राजेश रामचंद्रन
पिछले हफ्ते, समाजवादी पार्टी नेता राम गोपाल यादव जो सपा के पितामह तुल्य मुलायम सिंह यादव के रिश्ते में भाई हैं, ने राज्यसभा में एक वादा करते हुए कहा कि यदि हमारी पार्टी सत्ता में आई, तो भतीजे अखिलेश यादव अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में तेजी लाएंगे और बेहतर बनवाएंगे। हालांकि यह अजीब संकल्प संसद के भीतर और बाहर चल रहे राजनीतिक शोरोगुल में दबकर रह गया। साफ है कि किसी ने राम गोपाल का इस तरह मौजूदा राजनीति के यथार्थ को कमतर करने वाले इस कथन पर ध्यान तक देना गवारा नहीं किया। अन्य राजनीतिक दलों की तरह सपा भी केवल मौकापरस्तों का झुंड है और यह वह राजनीतिक बिंदु है, जिसको दोहराने की जरूरत नहीं है। लेकिन तथ्य है कि सपा को स्वीकार करना पड़ा, वह भी इसके पक्ष में है, यह भांपते हुए कि अयोध्या में राम मंदिर का उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के बीच अपना महत्व है और यही वह चीज़ है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।
अयोध्या में राम मंदिर कोई अन्य पूजास्थल न होकर, वह एक मंदिर होगा, जिसका निर्माण बाबरी ढांचे को ढहा कर बतौर एक राजनीतिक परियोजना, हिंदुत्व का समर्थन पाने को हो रहा है, जिसका मकसद हिंदू वोट बैंक बनाना है। सपा नेतृत्व ने सदा पहचान की राजनीति जमकर की है, जिसमें निर्भरता अपनी जाति का समर्थन पाने के अलावा मुस्लिम वोटों पर भी रही है और मुस्लिम-यादव गठजोड़ बनाया। आज भी, सपा को मौजूदा विधानसभा चुनाव में उम्मीद है कि मुस्लिमों में व्याप्त असुरक्षा की भावना पर सवार होकर वह बड़ी संख्या में सीटें जीत सकेगी। फिर भी, समाजवादी दल को राम मंदिर के खिलाफ रखी अपनी तीन दशकों पुरानी राजनीतिक लीक से हटने को मजबूर होना पड़ा! क्यों?
हिंदू वोट बैंक संगठित है, कम-से-कम से हिंदी भाषी राज्यों में फिलहाल यही लग रहा है। वोट बैंक होने का मतलब जरूरी नहीं कि केवल एक दल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से वांछित चुनावी परिणाम हासिल कर ले, इसके लिए आवश्यक है किसी संप्रदाय या समूह विशेष के पुरातनपंथी विचारों का प्रचार करके माहौल बनाना। अक्सर यह वितंडा केवल प्रतीकात्मक रीतियों को लेकर खड़ा किया जाता है, मसलन, यह कहना कि सामान्य कानून को ताक पर रखकर मुस्लिम पुरुष को शरिया के मुताबिक निकाह करने या तलाक देने का अधिकार दे रखा है। हर मुस्लिम पुरुष न तो चार दफा विवाह करता है, न ही तीन बार तलाक-तलाक कहकर झटपट रिश्ता तोड़ देता है। लेकिन पुरातनपंथी सोच वाले कठमुल्ले अपने समुदाय के इस विशेषाधिकार को सुरक्षित रखना चाहते हैं। केवल उन्हीं को समर्थन देते हैं जो धर्म के नाम पर चल रहे इन रिवाजों को बनाए रखने का हामी हो। वे दल जो इस संप्रदाय की वोटें हासिल करने की लालसा रखते हैं, उन्होंने धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत को तोड़-मरोड़कर पितृ-सत्तात्मक रीतियां बरकरार रखने को अभयदान दे डाला।
कांग्रेस, सपा हो या वामदल अथवा फिर मुख्यधारा की कोई भी पार्टी, सभी वोटों के बदले कठमुल्लों को बढ़ावा देने के दोषी हैं। लेकिन अब इनमें कुछ दलों को भी हिंदुत्व कार्ड खेलने पर मजबूर होना पड़ा है। ऐसा नहीं कि यह करके वे भाजपा को उसी के खेल में कभी हरा पाएंगे, लेकिन नए संदर्भ की मांग है कि हिंदुत्व प्रतीकों की पूजा की जाए, ठीक इस्लामिक स्थलों पर सजदा करने जैसा। यह संदर्भ में आया बदलाव ही है कि राम गोपाल यादव को पलटी मारकर संसद में वादा करना पड़ा। इसका मतलब कि भाजपा और सपा के लिए राजनीति के खेल में बराबरी का मौका बाबरी ढांचे के विध्वंस को स्वीकार करने और ठीक उसी जगह पर राम मंदिर बनाने की जय-जयकार किए बगैर नहीं बन सकता। और इसीलिए सपा को मंदिर निर्माण में तेजी लाने और बेहतर बनाने वाला अपना इरादा घोषित करने को मजबूर होना पड़ा। यह सफाई देनी पड़ी कि उसने राम मंदिर का विरोध कभी नहीं किया था।
