विश्वनाथ सचदेव
तिहत्तर साल का हो गया है हमारा जनतंत्र। सात दशक से भी अधिक लंबे इस काल में हम एक ऐसे भारत के निर्माण के प्रति स्वयं को समर्पित करने के लिए संकल्प लेते रहे, जिसमें हर नागरिक को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अवसर मिलेगा, अधिकार होगा। धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग के हर प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार करते हुए हमने एक ऐसे संविधान के प्रति स्वयं को समर्पित किया जो समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता की बुनियाद पर खड़ा था। हमने संसदीय प्रणाली के माध्यम से ‘जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा’ सरकार बनायी। हर पंद्रह अगस्त को हम उत्तरोत्तर विकास की शपथ लेते हैं। नि:संदेह बहुत कुछ पाया है हमने इस दौरान। और यह भी अपने आप में कम महत्वपूर्ण बात नहीं है कि हम अपने देश में जनतंत्र का दीया जलाये रख पाये हैं। सन् 1975 में लागू किए गये आपातकाल के काले अध्याय को छोड़ दें तो शेष सारी अवधि में हमारी स्वतंत्रता और जनतंत्र में हमारी आस्था पर कोई धब्बा नहीं लगा है। यह उपलब्धियां छोटी नहीं हैं, इन पर गर्व कर सकते हैं हम, लेकिन…
हां, यह लेकिन भी छोटा-मोटा नहीं है। इसके आगे जो कुछ है, वह हमारी सारी उपलब्धियों पर एक सवालिया निशान लगाने में सक्षम है। हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान-सभा के अंतिम सत्र में अपने आखिरी भाषण में देश को चेतावनी दी थी कि स्वतंत्रता पा लेना ही पर्याप्त नहीं है, स्वतंत्रता की रक्षा करना अधिक महत्वपूर्ण और अधिक कठिन है। उन्होंने कहा था कि राजनीतिक प्रजातंत्र तो हमने स्थापित कर लिया है, पर जब तक हमारा यह प्रजातंत्र सामाजिक प्रजातंत्र नहीं बन जाता, हमारी समूची उपलब्धियां अधूरी हैं। क्या सामाजिक स्वतंत्रता की दिशा में हम अपेक्षित दूरी पार कर पाए हैं? सही सवाल तो यह होगा कि हम सामाजिक स्वतंत्रता के प्रति जागरूक हैं भी अथवा नहीं? सामाजिक स्वतंत्रता अथवा सामाजिक प्रजातंत्र का सीधा-सादा अर्थ है, उन रूढ़ियों, विचारों, परंपराओं से मुक्ति जो मानवीय विकास की राह में हमारे पैरों में बेड़ियों की तरह लिपटी हैं।
विभिन्नता में एकता को हम अपनी ताकत कहते हैं। भिन्न धर्मों को मानने वाले, भिन्न भाषाएं बोलने वाले, भिन्न रूप-रंग वाले हम सब पहले भारतीय हैं, यह अहसास हमें ताकत देता हैं। पर क्या सचमुच हमें यह अहसास होता है? हां, हम सब जयहिंद हिंद का नारा लगाते हैं, भारत माता की जय का घोष करते हैं, पर क्या हम भारत माता को जानते भी हैं?
