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चुनावी चक्रवात से प्याली में उठा तूफान

सहीराम एक यह तूफान है जी और एक वो तूफान था। दोनों अलग। तूफान-तूफान का फर्क। एक यह मिचौंग तूफान है, जो दक्षिण में उठा और एक वो चुनावी तूफान था, जो उत्तर से उठा। वैसे उत्तर से उठा चुनावी...

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सहीराम

एक यह तूफान है जी और एक वो तूफान था। दोनों अलग। तूफान-तूफान का फर्क। एक यह मिचौंग तूफान है, जो दक्षिण में उठा और एक वो चुनावी तूफान था, जो उत्तर से उठा। वैसे उत्तर से उठा चुनावी तूफान दक्षिण तक भी गया, लेकिन दक्षिण तक जाते-जाते उसका रुख पलट गया। दक्षिण से उठा मिचौंग तूफान भी उत्तर की तरफ आए तो कोई बात बने और कमजोर होकर तथा रुख पलटकर आए तो और अच्छा हो, क्योंकि वहां उसकी तीव्रता बहुत ज्यादा रही। चेन्नई तो डूब ही गया। जन-धन की हानि भी काफी हुई। अगर वह कमजोर होकर आएगा तो एक तो हम चेन्नई की तरह डूबने से बच जाएंगे और चक्रवात की तीव्रता कम रहेगी तो हमेशा नाराज रहने वाले किसान भी राजी हो जाएंगे। क्योंकि बारिश से उनकी फसलों को फायदा ज्यादा होगा। अति अच्छी नहीं होती न। फिर धूल-धुएं से भी कुछ छुटकारा मिल जाएगा, आसमान थोड़ा धुल जाएगा, सूरज थोड़ा चमकने लगेगा और धूप की गर्माहट को महसूस किया जा सकेगा। वरना दिल्ली-एनसीआर के लोगों ने तो लंबे समय से सूरज देखा ही नहीं है। भक्तजन बस पूरब की ओर देखकर जल चढ़ा देते हैं।

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खैर जी, मिचौंग तूफान से चेन्नई डूब गया। अभी मानसून के दिनों में दिल्ली डूब गयी थी। जमना जी अपना पुराना रास्ता देखने लाल किले से आईटीओ तक चली आयी थी। मुंबई का डूबना तो किस्से-कहानियों और फिल्मों तक पहुंच गया। जब महानगर ही डूबने लगें तो गांव-देहात की क्या बिसात। पर चेन्नई पहली बार नहीं डूबा। वह पहले भी डूबा है। उस डूब को मैनमेड कहा गया था। यह डूब तूफान की डूब है। अब जैसे मिचौंग तूफान से चेन्नई डूबा, वैसे ही उत्तर में चुनावी तूफान में कांग्रेस डूब गयी और जनता बह गयी मोदीजी के भाषणों में। वैसे भाषणबाजी उधर भी कम नहीं थी। वह दोनों तरफ थी।

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गालीबाजी की बात पहले हो चुकी है। कहते हैं तूफान की पूर्व चेतावनी हो तो बचाव हो सकता है। अब चक्रवातों की पूर्व सूचना तो मिल जाती है। लेकिन चुनावी चक्रवातों की पूर्व सूचना का सिस्टम अभी विकसित नहीं हो पाया है। वैसे नेताओं को इसकी जरूरत भी नहीं होती। वे लहर देख लेते हैं, आंधी और सुनामी देख लेते हैं। यहां तक कि अंडरकरेंट भी देख लेते हैं। वही क्या, चुनाव कवर करने वाले पत्रकार भी देख लेते हैं, चुनावी पंडित देख लेते हैं, टीवी स्टूडियोज में बैठे चुनावी विशेषज्ञ देख लेते हैं और एक्जिट पोल वाले देख ही लेते हैं। लेकिन उत्तर से उठे इस चुनावी तूफान को कोई नहीं देख पाया, न नेता, न पत्रकार, न विशेषज्ञ और नहीं सर्वे वाले। कहीं यह चाय की प्याली में उठने वाले तूफान की तरह ईवीएम से निकला तूफान तो नहीं था।

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