हिमालयी पारिस्थितिकी के अनुकूल बनें विकास योजनाएं
धराली क्षेत्र उत्तरकाशी के पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र में आता है। बीते माह यहां बादल फटने से अचानक आई बाढ़ ने जान-माल की बड़ी तबाही मचाई। यमुनोत्री मार्ग पर भी बादल फटा। इस क्षेत्र में दो दशक से भूस्खलन व बाढ़ें बार-बार तबाही लायींं। यहां सड़क निर्माण, जलाशय और सुरंग निर्माण तथा औद्योगीकरण कार्यों में पर्यावरण हितैषी तकनीकें अपनाना जरूरी है।
बीते पांच अगस्त को हरसिल और गंगोत्री के बीच खीरगंगा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में बादल फटने से अचानक आई तेज बाढ़ और भारी मलबे ने धराली में तबाही मचाई। इस आपदा ने दर्जनों मकान, होटल और दुकानें नष्ट कर दीं, कई लोग मृत और अनगिनत लोग लापता हो गए। हरसिल में भी बाढ़ के कारण ग्यारह जवान लापता हैं। सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और आईटीबीपी द्वारा बचाव कार्य जारी हैं। शीतकालीन पर्यटन से जुड़े इस क्षेत्र का मार्ग बाधित हो गया है। पारंपरिक नदी मार्गों में पत्थर, मिट्टी और मलबे के अवरोध से बाढ़ का प्रवाह दिशा बदल गया, जिससे त्रासदी और भी गंभीर हुई।
उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच स्थित धराली क्षेत्र उत्तरकाशी के पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र में आता है। हाल ही में यमुनोत्री मार्ग पर स्याना चट्टी में बादल फटने से गंभीर हादसा भी हुआ। ऐसे नाजुक और सामरिक क्षेत्रों में खनन, सड़क निर्माण, जलाशय और सुरंग निर्माण तथा औद्योगिकीकरण के कार्यों में सरकारों और जनता को आत्म-नियंत्रण बरतना चाहिए। पर्यावरण हितैषी तकनीकें अपनानी जरूरी हैं। उत्तरकाशी जिले में लगातार विभिन्न आपदाओं का सामना करना पड़ता रहा है जैसे सिलक्यारा सुरंग दुर्घटना व भयावह उत्तरकाशी भूकंप। मनेरी भाली परियोजना के पास झीलें बनती रहीं और भटवाड़ी के धंसने की घटनाएं भी नई नहीं। भटवाड़ी ब्लॉक में ही धराली आता है।
गोमुख से लेकर उत्तरकाशी मुख्यालय और चिन्याली सौड़ तक का क्षेत्र बीते दो दशकों से लगातार आपदाओं से ग्रस्त है। यहां गंभीर भूस्खलन, बाढ़ें और तबाही बार-बार होती रही हैं। खासकर उत्तरकाशी में वरुणावर्त पहाड़ अपने भूस्खलनों से 2003 से लोगों को भयभीत कर रहा है। क्षेत्र के पहाड़ 1990 के तीव्र भूकंप से पहले से ही कमजोर हैं, जबकि 4 -4.5 तीव्रता के भूकंप नियमित आते रहते हैं। इस दौरान उत्तरकाशी और आसपास के पुल टूटते रहे हैं, जिससे कई गांव कई दिन तक अलग-थलग पड़ जाते हैं।
वर्ष 2010 से इस पूरे क्षेत्र में लगातार बादल फटने और फ्लैश फ्लड की घटनाएं हो रही हैं। चट्टानें गिरने से जान-माल का भारी नुकसान हो रहा है, गांव ध्वस्त हो रहे हैं और उन्हें पुनः बसाने की आवश्यकता सामान्य सी बात हो गई है। गंगोत्री और गोमुख का संकट व्यापक रूप से ज्ञात है, जबकि भटवाड़ी और अस्सी गंगा के क्षेत्र भी ऐसे ही संवेदनशील हैं, जहां पैदल चलना भी कठिन हो जाता है। निस्संदेह, यह क्षेत्र पर्यावरणीय दृष्टि से नाजुक है। 2017 में उत्तरकाशी जिला मुख्यालय में पंद्रह गांवों की प्रतिनिधि महिलाएं इसी इकोसेंसिटिव क्षेत्र में काटे जाने के लिए चिन्हित पेड़ बचाने के लिए संकल्पबद्ध हुई थीं। इस क्षेत्र में 1990 में हुए भयावह विनाश के बाद कहा गया था कि अब सारे मकान, भवन आदि भूकंप-रोधी बनाए जाएंगे। सुरंगें नहीं बनाई जाएंगी। किन्तु आज भी आप सरकारी स्तर पर भूकंप-रोधी निर्माण या नदी तटों के समीप बसावटों को रोकने में गंभीरता शायद ही पाएंगे।
