन जाए। कहीं स्कूलों की हरियाली समाप्त न हो जाए। कहीं खेल मैदान बहुमंजिला इमारतों की भेंट न चढ़ जाएं।

कोर्ट ने कहा कि सरकार का यह मानना कि केवल कुछ दिशा-निर्देशों का पालन कर लेने से पर्यावरण सुरक्षा हो जाएगी, पर्याप्त नहीं है। योजनाएं जब विस्तार लेती हैं तो व्यावसायिक हित हावी हो जाते हैं, और विशेषज्ञों की राय की अनदेखी शुरू हो जाती है।

पीठ ने माना कि स्कूल, छात्रावास व अन्य शैक्षणिक संस्थान पर्यावरणीय कानूनों के अधीन रहें और उन्हें पूर्व मंजूरी की अनिवार्यता से मुक्त न किया जाए। अधिसूचना में जो छूट दी गई थी, वह दोहरी मंजूरी प्रणाली में से पर्यावरणीय मंजूरी को हटा देती है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह संशोधन संरक्षित क्षेत्रों और प्रदूषित इलाकों में पर्यावरण मूल्यांकन की प्रक्रिया को कमजोर करता है। इस छूट के पीछे कोई मजबूत तर्क नहीं है, केवल यह संभावना है कि यह निजी शिक्षा क्षेत्र में व्यावसायिक निवेश को बढ़ावा देने का एक औजार बन जाए।

कोर्ट का संदेश साफ है—शिक्षा महत्वपूर्ण है, लेकिन स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण में। भावी पीढ़ी प्रदूषण और अंधाधुंध निर्माण की शिकार न बने, यही सुप्रीम कोर्ट और हर सजग नागरिक की अपेक्षा है।

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