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धनतंत्र के बोझ से कसमसाता लोकतंत्र

विश्वनाथ सचदेव शायद आपने भी देखा हो फेसबुक पर चक्कर लगाते उस संदेश को जिसमें आगाह किया गया है कि 4 जून तक यानी आम-चुनाव के परिणाम आने तक, पचास हजार की नकदी लेकर घूमने से बचें अन्यथा सरकारी एजेंसियों...
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विश्वनाथ सचदेव

शायद आपने भी देखा हो फेसबुक पर चक्कर लगाते उस संदेश को जिसमें आगाह किया गया है कि 4 जून तक यानी आम-चुनाव के परिणाम आने तक, पचास हजार की नकदी लेकर घूमने से बचें अन्यथा सरकारी एजेंसियों द्वारा परेशान किये जाने की आशंका बनी रहेगी। इस चेतावनी का मतलब समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होना चाहिए–हर चुनाव के मौके पर इस आशय के समाचार मिलते रहे हैं कि फलां जगह इतना बेहिसाबी पैसा पकड़ा गया, फलां जगह उम्मीदवार मतदाता को पैसा बांटते देखा गया।

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इस बीच शायद यह समाचार भी आपने देखा-पढ़ा होगा जिसमें देश की वित्तमंत्री को यह कहते हुए बताया गया है कि वे चाहते हुए भी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ सकतीं, क्योंकि उनके पास चुनाव लड़ने लायक पैसा नहीं है!

चुनाव जनतंत्र का उत्सव ही नहीं होता एक तरह से प्राण भी होता है। जनता की सार्थकता का एक पैमाना यह भी है कि मतदाता कितनी स्वतंत्रता और समझदारी से मतदान के द्वारा अपना प्रतिनिधि चुनता है। चुनाव लड़ने के लिए पैसे की आवश्यकता होती है, यह निर्विवाद है। मतदाता तक पहुंचने के लिए, उस तक अपनी बात पहुंचाने के लिए ज़रूरी साधन बिना पैसे के नहीं जुट सकते। सवाल यहां कितने पैसे खर्च करने का है। चुनाव आयोग द्वारा लगाए गये अनुमान के आधार पर यह सीमा तय की गयी है कि लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार क्रमशः 75 लाख और 40 लाख रुपये खर्च कर सकता है। व्यवस्था यह भी की गयी है कि मतदान के बाद एक निश्चित अवधि में उम्मीदवारों द्वारा चुनाव में किये गये खर्च का पूरा ब्योरा देना होता है, और यदि यह खर्च तय सीमा से अधिक पाया जाता है तो चुनाव- परिणाम रद्द घोषित हो सकता है।

तो क्या हमारे यहां 75 अथवा 40 लाख रुपये में चुनाव लड़ा जा सकता है? इस प्रश्न का एक उत्तर तो यह है कि चुनाव खर्च की सीमा सिर्फ उम्मीदवार द्वारा खर्च की गयी राशि के लिए ही निर्धारित है, राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार के लिए कितना भी खर्च करने के लिए स्वतंत्र हैं! इसीलिए सभी राजनीतिक दल अपने ‘स्टार प्रचारकों’ की सूची घोषित करते हैं और उनके द्वारा किया गया खर्च चुनाव-आयोग की जांच के अंतर्गत नहीं आता। यह स्टार प्रचारक चार्टर्ड विमान द्वारा यात्रा करते हैं, लंबे-चौड़े ‘रोड शो’ करते हैं, लाखों समर्थकों वाली रैलियां करते हैं। यह सारा खर्च राजनीतिक दल करते हैं। इसीलिए इन दलों द्वारा की गई ‘उगाही’ को लेकर सवाल उठते हैं। पूछा जाता है कि अक्सर सत्तारूढ़ दलों को अधिक चंदा मिलता है, इस बात की जांच क्यों नहीं होती कि सत्तारूढ़ दल, या बाकी दल भी, इस चंदे के बदले में चंदा देने वालों को अनुचित लाभ तो नहीं देते?

स्टेट बैंक आफ इंडिया द्वारा जारी किए गए ‘चुनावी बॉण्ड’ इसलिए विवाद का विषय बने हैं कि इन बॉण्डों की अधिकतर राशि सत्तारूढ़ दल यानी भाजपा के हिस्से में क्यों आयी है? लगातार घाटे में रहने वाले व्यावसायिक संस्थानों ने भी बढ़-चढ़कर यह चुनावी बॉण्ड क्यों खरीदे हैं और किस राजनीतिक दल के खाते में यह राशि पहुंची है? उच्चतम न्यायालय द्वारा चुनावी बॉण्डों की इस योजना को गैरकानूनी करार दिया जाना भी कुल मिलाकर चुनावी खर्चे से ही जुड़ा है!

