लक्ष्मीकांता चावला
हाल ही में विजय दिवस मनाया गया। तीन दिसंबर को पाकिस्तान के साथ जो युद्ध शुरू हुआ, उसके परिणामस्वरूप 13 दिनों के संघर्ष के बाद बांग्लादेश अस्तित्व में आया और पाकिस्तान को भारतीय सेनाओं ने बुरी तरह धूल चटाई। पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी को 93 हजार सैनिकों के साथ हमारे देश के जनरल अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण करना पड़ा। पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान और आज के बांग्लादेश में जितने अत्याचार किए, उससे जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। हजारों बेटियों की इज्जत लूटी गई। जब शासक ही राक्षस बने थे और पाकिस्तान की सेना ही उन पर अत्याचार कर रही थी तो उनका बचाव कैसे होता। ऐसे में लाखों शरणार्थी पूर्वी बंगाल से भारत की सीमाओं में प्रवेश कर गए। जिंदगी, इज्जत और रोटी के लिए तरसते, तड़पते लोग भारत की गोद में शरण लेने के लिए आ गए। ऐसे समय में बंगाल में मुक्ति सेना का गठन हुआ और भारत सरकार ने पड़ोसी देश की पीड़ा को समझते हुए उन्हें आश्रय दिया।
अंततः बहुत भयानक युद्ध के बाद पाक सेना घुटनों पर आ गई। जनरल नियाजी ने बहुत प्रयास किया कि पाकिस्तान से कोई सहायता मिल जाए। जब कहीं से कुछ नहीं मिला तो फिर हर हिंदुस्तानी के लिए यह गौरव का अवसर मिला कि नियाजी ने अपनी पिस्टल हमारे सेना नायक के सामने रखकर हस्ताक्षर किए और फिर लगभग एक लाख सैनिकों ने भी हथियार डाले। एक नए देश का उदय हुआ। पाकिस्तान की आधी जमीन बांग्लादेश के नाम से अस्तित्व में आ गई। जो लाखों शरणार्थी भारत में आए उनका पालन-पोषण भारत ने किया। पाकिस्तान के घायल सैनिकों की देखभाल भी की। जो पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश के सैनिक थे, उनको भी वापस घरों में भेजा। शायद ही और कोई उदाहरण मिले जहां लगभग एक लाख सैनिक सुरक्षित उनके देश को वापस कर दिए गए हों।
लेकिन यक्ष प्रश्न, जिसका उत्तर आधी सदी बीतने के बाद भी नहीं मिला कि हमारे लगभग पचास सैनिक जो पाकिस्तान की कैद में रह गए थे वे कहां गए? वे वापस क्यों नहीं आए? क्या दुनिया भर के देशों में कोई ऐसा समझौता नहीं है कि युद्धबंदी वापस किए जाएं? नियम तो यह भी है कि युद्धबंदियों को बिना कोई हानि पहुंचाए उनके देश को सौंप दिया जाता है। सवाल उस समय की सरकार पर भी है, जिस सरकार ने पाकिस्तान के युद्धबंदी वापस कर दिए। आत्मसमर्पण करने वाले सभी फौजियों को नियाजी सहित सुरक्षित भेजा, पर वे उस समय अपने सैनिक क्यों नहीं वापस ले सके? क्या यह एक बहुत बड़ा राष्ट्रीय अपराध नहीं था?
पिछले पचास वर्षों में केंद्र में सत्ता अनेक राजनीतिक दलों के हाथ में रही। सभी 16 दिसंबर को जश्न मना लेते हैं। अब नया वार मेमोरियल बना। वहां भी सलामी दी गई। वहीं से चार मशालों को प्रज्वलित कर देश के अनेक क्षेत्रों में भेजा गया, पर उन आंखों में कोई रोशनी का दीपक नहीं जल सका, जो आंखें 1971 से निरंतर अपने पुत्र और पति की प्रतीक्षा में हैं। कुछ नन्हे-मुन्ने बच्चे जिन्होंने पिता को पूरी तरह देखा भी नहीं होगा वे भी इतना ही अपने बुजुर्गों से सुनते हैं कि उनके पिता पाकिस्तान के विरुद्ध लड़ने गये थे। विजय भी पा गए, पर गए कहां, उसका पता नहीं।
इस आधी शताब्दी में शायद देश के अधिकतर लोग भी भूल गए होंगे कि पाकिस्तान की काल कोठरियों में हमारे वीरों ने कितनी यातनाएं भारत मां की सुरक्षा करते हुए सही होंगी, लेकिन वे नहीं भूल सकते, जिनके वे परिजन थे। उनके आंगन में रोशनी तभी आएगी जब उन्हें कम से कम सही जानकारी तो मिले कि उनकी क्या हालत है जो आज तक लौट कर घर नहीं आए।
जब भी कोई सैनिक कर्तव्य पथ पर वीर गति को प्राप्त होता है तो एक बार पूरा गांव-शहर उसकी जय-जयकार से गूंजता है। तिरंगे में लिपटा वीर का शरीर जब घर आता है और देशभक्त उसे श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए उमड़ पड़ते हैं तो परिवार के घावों पर मरहम लग जाता है। जब शहीद सैनिक का शरीर तिरंगे में लिपटा सैनिकों के कंधे पर ही अंतिम संस्कार के लिए पहुंचता है, सलामी दी जाती है तब भी परिवार गर्व का अनुभव करता है, पर जो आज तक वापस ही नहीं आए उनके परिवारों को तो यह गर्व और गौरव पाने का अवसर भी नहीं मिला। वे बेचारे जिनके अपने घर से तो युद्ध के लिए गए, सैनिक वेश में गए, सैनिक धर्म भी निभाया पर यह पता न चला कि पाकिस्तान ने उन्हें कहां रखा, कैसे रखा, कब वापस देंगे और अब तो आधी सदी बाद यह प्रश्न भी पैदा होता है कि वे इस संसार में हैं भी या नहीं। जब तक यह जानकारी भी उन्हें न मिले तो उनके घाव सदा रिसते रहेंगे। सवाल यह है कि आखिर सरकार की आधी सदी की खामोशी का रहस्य क्या है?