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बहुत हुआ मानसून, मान के साथ गो सून

तिरछी नज़र
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सनसनीखेज घटनाओं के बादल क्या कम थे, जो तुम पहाड़ों पर एक के बाद एक फट रहे हो। इधर बाढ़ का पानी रह-रह कर धरा को जकड़ रहा है। तुम्हारे इस कृत्य का क्या करें जो मकानों को धराशायी करता हुआ निर्दोषों को लील रहा है।

हे मानसून! मान भी जाओ, यानी कि जाओ। अब बहुत हो गया। हम तुम्हें तुम्हारे नाम के अनुरूप सदा-से मान देते आए हैं। वैसे भी इस बार तुम्हारा आगमन कुछ जल्दी हो गया था। आधुनिक युवाओं की, विवाह पूर्व फोटो शूटिंग टाइप बेसब्री दिखाते हुए, तुम नियत समय से पहले ही धरा को तरबतर कर चुके थे। तब तो हमने दिल को समझा लिया था कि चलो सबका समय आता है। फिर तुम आए और तालाबों, बांधों और नदियों का दामन छलकाने लगे। वहां तक तो ठीक था, परंतु तुम तो ऐसे जम गए हो जैसे लोकतंत्र में भ्रष्टाचार रम गया हो। तुम्हारे ही कारण सड़कें नाले और नाले नदी बन रहे हैं।

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इधर हमारे अखबारों में एक के बाद एक घटती सनसनीखेज घटनाओं के बादल क्या कम थे, जो तुम पहाड़ों पर एक के बाद एक फट रहे हो। इधर बाढ़ का पानी रह-रह कर धरा को जकड़ रहा है। तुम्हारे इस कृत्य का क्या करें जो मकानों को धराशायी करता हुआ निर्दोषों को लील रहा है।

अरे भाई, हम शहरों के घिचपिच भरे मकानों में मेहमानों तक को एक-दो दिन से अधिक बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। आते ही जाने की माला मन ही मन जपने लगते हैं। अब तुम भी हो जो ढीठ की तरह जमे हुए हो।

अब किस-किस को झेलें? यहां महंगाई पहले से ही जमी हुई है। यह तुमसे ज्यादा ढीठ है। जाने का नाम यह भी नहीं लेती। सरकारी दामाद तो सूचकांकों की सुई के हिसाब से बढ़ा हुआ नेग झटक लेते हैं। पर गरीब-गुरबे तो बंधी-बंधाई में ही काम चलाते हैं। इधर बाजार को इस सूचकांक और नए वेतन आयोग की भनक लगती है, तो वह भी दाम बढ़ाने में पीछे नहीं रहता है। क्या लागत में वाजि़ब नफा जोड़कर दाम तय करने का जमाना गया? सुना है कि पचास पैसे की मेडिसिन पचास रुपये में और कम लागत का पेट्रोल कई गुना होकर भी बिक रहा हो तो पता ही नहीं चलता।

यहां महंगे कोचिंग संस्थानों और मल्टी स्टोरी अस्पतालों के खर्चे की बाढ़ से मध्यम वर्ग का दिल पहले ही डूबा हुआ है। ऊपर से रोज छा रही और बरस रही तुम्हारी काली घटाओं को देखकर यह दिल अब सहमने लगा है।

मुनाफाखोरों, कालाबाजारियों और नौकरी बनाए रखने जितनी सेवा की औपचारिकता–भर पूरी करने वाले कथित सेवकों की तरह तुम्हारी भी संवेदना शिथिल हो चुकी लगती है। केवल वोट हासिल करने के लिए ड्रामा और हंगामा करने वाले नेताओं की तरह तुम भी धरना देकर इस तरह से बैठ गए हो कि जाने का नाम नहीं ले रहे हो। इसलिए हे मानसून! अब मान के साथ गो सून। अब बहुत हो गया है।

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