वैश्विक संबंधों में बदलावों के कूटनीतिक सबक
बीते सप्ताह वैश्विक घटनाओं में तेजी से परिवर्तन आये। इनमें इस्राइल- ईरान संघर्ष तेज होने के अलावा कई अप्रत्याशित मोड़ थे। ट्रंप का जी-7 की बैठक छोड़ वापस लौटना व व्हाइट हाउस में पाकिस्तान के दो शीर्ष जनरलों को दिखाया गया लाड़। दरअसल, ईरान के साथ टकराव बढ़ने की स्थिति में अमेरिका पाकिस्तान को अग्रिम मोर्चे के संभावित मित्र राष्ट्र के रूप में देख रहा है। इन बदलावों में भारत के लिए कूटनीतिक सबक निहित हैं।
विदेश नीति के बारे में यह कमाल है कि चंडीगढ़ के नित बदलते मौसम से भी अधिक तेजी से बदलती है और आपको पता नहीं होता कि आने वाले तूफान से कैसे निबटा जाए, जब तक कि वह ऐन आपके सिर के ऊपर न आ जाए। पिछले सप्ताह कनानास्किस में कुछ ऐसा ही हुआ। जहां पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी-7 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए दिल्ली से साइप्रस होते हुए 11,056 किलोमीटर की यात्रा करके पहुंचे थे, दुनिया के कुछ सबसे शक्तिशाली लोग वहां एकत्र थे - सिवाय डोनाल्ड ट्रम्प के, जो जल्दी चले गए क्योंकि इस्राइल ने ईरान पर बमबारी कर दी थी और जैसा कि बाद में पता चला- पाकिस्तान के फील्ड मार्शल असीम मुनीर दोपहर के भोजन पर व्हाइट हाउस आने वाले थे।
यहां, इस सप्ताह वैश्विक मिज़ाज में आए परिवर्तनों से तीन सीखें मिलती हैं : सबसे पहले, महाभारत के अर्जुन की तरह, अपनी नज़र मछली की आंख पर बनाए रखें। साल 2019 में जोर-शोर से लगाए गए नारे, ‘अबकी बार, ट्रम्प सरकार’ वाले दिनों से लेकर ट्रम्प का मोदी को वाशिंगटन डीसी आने का बुलावा और मोदी द्वारा इसे ठुकराने वाली घड़ी तक, प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह एक लंबी और संजीदा यात्रा रही। राजनीति का मुख्य सबक यह है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है न ही दुश्मन, सिर्फ हित स्थाई होते हैं।
घरेलू राजनीतिक मोर्चे पर प्रधानमंत्री इस खेल में माहिर हैं। वे विरोधाभासों का प्रबंधन बहुत खूबसूरती से कर लेते हैं, मसलन एक ओर दलित नेता बीआर अंबेडकर के लिए अपनी घोषित प्रशंसा और दूसरी ओर जाति जनगणना को लेकर उनकी पार्टी की बीते समय में असहजता - तथापि, कांग्रेस द्वारा इस मुद्दे के पीछे हाथ धोकर पड़ जाने के बाद, इस किस्म की जातिगणना करवाने की घोषणा कर देना।
हो सकता है कि भाजपा इसका श्रेय छीन ले, खासकर तब जब कांग्रेस अंदरूनी तौर पर कमोबेश बिखरी पड़ी है। अपने पाले में, प्रधानमंत्री ने इस मामले में मतभेदों को जिस बढ़िया ढंग से संभाला है, विदेश मामलों के मोर्चे पर भी उन्हें अवश्य ऐसा ही कर दिखाना चाहिए।
दूसरा,जिस बदलाव की बहुत जरूरत है वह है यथार्थवादी होने की काबिलियत। व्हाइट हाउस में पाकिस्तान के दो शीर्ष जनरलों - सेना प्रमुख असीम मुनीर और आईएसआई मुखिया जनरल असीम मलिक - को ट्रंप द्वारा दिखाया गया लाड़-प्यार इस बात का सबूत है कि ईरान के साथ टकराव बढ़ने की स्थिति में अमेरिका पाकिस्तान को अग्रिम मोर्चे के संभावित मित्र राष्ट्र के रूप में देख रहा है।
अमेरिका सत्ता की प्रकृति को अच्छी तरह समझता है। पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व की अनदेखी करते हुए सीधे उसके सैन्य प्रतिष्ठान से राब्ता बनाकर ट्रंप यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उनके पास औपचारिक रूट जैसे तामझाम लिए समय नहीं है। वह जानते हैं कि जो वो चाहते हैं, अगर कोई इसे पूरा सकता है, तो वह है रावलपिंडी स्थित सैन्य प्रतिष्ठान।
