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मीडिया को ‘गैंग’ और ‘गोदी’ में बांटना चिंताजनक

विश्वनाथ सचदेव हाल ही के एक टीवी कार्यक्रम में एक वरिष्ठ पत्रकार बता रहे थे कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व-कार्यकाल में कैसे उन्होंने प्रधानमंत्री के एक विदेशी दौरे में साथ जाने के प्रधानमंत्री कार्यालय के एक अनुरोध को अस्वीकार...
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विश्वनाथ सचदेव

हाल ही के एक टीवी कार्यक्रम में एक वरिष्ठ पत्रकार बता रहे थे कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व-कार्यकाल में कैसे उन्होंने प्रधानमंत्री के एक विदेशी दौरे में साथ जाने के प्रधानमंत्री कार्यालय के एक अनुरोध को अस्वीकार करते हुए अपनी जगह अपने सहयोगी को भेजने की ज़िद की थी– और उनकी यह ज़िद पूरी भी हुई थी। वरिष्ठ पत्रकार ने यह भी बताया कि प्रधानमंत्री उनके सहयोगी की विचारधारा को पसंद नहीं करते थे।

वरिष्ठ पत्रकार ने यह बात ‘इंडिया’ गठबंधन द्वारा कुछ टीवी चैनलों के एंकरों के बहिष्कार के संदर्भ में कही थी। इस ‘बहिष्कार’ या ‘असहयोग’ को घोषित हुए लगभग एक महीना हो रहा है। पता नहीं इस कार्रवाई का संबंधित राजनीतिक दलों पर क्या असर पड़ा है अथवा चैनलों की टीआरपी में कितना और कैसा अंतर आया है, पर यह अवश्य हुआ है कि इस विवाद ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता के सवाल को एक बार फिर उभार कर सामने ला दिया है। एक समाचार चैनल ने इस सवाल पर एक सर्वेक्षण भी कराया है और उसके परिणाम बता रहे हैं कुल मिलाकर टीवी दर्शकों को यह कार्रवाई बहुत पसंद नहीं आयी है। अभिव्यक्ति की आज़ादी में विश्वास करने वाली व्यवस्था में इस तरह का बहिष्कार कोई अच्छी बात नहीं मानी जा सकती है। हां, जैसे पत्रकारों और एंकरों को अपनी बात कहने का, सवाल पूछने का, अधिकार है, वैसे ही राजनीतिक दलों को भी यह अधिकार है कि वह किसी चैनल के कार्यक्रम में सहभागिता करें अथवा नहीं।

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बहरहाल, इस विषय को लेकर कार्रवाई के पक्ष-विपक्ष में काफी कुछ कहा-सुना जा चुका है, और शायद इसी का परिणाम है कि हमारी पत्रकारिता की विश्वसनीयता फिर एक बार सवालों के घेरे में है। इस संदर्भ में हुए एक से अधिक सर्वेक्षणों में यह बात उभर कर सामने आई है कि पत्रकारिता, विशेष कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की विश्वसनीयता पिछले एक अर्से में काफी कम हुई है– और एक जनतांत्रिक समाज के लिए यह निश्चित रूप से चिंता की बात होनी चाहिए। शुक्र है कि प्रिंट मीडिया अभी भी एक सीमा तक इस संदर्भ में कुछ बेहतर स्थिति में है, पर सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों की लगातार घटती विश्वसनीयता गंभीर चिंता की बात होनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करने वाले समाज में मीडिया की यह स्थिति किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। समाज को सही स्थिति से परिचित कराना पत्रकारिता का सर्वोपरि उद्देश्य है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले, और एक अर्से तक उसके बाद भी विश्वसनीयता की इस कसौटी पर हमारी पत्रकारिता पर्याप्त ऊंचे पायदान पर थी, पर इस बारे में सर्वेक्षण करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के आकलन बता रहे हैं कि अब हमारा स्थान बहुत नीचे आ चुका है।

पत्रकारिता की विश्वसनीयता और स्वतंत्र पत्रकारिता का सीधा और गहरा रिश्ता है। यह जानकर कुछ अच्छा नहीं लगता कि मीडिया की स्वतंत्रता के संदर्भ में हमारा स्थान वर्ष 2023 में 180 देशों में 161वां है ‘रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स’ के ताज़ा आकलन के अनुसार पिछले वर्ष यानी 2022 में हमारा स्थान 157वां था। अर्थात‍् हम चार सीढ़ियां और नीचे उतर गये!

