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श्वान की शान और लोकतांत्रिक हलचल

तिरछी नज़र

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वह तो एक माननीय का पालतू था, जो उतने ही शालीन अंदाज़ में चला, जितने शालीन होने की अपेक्षा कभी-कभी माननीयों से भी कर ली जाती है। उसने न भौंकने की जरूरत महसूस की, न दौड़ने की।

युधिष्ठिर के साथ कहते हैं, एक कुत्ता स्वर्ग गया था और देवताओं ने भी उतना हल्ला नहीं मचाया होगा, जितना अब एक कुत्ते के संसद में प्रवेश करने पर मच गया है। सारे अख़बार और टीवी चैनल उसी कुत्ते की सांसों की गणना कर रहे हैं, मानो वह सिर्फ इमारत में नहीं घुसा, लोकतंत्र की रीढ़ में भी हलचल पैदा कर गया हो। यह कोई पहली बार नहीं था जब कुत्ता राष्ट्रीय सुर्खियों में आया हो। कभी सर्वोच्च अदालत ने सड़कों पर घूमते कुत्तों को लेकर दिशानिर्देश जारी किए थे और इस बार सत्ता के गलियारों में आते ही वही प्राणी वैधानिक बहस का नया बिंदु बन गया।

संसद में आया यह कुत्ता न आवारा था, न उद्दंड। वह तो एक माननीय का पालतू था, जो उतने ही शालीन अंदाज़ में चला, जितने शालीन होने की अपेक्षा कभी-कभी माननीयों से भी कर ली जाती है। उसने न भौंकने की जरूरत महसूस की, न दौड़ने की। न उसने टांग उठाकर क्षेत्रीय प्रभुत्व जताया। वह जितनी चुप्पी से आया, उतनी ही चुप्पी से चला गया, लेकिन देश में शोर ऐसा उठा मानो किसी संवैधानिक संस्था पर हमला हो गया हो।

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कुत्ते के प्रवेश को लेकर राजनीतिक बयानबाज़ी भी तेज़ रही। कुछ लोगों को लगा कि यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं का अपमान है, जबकि कुछ ने इसे बड़ा मुद्दा बनाने वालों को समझाया कि लोकतंत्र को खतरा कुत्तों से नहीं, उन इंसानों से है जो बिना आवाज़ किए भी काट लेने की क्षमता रखते हैं। बड़े-बड़े टीवी चैनलों ने भी रात भर पैनल बैठाकर कार्यक्रम किए। चुनाव, अर्थव्यवस्था, रोजगार जैसे विषयों पर सीमित दिलचस्पी रखने वाले वही चैनल इस ‘कुत्ता-कांड’ पर विशेषज्ञ बुलाकर बता रहे थे कि यह घटना किस दल को राजनीतिक लाभ पहुंचा सकती है और कौन-सा गुट इससे शर्मिंदा होना चाहिए।

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सोशल मीडिया ने भी अपने हिसाब से हास्य का मसाला डाला। एक लोकप्रिय मीम में सवाल पूछा गया—‘कुत्ता संसद में क्यों गया?’ जवाब था— ‘क्योंकि उसे लगा कि वहां भी उसकी नस्ल के जीव मिलेंगे।’ दूसरे मीम में मज़ाक था कि अगर कुत्ता अपनी पहचान ज़्यादा साफ़ करता, तो कोई दल उसे ब्रांड एंबेसडर बना देता।

कुत्ता बिना बोले चला गया, और बहस पीछे छूटती चली गई। लोग आज भी तय नहीं कर पा रहे—समस्या कुत्ते से है, इंसान से, या इंसान जैसे किसी और से। जो भी हो, संसद में आया वह कुत्ता अपने व्यवहार से कम, और हमारे व्यवहार से ज़्यादा परिचित करवा गया।

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