दिनेश सी. शर्मा
जुलाई के पहले हफ्ते में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में आगामी नई शिक्षा नीति के विभिन्न पहलुओं को लेकर राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया था। इस बैठक में मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में बृहद-विषयक सुधार करने का परामर्श दिया गया, जिसमें चिकित्सा पढ़ाई भी शामिल है। ‘स्वास्थ्य देखभाल में बहु-विकल्प’ को बढ़ावा देने के लिए आए कई विचारों में एक यह था कि स्वास्थ्य शिक्षा को एकीकृत किया जाए। यह सुझाव आया कि एलोपैथी मेडिकल पढ़ाई के छात्रों को पुराने वक्त से चली आ रही भारतीय इलाज पद्धति जैसे कि आयुर्वेद की प्राथमिक समझ होनी चाहिए और इसी तरह आयुर्वेद के शिक्षार्थियों को एलोपैथी का प्राथमिक ज्ञान हो। जहां नई शिक्षा पद्धति में इस किस्म के तमाम प्रावधानों के बारे में विचार चला हुआ है वहीं मौजूदा आयुर्वेदिक शिक्षा पाठ्यक्रम को लेकर कुछ चिंतित स्वर भी उभरे। ‘इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स’ में छपे एक स्वीकारोक्ति लेख में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में आयुर्वेदिक शरीर विज्ञान के एक प्रोफेसर ने भारत में आयुर्वेद की पढ़ाई में गंभीर गलतियों का जिक्र किया। किशोर पटवर्धन के इस लेख से बहुतों की पेशानी पर बल पड़े क्योंकि वे एक जाने-माने आयुर्वेद अनुसंधानकर्ता और बहुत ज्यादा पढ़ी जाने वाली आयुर्वेदिक शरीर विज्ञान किताबों के लेखक हैं।
आयुर्वेद की विधा पुरातन ग्रंथ चरक संहिता और सुश्रुत एवं वाग्भट्ट द्वारा इसकी विवेचना पर आधारित है। समय-समय पर अन्य टिप्पणीकार और स्नातकों ने अपनी-अपनी व्याख्या कर इन आलेखों का पुनर्लेखन किया। पिछली कुछ शताब्दियों में, इनके मूल पाठ को आधुनिक मेडिकल साइंस में शारीरिक संरचना, शरीर विज्ञान, रोग-विज्ञान, जैव-रसायन, सूक्ष्म जैविकी में पाए नए ज्ञान के आलोक में व्याख्या कर फिर से लिखा गया। इन व्याख्याओं का उद्देश्य सदा यह परिणाम बनाने के लिए था कि आयुर्वेद ज्ञान और मौजूदा मेडिकल सिद्धांतों में काफी समानता है। प्रयास था कि आधुनिक खोजों के चश्मे से देखकर पुरातन ज्ञान को वैध और तार्किक बनाया जाए। एक अध्यापक और किताबों के लेखक के तौर पर पटवर्धन ने भी ठीक यही किया। उन्होंने माना कि मैंने जानबूझकर पुरातन सूक्तियों में सबसे ज्यादा उन्हीं तार्किक सूक्तियों को चुना जो आधुनिक समय के हिसाब से प्रासंगिक या सही प्रतीत हों। अब वे खुद कह रहे हैं कि पुराने पड़ चुके विचारों को सही सिद्ध करने का उनका यह रवैया गलत था, हालांकि विद्यार्थियों को पढ़ाते और पुस्तकें लिखते समय स्वयं यही किया।
उदाहरणार्थ, आयुर्वेद सूक्तियों में– जैसा कि आयुर्वेद शिक्षा एवं शल्य चिकित्सा के स्नातक कोर्स (बीएएमएस) में पढ़ाया जाता है– इसमें कहा गया कि वीर्य का निर्माण अस्थि-मज्जा में होता है जो खून में मिलकर पूरे शरीर में बहता है। इस वक्तव्य को सही सिद्ध करने के लिए, आयुर्वेद की आधुनिक किताबों में यह दलील दी गई कि ‘शुक्र’ दो किस्म का हो सकता है– यानी एक का मतलब वीर्य है तो दूसरा वह पदार्थ जो समूचे शरीर में मौजूद होता है जैसे कि प्रजनन हार्मोन्स। पटवर्धन एक अन्य उदाहरण मूत्र बनाने में गुर्दे की भूमिका का देते हैं। जहां इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं हैं कि पुरातन भारतीयों को मूत्र-तंत्र का सटीक पता था, लेकिन पुनर्व्याख्या करके यह यकीन दिलवाने की कोशिश की गई कि