इससे पहले जनवरी माह में, अखिलेश यादव ने चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत सपने में आए भगवान कृष्ण की बात कहकर की थी। इस तरह के पैंतरे हर उस राजनेता ने सिद्ध कर रखे हैं जो अल्पसंख्यक वोटें पाने की चाहत रखता है। बहुसंख्यक वोट आधारित राजनीति की वैधता केवल उसी समय नहीं है जब भाजपा हिंदू वोट पाकर सत्ता हासिल करे, बल्कि जब सपा जैसी पार्टी, जो विगत में सदा मुस्लिम हित सुरक्षित रखने का प्रण करती आई है, वह भी हिंदुत्व राजनीति से फायदा उठाने की ओर झुक जाए। मथुरा और भगवान कृष्ण का नाम लेना भी इसी बहुलतावादी संदर्भ में आता है क्योंकि वहां भी मंदिर-मस्जिद स्थल का झगड़ा है और इस मसले में भी अखिलेश यादव की सपा वादा कर रही है कि वह हिंदुत्व राजनीति के फैसले के खिलाफ नहीं जाएगी।
यह दलील दी जा सकती है कि यहां सपा केवल चतुराई से काम ले रही है ताकि भाजपा के हिंदुत्व वाले नारे से पिछड़ न जाए, और मतदाताओं का ध्यान हिंदू-मुस्लिम वाले प्रचार से आहिस्ता से हटाया जा सके। लेकिन यह पार्टी 1992 में बाबरी ढांचा गिराए जाने के समय और भी चतुर रही थी, तब उसके बाद हुए चुनाव में सफलतापूर्वक सत्ता हासिल की थी और मुस्लिम मुल्लाओं का समर्थन पाकर अन्य पिछड़ा वर्ग को मजबूत किया था। ऐसा नहीं है कि सपा को अपनी उस्तादी का भान चुनावों के समय अचानक हुआ है। यह तो केवल उस बड़ी जनसंख्या की मांग की प्रतिक्रियावश है, जो वोट बैंक बनकर उभरा है और ऐसा करके सपा पुरातनपंथी विचारों की ताईद करने वाले अपने दूसरे वोट बैंक से संतुलन बैठाना चाह रही है।
कर्नाटक की भाजपा सरकार द्वारा हिजाब पर कड़ा रुख अपनाना और पड़ोसी राज्य केरल में मार्क्सवादी नीत सरकार द्वारा हिजाब के समर्थन में आना, दोनों ही वोट बैंक को लुभाने के लिए हैं। चूंकि केरल के हिंदू मतदाताओं का बड़ा हिस्सा अभी भी सांप्रदायिक लीक पर नहीं बंटा है और वह धर्म से इतर अन्य मुद्दों पर गौर करके वोट डालने को तरजीह देता है, इसलिए राजनीतिक दलों के लिए फिलहाल वहां वर्गीय वोट बैंक की हिमायत करना फायदेमंद है। अतएव, केरल में सभी गैर-भाजपा राजनीतिक दल हिजाब का समर्थन करके फायदा लेना चाहते हैं, ठीक उसी तर्क से, जैसे सपा अयोध्या में राम मंदिर का समर्थन करके फायदा उठाने की फिराक में है।
इससे पहले देशभर में अल्पसंख्यकों के वोट पाने को उनके पहचान-प्रतीकों का अनुमोदन करके लुभाने तक सीमित था। किंतु दशकों तक चले इस कारोबार ने बाकी आबादी में प्रतिक्रिया पैदा की, परिणामस्वरूप बहुसंख्यक वोट बैंक मजबूत हुआ, कम-से-कम हिंदी भाषी राज्यों में। केरल जैसे राज्य में इसकी झलक उस वक्त मिली जब वामपंथी सरकार उखड़ गई और सबरीमाला विवाद का फायदा उठाकर कांग्रेस नीत गठबंधन ने लोकसभा चुनाव में 20 में 19 सीटों पर विजय पा ली। बहुसंख्यक वोट बैंक उभरना एक चिंताजनक हकीकत है, वह जो हमारे निर्वाचित मौकापरस्त नेताओं को पुरातनपंथी और सांप्रदायिक एजेंडों का अनुमोदन करने पर मजबूर कर सकती है। और वह सब, जो दकियानूसी सोच रखने वाले इन समूहों से टक्कर ले रहे हैं उन्हें भी यह समझना होगा कि हिंदुत्व राजनीति का जवाब अल्पसंख्यक वोट बैंक से नहीं हो सकता। आधुनिकता की दरकार है कि हम पहचान के बाहरी प्रतीकों को तजें, फिर चाहे यह हिजाब, नकाब, तिलक या कोई फूल टांकना ही क्यों न हो, बिना किसी अपवाद के।
लेखक प्रधान संपादक हैं।