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-देश की जनता ही भारत माता है। इस जनता की जय का अर्थ है-हर भारतीय सुखी हो, स्वस्थ हो, सक्षम बने, निरंतर विकास करे। हर नये दिन के साथ हर भारतीय को यह अहसास हो कि वह ‘नया भारत बना रहा है—अच्छा और मज़बूत।’ क्या हम अपने भीतर, अथवा अपने आसपास इस अहसास को पलता-पल्लवित होता पाते हैं? नहीं, दुर्भाग्य की बात यह है कि हम ‘भारत होने’ के इस अहसास को नहीं जी रहे, और शायद इसे जीना भी नहीं चाहते। हमने जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीयता के अपने-अपने भारत बना रखे हैं। उन्हीं में जीते हैं हम।
यह कैसी आज़ादी है, जिसमें इक्कीसवीं सदी के किसी भारतीय को इसलिए घोड़े पर बैठकर अपनी बारात ले जाने की ‘मनाही’ हो कि वह कथित छोटी जाति का है? उत्तर प्रदेश के एक गांव में कोई महिला प्रधान तो बन सकती है, पर उसके हाथ का बना खाना गांव वाले नहीं खाएंगे क्योंकि वह दलित जाति की है। यह सही है कि स्थितियां बदली हैं, पर उतनी नहीं, जितनी बदलनी चाहिए थीं। यही है वह सामाजिक परतंत्रता जिसकी बात डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में कही थी। उन्होंने स्पष्ट कहा था-जब तक सामाजिक आज़ादी का भाव नहीं जागेगा, हमारी आज़ादी अधूरी रहेगी। सारे कानूनों और समाज-सुधार के सारे प्रयासों और दावों के बावजूद जातीयता का यह ज़हर हमारे शरीर से पूरी तरह निकल नहीं पाया है। एक नये समाज की रचना की आवश्यकता का तकाज़ा है कि इस दिशा में ठोस और प्रभावकारी कदम उठाए जायें। यह एक विडंबना ही है कि इस संदर्भ में कहीं कोई ईमानदार पहल होती नहीं दिखाई देती।
पंथ-निरपेक्षता आज भले ही हमारे संविधान के आमुख का हिस्सा हो, पर हकीकत यह है कि धर्म को हमने राजनीति का औजार बना लिया है। कानून और संविधान की दृष्टि में धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का भेदभाव अपराध है, पर धर्म के नाम पर राजनीति खुलेआम हो रही है। राजनीतिक पार्टियां धर्म के आधार पर टिकट बांटती हैं, धर्म के नाम पर वोट मांगे जाते हैं। देश के एक हिस्से में या दूसरे हिस्से में धर्म के नाम पर दंगे होना हमारी राजनीति में एक खतरनाक बीमार सोच की उपस्थिति और उसकी ताकत का ही परिचायक है। भारत जैसे बहुधर्मी देश में धार्मिक कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। जातीयता और सांप्रदायिकता की दोहरी मार से हमारी राष्ट्रीयता का ताना-बाना कमज़ोर हो रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश की बड़ी आबादी ने पिछले सत्तर सालों में चुनावों में लगातार जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की है। लेकिन सच यह भी है कि देश का वह वर्ग भी लगातार मुखर होता रहा है जो जनतांत्रिक भारत को अपने रंग में रंगने के लिए प्रयत्नशील है। यह प्रवृत्ति अंततः विघटन की ओर ले जाने वाली है। इसका मुकाबला जनतंत्र की रक्षा की एक महत्वपूर्ण शर्त है
स्वतंत्रता सिर्फ एक अधिकार नहीं है। इसके साथ दायित्व भी जुड़े हैं। पहला दायित्व इस स्वतंत्रता की रक्षा का है। इस रक्षा का मतलब उन मूल्यों की रक्षा है जो स्वतंत्रता को मूल्यवान बनाते हैं। उसे अर्थ देते हैं। यह काम सतत जागरूकता से ही हो सकता है। जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले हर नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वह जागरूक रहे। सिर्फ अपने जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए ही नहीं, दूसरों के अधिकारों की रक्षा के लिए भी। ऐसा जब होगा तब दूसरा धर्म हमें अपना विरोधी नहीं लगेगा; दूसरे की सोच हमारे लिए एक नया दृष्टिकोण बन जायेगी- संभावनाओं का एक नया आयाम। दूसरे की बात जब हम सुनने के लिए तैयार होंगे तो एक नई दृष्टि मिलने की संभावना बन जायेगी। यही सब जनतंत्र को विशिष्ट बनाता है। सामंजस्य का यही भाव जनतंत्र की सफलता की एक पहचान भी है, और एक शर्त भी।
जिस पूरी आज़ादी की कसम रावी के तट पर आज़ादी की लड़ाई के हमारे सेनानियों ने ली थी, उस आज़ादी का मतलब हर नागरिक को जीने और आगे बढ़ने का समान अवसर देना ही है। असहिष्णुता के लिए उस स्वतंत्र समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता। उस समाज में हर नागरिक सिर्फ भारतीय होगा। भारतीयता की यही पहचान हमारी आज़ादी को मुकम्मल बनाती है। बनायेगी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।