इन अंतर्राष्ट्रीय आकलनों को किसी ईर्ष्या और षड्यंत्र का हिस्सा बता कर अपनी कमीज की सफेदी पर हम भले ही गर्व कर लें, लेकिन यह एक सच्चाई है कि विश्वसनीयता और स्वतंत्रता की दृष्टि से हमारी पत्रकारिता का तेजी से ह्रास हुआ है। यह बात तो समझ में आती है कि बाकी नागरिकों की तरह ही पत्रकारों के भी अपने कुछ विचार हो सकते हैं, पर समझ में यह बात भी आनी चाहिए कि पत्रकारिता सिर्फ एक पेशा नहीं, एक दायित्व भी है। यदि किसी पत्रकार के अपने विचार अथवा अपनी कोई विवशता यह दायित्व निभाने में बाधक बनती है तो कतई ज़रूरी नहीं है कि व्यक्ति पत्रकारिता के क्षेत्र में बना रहे।

लगभग आधी सदी पहले जब मेरी पीढ़ी पत्रकारिता में आई थी तो शुरू में ही सिखाया जाता था कि समाचार की पवित्रता में कोई आंच नहीं आनी चाहिए। हां, अपनी टिप्पणी सामने रखने का अधिकार सबको है। समाचार की पवित्रता का मतलब है समाचार के साथ कोई छेड़-छाड़ न हो। पूरी बात पूरी ईमानदारी के साथ पाठक-दर्शक तक पहुंचाई जाये। आप अपने विचार अलग से दे सकते हैं, पर इस बात का ध्यान रखा जाना ज़रूरी है कि पत्रकारिता का उद्देश्य पाठक-दर्शक को अपनी राय बनाने, सामने रखने के लायक बनाना है। दुर्भाग्य से, यह उद्देश्य अब पीछे धकेला जा रहा है। हमारी पत्रकारिता का बहुत बड़ा हिस्सा अपने इतर स्वार्थों में लग रहा है। सत्ता की राजनीति और कार्पोरेट जगत की रीति-नीति मीडिया के समूचे व्यवहार पर हावी होती जा रही है। यह स्थिति अपने आप में चिंता करने वाली है कि मालिक के हित संपादन को परिभाषित करने लगे हैं और सरकारें अपने विरोध को देश का विरोध मानने-मनवाने में लगी हैं!

यह बात और चिंताजनक है कि हमारे मीडिया को आज दो हिस्सों में बांटा जा रहा है– एक हिस्सा सरकार समर्थक बन गया है जिसे ‘गोदी मीडिया’ नाम दिया गया है और दूसरे को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहा जा रहा है। स्वतंत्र और दायित्वपूर्ण पत्रकारिता में विश्वास करने वाले को यह बंटवारा अवश्य खलेगा, पर इस हकीकत से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज हमारे मीडिया की स्थिति कुछ ऐसी ही है। प्रारंभ में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से संबंधित जिस घटना का उल्लेख किया गया है, उसे समझना ज़रूरी है। ज्ञातव्य है कि संबंधित पत्रकार विचारधारा की दृष्टि से प्रधानमंत्री की विचारधारा के अनुकूल माने जाते थे और यह भी कारण रहा होगा कि उन्हें प्रधानमंत्री के साथ जाने वाले पत्रकारों में सम्मिलित करने का, पर इसके बावजूद जब उस पत्रकार ने प्रधानमंत्री के विचारों से मेल न खाने वाले अपने सहयोगी को भेजने की पेशकश की तो उसे स्वीकार भी किया गया।

स्वतंत्र पत्रकारिता का तकाज़ा है कि स्थिति ऐसी ही हो, दुर्भाग्य से ऐसा है नहीं। सरकार और बाज़ार पर नियंत्रण रखने वाले, अथवा नियंत्रण की इच्छा रखने वाले, स्वतंत्र मीडिया को स्वीकार नहीं करना चाहते और मीडिया भी उतना निष्पक्ष नहीं दिख रहा जितना उसे होना चाहिए। यह स्थिति बदलनी चाहिए। पत्रकारों का बहिष्कार करना उचित नहीं कहा जा सकता, पर यह दायित्व भी तो पत्रकारों का बनता है कि वे अपनी निष्पक्षता से अपनी महत्ता अर्जित करें। मीडिया को जनतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, बाकी तीन स्तंभों की तरह उसे भी अपनी ईमानदारी प्रमाणित करनी होगी। यह जनतंत्र की अपरिहार्य शर्त है। हर पत्रकार का दायित्व बनता है कि वह अपने कृतित्व से अपनी ईमानदारी प्रमाणित करता रहे। मुश्किल है यह काम, पर बहुत ज़रूरी है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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