योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
भौतिकता के जंजाल में उलझी दुनिया आज जाने क्यों आस्था, विश्वास और अदृश्य शक्ति के प्रति युगों से चली आती अपनी अनुभूति को भी स्वीकार नहीं करना चाहती? महाकवि तुलसीदास ने विश्व कृति के रूप में समादृत अपनी रचना रामचरित मानस में बहुत ही मार्के की बात कही है। जब राजा दशरथ ज्येष्ठ पुत्र राम को राज्य देने का निश्चय करते हैं तो अचानक कैकेयी की हठ के कारण राम को चौदह वर्षों के वनवास का आदेश मिलता है। भरत ननिहाल से लौटकर जब कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ से इसका कारण पूछते हैं तो वशिष्ठ कहते हैं कि सुनहु भरत भावी प्रबल, कह रोए मुनि नाथ। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ।
जीवन के इस परम सत्य में कुल छह ऐसी बातें हैं, जो मनुष्य के हाथ में नहीं हैं, बल्कि विधि अर्थात किसी परम सत्ता के हाथों में होती हैं। इस सच्चाई को जानते हुए भी मनुष्य इन छह में से तीन अर्थात लाभ, जीवन और यश का कर्ता तो स्वयं को मानने लगता है और शेष तीन अर्थात हानि, मरण और अपयश के लिए दोषी भाग्य या किसी और को मानता है।
एक प्रसंग पढ़कर मैं सोचता रहा कि जीवन क्या सचमुच किसी अदृश्य परमसत्ता से ही संचालित हो रहा है? वह प्रसंग है-रात नौ बजे अचानक मुझे एलर्जी हो गई। घर पर दवाई थी नहीं, न ही उस समय मेरे अलावा घर में कोई और था। ड्राइवर भी अपने घर जा चुका था। बाहर हल्की बारिश की बूंदें बरस रही थीं। दवा की दुकान ज्यादा दूर नहीं थी, लेकिन बारिश की वज़ह से पैदल न जाकर मैंने रिक्शा लेना ही उचित समझा।
नज़दीक ही राम मन्दिर बन रहा था। एक रिक्शा वाला भगवान से कुछ प्रार्थना कर रहा था। मैंने उससे पूछा-क्यों भाई, चलोगे तो उसने सहमति में सिर हिलाया। रिक्शा वाला काफी बीमार लग रहा था और उसकी आंखों में आंसू भी थे। मैंने पूछा-क्या हुआ भैया! रो क्यूं रहे हो और तुम्हारी तबियत भी ठीक नहीं लग रही है? उसने बताया कि बाबूजी, बारिश की वजह से तीन दिन से सवारी नहीं मिली और मैं भूखा भी हूं। बदन भी दर्द कर रहा है। मैं अभी भगवान से प्रार्थना कर रहा था क़ि आज मुझे कुछ खाना दे दो, मेरे रिक्शे के लिए सवारी भेज दो। मैं रिक्शा रुकवाकर दवा की दुकान पर चला गया। मैं वहां खड़ा-खड़ा सोच रहा था… कहीं भगवान ने ही तो मुझे इसकी मदद के लिए नहीं भेजा है? क्योंकि यदि यही एलर्जी आधे घंटे पहले हो जाती तो मैं ड्राइवर से दवा मंगाता, तब रात को बाहर निकलने की मुझे कोई ज़रूरत ही नहीं थी और रिक्शे में भी मैं न बैठता।
मैंने मन ही मन भगवान से पूछ ही लिया कि मुझे बताइए कि क्या आपने रिक्शे वाले की मदद के लिए ही मुझे भेजा है? मुझे मन से जवाब मिला-हां…। तब मैंने भगवान को धन्यवाद दिया और अपनी दवाई के साथ ही रिक्शे वाले के लिए भी दवा ले ली। जाने किस प्रेरणा से मैंने बगल के रेस्तरां से छोले-भटूरे पैक करवाए और रिक्शे पर आकर बैठ गया। जिस मन्दिर के पास से मैंने रिक्शा लिया था, वहीं पहुंचने पर मैंने रिक्शा रोकने को कहा। रिक्शा वाले के हाथ में किराए के 30 रुपये दिए और गर्म छोले-भटूरे का पैकेट और दवा देकर बोला-लो, यह खाना खाकर दवा भी खा लेना। एक-एक गोली ये दोनों अभी और एक-एक कल सुबह नाश्ते के बाद और उसके बाद मुझे आकर फिर दिखा जाना।
रोते हुए रिक्शा वाला बोला-मैंने तो भगवान से दो रोटी मांगी थी, मग़र भगवान ने तो मुझे छोले और भटूरे दे दिए। कई महीनों से यही खाने की इच्छा थी। आज मेरे भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। कई बातें वह बोलता रहा और मैं स्तब्ध होकर उसकी बातें सुनता रहा। घर आकर मैंने सोचा क़ि उस रेस्तरां में तो बहुत सारी चीज़ें थीं, मैं कुछ और भी तो ले सकता था उसके लिए। क्या सच में ही भगवान ने मुझे रात को अपने भक्त की मदद के लिए ही वहां भेजा था..?
हम जब कभी किसी की मदद करने सही वक्त पर पहुंचते हैं तो इसका मतलब यही होता है कि उस व्यक्ति की प्रार्थना भगवान ने सुन ली और हमें अपना प्रतिनिधि बनाकर उसकी मदद के लिए भेज दिया है। क्या सचमुच कोई ऐसी परम सत्ता है, जो हमें किसी न किसी रूप में कठपुतली की तरह नचाती है और हमें पता तक नहीं चलता कि हम जो कार्य कर रहे हैं, वह कराने वाला तो कोई और है?
लगता है कि भौतिकवादी होकर हम सब खुद को ही हर अनुकूल बात या उपलब्धि का कारण मान कर इतराने लगते हैं और प्रतिकूलता का सारा दोष जान बूझकर ईश्वर के मत्थे मढ़ देते हैं। आइए, कभी तो जीवन के जंजालों से बाहर निकल कर कुछ देर के लिए जीवन की उपलब्धियों के लिए परम सत्ता का हृदय की गहराइयों से आभार व्यक्त करना सीख लें। संकल्प लें कि जीवन को सरल बनाकर जीएंगे, ताकि जो गरल है, वह मधु बन सके।