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शाब्दिक ईमानदारी से ही सार्थक होगा लोकतंत्र

विश्वनाथ सचदेव चुनाव प्रचार का पहला चरण समाप्ति पर है। मतदाता तक पहुंचने, उसे लुभाने का हरसंभव प्रयास हो रहा है। चुनाव में ऐसा ही होता है। कभी न पूरे होने वाले वादे और सच्चाई से कोसों दूर के दावे...
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विश्वनाथ सचदेव

चुनाव प्रचार का पहला चरण समाप्ति पर है। मतदाता तक पहुंचने, उसे लुभाने का हरसंभव प्रयास हो रहा है। चुनाव में ऐसा ही होता है। कभी न पूरे होने वाले वादे और सच्चाई से कोसों दूर के दावे इस प्रचार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सत्तारूढ़ दल समेत कोई भी दल प्रचार की इस मुहिम में पीछे नहीं रहना चाहता। सच तो यह है कि एक होड़-सी मची हुई है राजनीतिक दलों में। हर दल अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से उजला बता रहा है। ऐसा नहीं है कि मतदाता राजनेताओं के इस दांव को समझ नहीं रहा। बरसों-बरस का अनुभव है उसके पास इस प्रचार-तंत्र की करतूतों का। राजनीतिक दल भी मतदाता की इस जानकारी से अनभिज्ञ नहीं हैं। इसके बावजूद वे बरगलाने की अपनी कोशिशों से बाज नहीं आते। इसका कारण शायद यही है कि मतदाताओं की एक बड़ी संख्या आखिरी समय पर निर्णय लेती है। वे मुंडेर पर बैठे हैं। आखिरी समय पर बाएं भी उतर सकते हैं, दाएं भी। प्रचार-कार्य में लगे राजनेताओं की नज़र मुख्यतः इन्हीं मतदाताओं पर होती है।

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इसी से जुड़ी एक बात यह भी है कि कभी-कभी मतदाता मिथ्या दावों और झूठे वादों की चपेट में आ भी जाता है। जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का एक मापदंड यह भी है कि कितने मतदाता ऐसे हैं जो प्रचार की इस आंधी में स्वयं को उड़ने से बचाये रख पाते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस देश के मतदाता ने अक्सर अपने विवेक का परिचय दिया है, राजनेताओं के प्रचार का शिकार बनने से इनकार किया है। आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की सरकार का तख्ता जिस तरह से पलटा, या फिर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का ‘इंडिया शाइनिंग’ वाला नारा जिस तरह मतदाता पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया वह इस बात का प्रमाण है कि मतदाता को हमेशा नहीं बरगलाया जा सकता।

चुनाव के समय राजनीतिक दल अपने-अपने घोषणापत्र जारी करते हैं। भाजपा और कांग्रेस, दोनों बड़े दलों के वादों-दावों वाले घोषणापत्र जारी किये जा चुके हैं। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र को ‘न्याय-पत्र’ कहा है और भाजपा ने अपने घोषणा पत्र को ‘संकल्प-पत्र’ कहते हुए ‘मोदी की गारंटियों’ की बात कही है। होना तो यह चाहिए कि इस तरह के घोषणा पत्र आखिरी समय में नहीं, चुनाव से काफी पहले जारी होते, ताकि मतदाता उन पर विचार करके राजनेताओं से हिसाब मांग सके। सत्तारूढ़ दल से पूछ सके कि पिछले घोषणापत्रों की कितनी बातों को पूरा किया गया और सत्ता के आकांक्षी दल से उसके वादों के पूरा होने के आधार के बारे में जवाब-तलब कर सके। पर, दुर्भाग्य से, ऐसा कुछ होता नहीं। घोषणा पत्र जारी ज़रूर होते हैं, पर उपेक्षित पड़े रहते हैं। चुनाव-प्रचार का सारा ज़ोर अपने विरोधी पर आरोप लगाने पर ही होता है। आरोपों के इस शोर में वे बुनियादी बातें कहीं खो-सी जाती हैं, जो मतदाता के निर्णय का आधार होनी चाहिए।

