श्रमशक्ति के बेहतर उपयोग से सधेंगे आर्थिक लक्ष्य
यदि हम प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का समाधान कर सकें तो औसत आयु और शारीरिक विकास में और सुधार संभव है।
भारत में आगामी जनगणना की घोषणा कर दी गई है, जिसमें जातिगत आंकड़ों को भी शामिल किया जाएगा। इस जातिवार जनगणना का उद्देश्य वंचित वर्गों की वास्तविक स्थिति का आकलन कर उनके कल्याण के लिए प्रभावी नीतियां बनाना है। हालांकि, यदि इस प्रक्रिया का राजनीतिकरण किया गया, तो इसके सामाजिक लाभ की बजाय केवल राजनीतिक नारों और वादों का शोर सुनाई देगा, जिससे वंचित वर्गों को वास्तविक लाभ मिलने की बजाय केवल निराशा ही हाथ लगेगी।
भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के कारण जन्म और मृत्यु दर में उल्लेखनीय गिरावट आई है। पहले जहां कई शिशु उचित चिकित्सा के अभाव में पांच वर्ष की आयु पूरी नहीं कर पाते थे, अब उनकी संख्या आधी रह गई है। साथ ही, औसत आयु बढ़कर अब 72 वर्ष हो गई है, जो एक सकारात्मक संकेत है। यदि हम प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का समाधान कर सकें तो औसत आयु और शारीरिक विकास में और सुधार संभव है।
भारत में लोगों को रियायती राशन तो मिल रहा है, परंतु उन्हें गुणवत्ता युक्त जीवन और रोजगार की गारंटी नहीं मिल पा रही है। इसका सीधा असर बच्चों के पोषण पर पड़ रहा है। नतीजतन, देश में कुपोषण की समस्या बनी हुई है, जिससे कुछ बच्चे छोटे कद के पैदा हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर मोटापा भी स्वास्थ्य के लिए चुनौती है। हालिया आंकड़े की वर्तमान में प्रजनन दर 1.9 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है, जबकि जनसंख्या को स्थिर बनाए रखने के लिए न्यूनतम दर 2.1 प्रतिशत होनी चाहिए। इस संबंध में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर भी सामने आया है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रजनन दर अभी भी 2.1 प्रतिशत है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह घटकर 1.6 प्रतिशत रह गई है। इसका सीधा अर्थ है कि शहरी क्षेत्रों में किशोर और युवा जनसंख्या की हिस्सेदारी धीरे-धीरे कम होती जाएगी, और वृद्ध जनसंख्या का अनुपात बढ़ेगा। इसके विपरीत, ग्रामीण भारत में यह असंतुलन अपेक्षाकृत कम देखने को मिलेगा।
इस बदलाव का सामाजिक और भौतिक ढांचे पर भी असर दिखने लगा है। शहरी क्षेत्रों में अब वृद्धजनों के अनुकूल रहन-सहन की मांग बढ़ रही है। इसलिए नियोजित फ्लैट, वृद्धाश्रम, और ऐसी बस्तियों का निर्माण बढ़ रहा है जहां बुजुर्ग सुरक्षित और सहज जीवन व्यतीत कर सकें।
यदि यह गिरती हुई प्रजनन दर बनी रहती है, तो आने वाले वर्षों में भारत की कार्यशील जनसंख्या में कमी आ सकती है। तब भारत को एक युवा देश कह पाना कठिन होगा। जिस प्रकार हम जापान और चीन के बारे में कहते हैं कि वहां वृद्धजन अधिक और युवाजन घटते जा रहे हैं, भारत के शहरी क्षेत्रों में भी यह स्थिति उभर सकती है, खासकर तब जब परिवार नियोजन पर अत्यधिक बल दिया जाए।
साथ ही जनसंख्या परिवर्तन का राजनीतिक उपयोग भी देखा जा रहा है। कुछ वर्गों द्वारा इन आंकड़ों को अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुसार प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे जनसंख्या नीतियों का संतुलन बिगड़ने की आशंका है।
दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु से यह स्वर उभरा है कि वहां के लोगों ने समय रहते परिवार नियोजन अपनाया, जबकि उत्तर भारत के राज्य जैसे उत्तर प्रदेश-बिहार इस दिशा में अपेक्षाकृत पीछे रह गए। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में जनसंख्या वितरण असंतुलित हो गया है। अब जब जनसंख्या के आधार पर संसदीय प्रतिनिधित्व तय होता है, तो दक्षिण भारत को आशंका है कि कम जनसंख्या के कारण उन्हें नुकसान हो सकता है।
लेकिन विडंबना है कि आधुनिकता के दावों के बावजूद भारत में महिलाओं को रोजगार और उन्नति के समान अवसर नहीं मिल पा रहे हैं। केवल सीमित प्रतिशत में महिलाएं ही औपचारिक कार्य क्षेत्र में सक्रिय हैं, जबकि शेष घरेलू या खेतों में कार्यरत हैं, जिनका श्रम अक्सर अनदेखा रह जाता है। यदि देश को विकसित बनाना है, तो महिलाओं को समान भागीदारी देनी ही होगी।
इसी तरह, कुछ राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में औसत आयु में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पा रही है, जिससे वहां की जनसंख्या बाकी देश के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पा रही। यह एक निवेश विसंगति को जन्म देता है, जिसके समाधान के लिए सरकार को अपनी विकास प्राथमिकताएं पुनः तय करनी होंगी।
यह सही है कि भारत जैसे बड़े देश में जन्म दर का घटना एक वरदान हो सकता है, लेकिन यह तभी सार्थक होगा जब देश की युवा पीढ़ी को योग्यता के अनुरूप रोजगार मिले। आज की शिक्षा प्रणाली छात्रों को उस दिशा में नहीं ले जा रही, जहां डिजिटल, नवाचार और रोबोटिक्स आधारित अर्थव्यवस्था की मांग है। अभी भी हम क्लर्क और पारंपरिक नौकरशाह तैयार करने वाली शिक्षा प्रणाली से बाहर नहीं निकल सके हैं।
लेखक साहित्यकार हैं।