महत्वाकांक्षी चारधाम परियोजना उत्तरकाशी इकोसेंसिटिव क्षेत्र से ही बनती है। प्रधानमंत्री ने साल 2016 में इसकी आधारशिला रखी। बिना पर्यावरण प्रभाव आकलन के इस सड़क पर काम शुरू किया गया था। तब एनजीटी में चुनौती दी गई थी। उच्चतम न्यायालय में भी मामला पहुंचा था । स्मरण रहे कि चारधाम राजमार्ग पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित हाई पॉवर कमेटी के चेयरमैन ने पर्यावरण मंत्रालय के सचिव को 13 अगस्त 2020 को एक पत्र लिखा था कि इस परियोजना में वन्यजीव व वानिकी के नियमों की बेहद गंभीर अवहेलना व उल्लंघन हुआ है। इन कृत्यों ने हिमालयी पारिस्थितिकी को बेतहाशा नुकसान पहुंचाया है। साल 2017-18 में इस परियोजना पर तब बिना वन विभाग की अनुमति के ही काम शुरू हुआ था। अनुमति काम शुरू होने के बाद पिछली तारीख से दी गई थी। इसी प्रकार अलग-अलग खंडों में बिना अनुमति पेड़ों व पहाड़ों का कटान व मलबे का जमावड़ा किया गया।
एक संयुक्त पत्र में कुछ प्रमुख लोगों ने भी अगस्त 2020 में प्रधानमंत्री को लिखा था कि उत्तराखंड में बारहमासी चारधाम मार्ग के निर्माण के दौरान गंगा हिमालयी बेसिन को गंभीर पर्यावरणीय हानि हो रही है। उन्होंने अवैध तरीके से निर्माण के भी संकेत दिए थे। आज की इन दुर्भाग्यपूर्ण आपदाओं को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए। इस यथार्थ को अतिशीघ्र स्वीकार कर लिया जाना चाहिये कि गौमुख से उत्तरकाशी तक इकोसेंसिटिव क्षेत्र के नियमों का पालन करना ही होगा और पर्यावरण सम्मत विकास की दिशा में ही आगे बढ़ना होगा।
भारत सरकार का दिसंबर 2012 का भागीरथी पारिस्थितिकी संवेदनशील अधिसूचना के गजट में भी कहा गया था कि क्षेत्र के विकास के लिए राज्य सरकार दो साल के भीतर जनता से विशेष रूप से महिलाओं के परामर्श से आंचलिक महायोजना बनाएगी, और इसका अनुमोदन पर्यावरण और वन मंत्रालय, केंद्र सरकार से कराएगी। किन्तु 2014 तक जोनल प्लान बनाने के लिए उसने महिलाओं या आमजन को साथ नहीं लिया।
हर बार धराली जैसी आपदाओं के बाद संपादकीयों में में उत्तराखंड के संदर्भ में यह जरूर कहा जाता है कि राज्य में अनियोजित विकास, बेतहाशा पेड़ कटान व जनसंख्या दबावों से ये आपदाएं आ रही हैं, परंतु शायद ही मीडिया सरकारों को इकोलॉजी और इकोनॉमिक्स में संतुलन बनाने के दावों को लेकर चुनौती देता है। जो स्थानीय जन अपने ढंग से सुरक्षित जीवन जीना चाहते हैं, उनको भी पहाड़ों को सपाट करने की होड़ में जोखिम में डाला जा रहा है। पर्यावरण की बात करने वालों को विकास विरोधी कह दिया जाता है। निस्संदेह इकोसेंसिटिव जोनों की आधिकारिक घोषणाओं से राज्य सरकारों के खनन, जलविद्युत परियोजनाएं, राजमार्ग निर्माण आदि के प्रतिबंधों से राजस्व जरूर कम हो जाता है।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरण वैज्ञानिक हैं।