उदाहरण के लिए सत्तारूढ़ दल के घोषणा पत्र में आने वाले 25 सालों के बाद के ‘विकसित भारत’ की बात तो कही गई है, पर गरीबी, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे हमारे आज को प्रभावित करने वाले मुद्दे कुल मिलाकर कहीं गायब ही हैं। प्रधानमंत्री मोदी यह ‘गारंटी’ तो देते हैं कि 2047 का भारत विकासशील नहीं विकसित देश होगा, पर यह नहीं बताते कि आज के युवा की बेरोज़गारी की समस्या कैसे हल होगी। मतदाता महंगाई की मार से कैसे उबरे? भाजपा के घोषणा पत्र में आने वाले पांच साल तक 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त अनाज देने का वादा तो किया गया है, पर यह नहीं बताया गया कि उन कारणों से कैसे निपटा जायेगा जो 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त अनाज मांगने की स्थिति में लाने के लिए उत्तरदायी हैं? देश में कोई भूखा न रहे, यह बात आश्वस्त करने वाली है, पर भुखमरी की यह स्थिति आयी कैसे, इस सवाल का जवाब भी मिलना चाहिए। जवाब उन सवालों का भी पूछा जाना चाहिए जो पिछले घोषणा पत्रों में कही गयी बातों के पूरा न होने से उठते हैं।

जिस तरह के सवाल सत्तारूढ़ दलों से पूछे जाने चाहिए वैसे ही सवाल सत्ता के आकांक्षियों के लिए भी हैं। उन्हें भी यह बताना होगा कि उनके वादे क्यों स्वीकारे जाएं अथवा उनके दावों पर क्यों विश्वास किया जाये। घोषणा पत्र काग़ज के टुकड़े नहीं होते, उनकी पवित्रता की रक्षा होनी चाहिए, और यह उनका दायित्व बनता है जो वादे करते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र के संदर्भ में कहा है कि कांग्रेस के नेताओं में शब्द के प्रति प्रतिबद्धता नहीं है, कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं है। सच तो यह है कि चुनावी घोषणा पत्रों में जो कुछ कहा जाता है और चुनावी सभा में जो कुछ घोषणाएं की जाती हैं, वे कुल मिलाकर शब्दजाल ही बनी रह जाती हैं। हमारे नेता, चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों, नारों के बल पर चुनाव जीतना चाहते हैं। वह भूल जाते हैं कि ‘गरीबी हटाओ’ का नारा अंततः सिर्फ नारा बनकर रह गया था और इसी तरह ‘शाइनिंग इंडिया’ की कथित चमक भी मतदाता को लुभा नहीं पायी थी। मतदाता शब्दों में विश्वास करना चाहता है, नेताओं के शब्दों में भी यह विश्वास झलकना चाहिए। ईमानदार राजनीति तभी आकार ले सकती है।

जहां तक घोषणा पत्रों में विश्वास का सवाल है, अक्सर इन चुनावी घोषणा पत्रों में लोक लुभावनकारी दावों और वादों की भरमार होती है। जो मुद्दे इनमें उठाये जाते हैं अक्सर वे हकीकत बयान नहीं करते। सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के एक हालिया सर्वेक्षण में बेरोजगारी और महंगाई को मुख्य मुद्दा माना गया है, जबकि हमारी राजनीति में आज भी हिंदुत्व मुख्य मुद्दा बताया जा रहा है। सत्तारूढ़ पक्ष के नेता अपनी चुनावी सभाओं में इस बात को लगातार दुहरा रहे हैं कि कांग्रेस के नेताओं ने राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार किया था!

यह बात यहीं खत्म नहीं होती। राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के अवसर पर जारी किये गये घोषणा पत्र उनकी विचारधारा और वचनबद्धता का वचन पत्र होते हैं। यदि किसी घोषणा पत्र में कहा गया था कि किसानों की आय दुगनी की जायेगी, हर साल दो करोड़ नौकरियां दी जायेंगी तो मतदाता को यह पूछना होगा कि इस वादे का क्या हुआ? अथवा काला धन स्विस बैंकों से लौटा क्यों नहीं? जब कोई राजनेता इन दावों और वादों को ‘चुनावी जुमला’ कहकर बच निकलना चाहता है तो मतदाता के मन में यह सवाल उठना ही चाहिए कि शब्द की पवित्रता कहां गयी? यह विडंबना ही है कि ऐसा कहने के बावजूद संबंधित राजनेता से यह क्यों नहीं पूछा जाता कि मतदाता के साथ ऐसा मजाक क्यों?

अपने हालिया इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने शब्दों के सम्मान की बात कही है। सही कहा है उन्होंने। शब्द पवित्र होते हैं, हमारी नीयत को उजागर करते हैं। राजनेता यदि शब्दों का अपमान करते हैं तो उन्हें कठघरे में खड़ा करना होगा। तभी जनतंत्र की सार्थकता प्रमाणित होगी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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