तो क्या इसका यह मतलब है कि अमेरिका भारत की उस स्थिति पर और ज्यादा यकीन नहीं करना चाहता कि सीमा पार आतंकवाद का प्रायोजक पाकिस्तान है? या फिर अब यह नहीं मान रहा कि पहलगाम कांड पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के आकाओं द्वारा करवाया गया था? इसका उत्तर हां और नहीं, दोनों है। निश्चित रूप से अमेरिका भारत के इस विश्लेषण से सहमत होगा कि भारत में सीमा पार से आतंकवाद का प्रायोजक पाकिस्तान है। लेकिन दुर्भाग्यवश, लगता है इस समय उसे पाक की ज़रूरत भारतीयों को पहुंचने वाले उस दर्द से ज़्यादा महत्वपूर्ण लग रही है, जिनका मानना था कि ट्रंप-मोदी सदा पक्के दोस्त रहेंगे।
यहां मुद्दा यह है कि ट्रंप को लगता है कि वे असीम मुनीर और मोदी, दोनों के, बढ़िया दोस्त हो सकते हैं - वास्तव में, न केवल ट्रंप बल्कि तमाम बड़ी शक्तियों के पास एक ही समय में ऐसे देशों और नेताओं से बरतने की क्षमता होती है। बड़ी ताकतों के व्यावहारिक तौर-तरीकों का यह एक ज़रूरी अवयव है।
यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय शायद इस बात से हैरान है कि 10 मई को भारत-पाकिस्तान युद्ध विराम पर तथाकथित अमेरिकी ‘मध्यस्थता’ को लेकर भारत के अंदर इतना बवाल क्यों मचा हुआ है, खासकर तब जब सभी जानते हैं कि अमेरिकी राजनयिक लड़ाई बंद करवाने के लिए भारतीय और पाकिस्तानी दोनों से अलग-अलग बात कर रहे थे।
असल में हुआ यह है : 10 मई को भारतीय वायुसेना द्वारा 11 पाकिस्तानी हवाई अड्डों पर बमबारी के बाद जब अमेरिकियों ने दिल्ली में अपने समकक्षों को फोन करके पाकिस्तान की तबाही और ज्यादा बंद करने को कहा, तो उनसे कहा गया कि वे पाकिस्तानी पक्ष को बता दें कि वे खुद भारतीयों से संपर्क करके इसके लिए अनुरोध करें। उस दिन , बाद में पाकिस्तानी डीजीएमओ ने ठीक यही किया।
बीते सप्ताह वैश्विक मिजाज़ में आया तीसरा बदलाव रहा , ईरान पर इस्राइली बमबारी के खिलाफ ब्यानबाजी का जोर पकड़ना। इस्राइल को दिये ट्रंप के समर्थन पर भी किंतु-परंतु होता रहा। रूस और चीन पहले ही इस्राइल के खिलाफ सामने आ चुके हैं। अरब के लोगों में गहरी चिंता पसरी रही। लगता रहा कि मध्य पूर्व में टकराव रोकने को दुनिया एकजुट हो रही है।
इस स्थिति में, संयुक्त राष्ट्र और चीन के नेतृत्व वाले शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) में इस्राइल के विरुद्ध रखे गए प्रस्तावों पर भारत के अनुपस्थित रहने पर चिंताजनक सवाल बने हुए हैं। इसका उत्तर, निश्चित रूप से, प्रधानमंत्री मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू के बीच व्यक्तिगत प्रगाढ़ संबंध हैं। इस्राइली प्रधानमंत्री ने मोदी को फोन किया और निस्संदेह उनका समर्थन मांगा होगा।
बदलते वैश्विक परिदृश्य में संभव है कि भारत वह फिर से सभी शक्तियों के साथ अपने संबंधों का विस्तार करे, चारों तरफ की, और एक वक्त जिस बहुपक्षीय-संबंध नीति को कभी सावधानीपूर्वक तैयार किया गया था और दशकों तक अमल किया, पुन: वापस लौट आए।
निश्चित रूप से, उस विचार को बढ़ावा देने के पीछे सोच यह होती है कि अनेक शक्तियों के समूहों के बीच बिना फायदे के रहने की बजाय, क्यों न एक बड़ी ताकत - मसलन अमेरिका - के साथ जुड़कर, उसके जोर का लाभ लिया जाए। लेकिन,इसमें कोई शक नहीं, गठबंधनों के साथ समस्या भी होती है, किसी एक खेमे का अनुयायी बनकर रह जाने का खतरा। दूसरी ओर, जैसा कि रवींद्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था : ‘एकला चलो’, इसपर अमल करें, परंतु 21वीं सदी में इस मंत्र का कोई अर्थ नहीं रहा। भारत का आदर्श हो - मित्र बनाना व लोगों को प्रभावित करना- जैसा कि मैरी पॉपिंस ने एक बार कहा थाः ‘हवा का रुख अपने पक्ष में करने की कोशिश करना और बदल देना’।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।