बदले हालात के अनुरूप हो आपदा प्रबंधन
जम्मू-कश्मीर, हिमाचल व उत्तराखंड में बादल फटने, अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी ने यह संकेत तो दे ही दिया है कि मौसमी बारिश से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि बादल फटने या अचानक बाढ़ की घटनाएं नहीं होंगी।
आज समूचा हिमालयी क्षेत्र पारिस्थितिकीय संकट से जूझ रहा है। यह संकट अब केवल हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि पूरे हिमालयी क्षेत्र को अपनी चपेट में ले चुका है। दरअसल, यह समस्या सिर्फ पर्यावरणीय असंतुलन तक सीमित नहीं है, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी गहरी और जटिल परिस्थितिजन्य चुनौतियां भी इसके मूल में हैं। जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित निर्माण, वनों की कटाई, खनन और जनसंख्या दबाव जैसे कारणों ने हिमालय की नाज़ुक पारिस्थितिकी को गंभीर खतरे में डाल दिया है।
देश की सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि समूचा हिमालयी क्षेत्र एक बेहद गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है। यह टिप्पणी हिमाचल प्रदेश में आपदाओं से संबंधित मामले की सुनवाई के दौरान स्वत: संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने की। सुनवाई के दौरान, न्यायालय की सहायता कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता के. परमेश्वर ने बताया कि राज्य सरकार की रिपोर्ट में पेड़ों की संख्या, ग्लेशियरों और खनन जैसे मुद्दों का उल्लेख तो किया गया है, लेकिन उनमें कोई ठोस या नई जानकारी नहीं दी गई है। उन्होंने कहा कि रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और इनकी क्षरण की गतिविधियां तेज हो रही हैं, लेकिन इसका विस्तृत विश्लेषण रिपोर्ट में शामिल नहीं है। केवल यह आश्वासन दिया गया है कि एक समिति इन विषयों की समीक्षा करेगी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2018 से 2025 के बीच राज्य में बादल फटने से जन-धन की व्यापक क्षति हुई है।
एक अन्य याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने कहा है कि हमने उत्तराखंड, हिमाचल और पंजाब में अभूतपूर्व बाढ़ और भूस्खलन देखा है। मीडिया में आये वीडियो का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि बड़ी संख्या में हमने लकड़ी के गट्ठे पानी में बहते हुए देखे हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि पहाड़ों पर बड़ी संख्या में पेड़ों की अवैध कटाई हुई है। हमने पंजाब की तस्वीरें भी देखी हैं। पूरे खेत और फसलें जलमग्न हैं। यह गंभीर मामला है।
याचिका में हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में बाढ़, बादल फटने और भूस्खलन का मुद्दा उठाते हुए भविष्य के लिए कार्य योजना बनाने की मांग की गई। इसके लिए एसआईटी गठित की जाये जो पर्यावरण कानून एवं उसके दिशा-निर्देशों और सड़क निर्माण के मानकों के उल्लंघन की जांच करे, जिससे इन राज्यों में 2023-2024 और 2025 में ये आपदायें आईं। हिमालयी इलाका 13 राज्यों सहित केन्द्र शासित प्रदेशों में फैला हुआ है। मानसून के दौरान इनको अधिकाधिक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। ये अपनी जटिल बनावट, नाजुक हालात और लगातार बदलती जलवायु परिस्थितियों की वजह से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं की वजह से आने वाली बाढ़ के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। ये आपदायें आबादी क्षेत्र, बुनियादी ढांचों और जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। बीते दिनों देहरादून में सहस्र धारा जैसे मैदानी इलाकों तक को इसका प्रकोप झेलना पड़ा। जबकि अभी तक पहाड़ी इलाकों में ही बादल फटने और भूस्खलन जैसी घटनायें घटती रही हैं।
नि:संदेह, मौसम में आ रहा बदलाव मानवता के समक्ष अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है। आईसीजे तो काफी पहले इसकी चेतावनी दे चुका है। वहीं मानसून की अनिश्चितता ने देश में बारिश की तीव्रता को काफी हद तक बढ़ा दिया है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल व उत्तराखंड में बादल फटने, अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी ने यह संकेत तो दे ही दिया है कि मौसमी बारिश से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि बादल फटने या अचानक बाढ़ की घटनाएं नहीं होंगी। फिर अस्थिर ग्लेशियर और ग्लेशियर झीलों की बढ़ती तादाद से बाढ़ की विकरालता का खतरा दिनोंदिन लगातार बढ़ता जा रहा है। इसमे दो राय नहीं कि यह झीलें भूस्खलन, भूकंप, भारी वर्षा या हिमस्खलन के कारण अचानक विनाशकारी बाढ़ के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं।
केन्द्र और राज्य सरकारों के पास समर्पित आपदा प्रबंधन प्राधिकरण होने के बावजूद इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम करने की कोई योजना नजर नहीं आती है। जाहिर है ऐसे हालात में इस अति संवेदनशील इलाके में ऐसे तंत्र विकसित किये जाने की जरूरत है जो एक साथ अतिवृष्टि, भूस्खलन, ग्लेशियरों के पिघलने, ग्लेशियर झीलों के टूटने, पर्माफ्रास्ट से होने वाले नुकसान पर अंकुश लगा सके।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।