सब कुछ मालूम था। इस तरह नई मेडिकल खोजों और सिद्धांतों से होड़ लेने के लिए पुरानी पाठ्य सामग्री में घुमाकर व्याख्याएं जोड़ने का काम जारी रहा– ताकि यह लोकप्रिय धारणा पुख्ता रहे कि पुराने भारतीय सब कुछ जानते थे और अपने समय से बहुत आगे थे। चिंता इस बात की है कि इस किस्म की अतार्किक और गैर-वैज्ञानिक व्याख्याएं देशभर में सैकड़ों की संख्या में चल रहे आयुर्वेद शिक्षा कॉलेजों में लगी पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा हैं।
कुछ आयुर्वेदिक दवाओं में भारी धातुएं जैसे कि पारा और कैडमियम की अधिक मात्रा के बारे में विवादों के चलते यूरोप और अमेरिका में पहले ही इन पर नज़र है। साक्ष्य आधारित रवैया अपनाने की बजाय आयुर्वेद के पैरोकारों ने पाठ्य पुस्तकों में आधुनिक सिद्धांतों से मेल खाती व्याख्याएं जोड़ने की राह पकड़ी। उनका कहना है कि आयुर्वेद का भस्म-सिद्धांत आधुनिक काल के नैनो-मेडिसिन के अनुरूप है, इसलिए आयुर्वेद आधुनिक मेडिकल विज्ञान से कहीं आगे रहा है। जबकि आयुर्वेदिक दवाओं में भारी धातुओं की उपस्थिति पर मुख्य चिंता जारी है, जिसके कारण कई मामलों में जिगर को भारी नुकसान की खबरें मिली हैं। केरल के जिगर रोग विशेषज्ञ साइरियाक एब्बी फिलिप विज्ञान पत्रिकाओं में ऐसे मामलों की सूचना लगातार देते आए हैं, लेकिन आयुर्वेदिक दवाओं के विषैले असर को उजागर करने के लिए उनकी खासी खिंचाई की जाती है।
जो कुछ भी पुरातन ग्रंथों में है, उसको तार्किक बनाने का प्रयास करना, विचारधारा और राजनीतिक रूप से फायदा लेने के लिए आयुर्वेद की श्रेष्ठता का दावा करने के वास्ते है। विज्ञान विभाग भी इन पाठ्य पुस्तकों में दिए गए दावों का वैज्ञानिक आधार ढूंढ़ने के वास्ते परियोजनाओं को धन दे रहा है, चाहे यह गोमूत्र हो या त्रिदोष सिद्धांत। सरकार पुरातन पद्धति का आलोचनात्मक विश्लेषण करने की अनुमति देना नहीं चाहती। वह चाहती है कि पुरातन ज्ञान को व्यावहारिक, आधुनिक और वैज्ञानिक बनाकर पेश किया जाए। कोविड-19 महामारी के इलाज में आयुर्वेदिक उपचार को बढ़ावा देने के लिए सरकारी एजेंसियों ने ढुलमुल रवैया अपनाया था और कुछ आयुर्वेदिक कंपनियों द्वारा किए गए अवैज्ञानिक दावों का समर्थन किया। मणिपुर के एक पत्रकार को इसलिए जेल में डाल दिया कि उसने कोविड का इलाज गोमूत्र से करने पर शंका व्यक्त की थी। शरीर पर भारी धातुओं के विषैले असर का संज्ञान लेने की बजाय केंद्रीय आयुष मंत्रालय ने एब्बी फिलिप पर पुरातन चिकित्सा पद्धति को बदनाम करने का आरोप लगाया। हो सकता है कल को मंत्रालय और शुद्धतावादी तत्त्व पटवर्धन के साथ भी यही करें।
किसी पद्धति का आलोचनात्मक आकलन करना बहुत जरूरी होता है। जैसी संहिता एलोपैथिक दवाओं के लिए है, आयुर्वेदिक दवाओं को भी उसी तरह नियामकों के कड़े और सघन क्लीनिकल परीक्षण से गुजरकर दुष्प्रभाव, सुरक्षा और प्रभावशीलता सिद्ध करनी चाहिए। केवल योग्यता प्राप्त चिकित्सकों और उत्पादकों को आयुर्वेदिक दवाओं से इलाज और भारतीय पद्धति की दवाएं बनाने की इजाजत हो। आयुर्वेदिक दवाओं का उत्पादन आधुनिक दवाओं की तर्ज पर मानकों, गुणवत्ता, परीक्षण, लेबलिंग और विपणन के अनुसार हो। नई शिक्षा नीति भारतीय उपचार पद्धति के लिए बने राष्ट्रीय आयोग को आयुर्वेदिक शिक्षण पाठ्यक्रम की समीक्षा का मौका दे रही है। आयुर्वेदिक उपचार पद्धति को विचारधारा के फंदे से मुक्त कर फलने-फूलने दिया जाए।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के स्तंभकार हैं।