पिछले कुछ सालों में राजनेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों में खर्च की जाने वाली राशि को लेकर कई तरह के सुझाव दिये जाते रहे हैं। यह सवाल भी अक्सर उठा है कि चुनावों में होने वाला असीमित खर्च जनतंत्र में सबको समान अवसर की अवधारणा को ही सवालों के घेरे में नहीं ले आता?

ज्ञातव्य है कि आज देश की लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रही है। सरकारी पक्ष भले ही बीस करोड़ से अधिक लोगों को इस रेखा से ऊपर ले आने का दावा कर रहा हो, पर यह हकीकत अपने आप में भयावह है कि आज देश की अस्सी करोड़ जनता को सरकार द्वारा मुफ्त भोजन दिये जाने की ज़रूरत पड़ रही है। स्पष्ट है, अस्सी करोड़ लोग अपना पेट भरने लायक कमाई नहीं कर पा रहे हैं। विडंबना यह भी है कि मुफ्त खाद्यान्न दिये जाने की इस व्यवस्था को सत्तारूढ़ पक्ष अपनी उपलब्धि के रूप में भुना रहा है!

सबको विकास का समान अवसर देने का दावा करता है जनतंत्र। चुनाव लड़ने के लिए भी समान अवसर जैसी कोई बात होनी चाहिए थी, पर विडंबना है कि हमारी व्यवस्था में ऐसी कोई बात नहीं है जो यह आश्वासन देती हो कि दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र होने का दावा करने वाले हमारे देश में हर नागरिक चुनाव लड़ सकता है। यह दुर्भाग्य ही है कि हमारी चुनावी-व्यवस्था पर बाहुबली और धनबली हावी हैं। हमारी संसद के दोनों सदनों में करोड़पतियों का बड़ी संख्या में होना भी यही संकेत देता है कि देश का आम आदमी वोट भले ही दे सकता हो, और उसके वोट की कीमत भले ही उतनी ही हो जितनी ‘खास आदमी’ के वोट की होती है, पर यह आम आदमी चुनाव लड़कर आसानी से संसद में नहीं पहुंच सकता। आज हमारी राज्यसभा में नब्बे प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं, 543 सांसदों वाली हमारी लोकसभा में 475 सांसदों का करोड़पति होना भी क्या यह नहीं बताता कि सांसद या विधायक बनने के लिए उम्मीदवार की जेब भारी होना भी एक ज़रूरी शर्त है! फिर, यह भी ध्यान रखना होगा कि ये करोड़पति वास्तव में करोड़ोंपति हैं!

हकीकत यही है कि संसद और विधानसभाओं में पहुंचने के लिए उम्मीदवार और उनका दल निर्धारित राशि से कहीं अधिक खर्च कर रहा है। और यह खर्च हर चुनाव में बढ़ ही रहा है। पिछले आम-चुनाव में तो एक विजयी उम्मीदवार ने सार्वजनिक घोषणा की थी कि उसने चुनाव में आठ करोड़ रुपये खर्च किए थे? पता नहीं इस घोषणा के बाद चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई की थी अथवा नहीं, पर यह तो प्रमाणित हो ही जाता है कि धन-बल हमारे जनतंत्र पर हावी होता जा रहा है।

था कोई ज़माना जब आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति भी संसद या विधानसभा में पहुंचने का सपना देख सकता था। मुझे याद है दूसरे आम चुनाव में राजस्थान के सिरोही विधानसभा क्षेत्र के लिए सड़क पर बैठकर जूते ठीक करने वाला एक उम्मीदवार चुनाव जीता था। तब उसे चंदा इकट‍्ठा करके इतना पैसा दिया गया था कि वह ढंग से ठीक-ठाक तरीके से राज्य की राजधानी जयपुर पहुंचकर विधायक पद की शपथ ले सके। क्या आज हम ऐसी किसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं?

दो बार देश के प्रधानमंत्री बनने वाले डॉक्टर मनमोहन सिंह भी चुनाव लड़कर कभी संसद में नहीं पहुंच पाये। पता नहीं कितनी सच है यह बात, पर कहते हैं एक बार उन्होंने राजधानी दिल्ली से चुनाव लड़ा था। हार गये थे वे यह चुनाव। उनके कार्यकर्ता बताते हैं कि इस हार का एक कारण यह भी था कि वह अपने कार्यकर्ताओं को सवेरे नाश्ते में दो-चार केले और एक कप चाय ही दिया करते थे– वह इससे ज्यादा खर्च ही नहीं कर पाये! हमारी वर्तमान वित्त मंत्री भी जब यह कहती हैं कि उनके पास चुनाव लड़ने लायक पैसा नहीं है तो इसे हमारे जनतंत्र पर एक शर्मनाक टिप्पणी के रूप में ही स्वीकार जाना चाहिए। बननी चाहिए कोई व्यवस्था ऐसी कि जनतंत्र का हर नागरिक चुनाव लड़ने लायक बन सके। पर कब होगा ऐसा? कब उबरेगा हमारा जनतंत्र पैसे के चंगुल से?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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