कोरोना की वैक्सीन के लिए चल रहे ट्रायलों से आशाजनक संकेत मिल रहे हैं लेकिन कुछ विशेषज्ञों ने इन ट्रायलों में विविधता की कमी पर चिंता व्यक्त की है। उनका कहना है कि विविधता के अभाव में ट्रायलों से ठोस नतीजे नहीं निकल पाएंगे। इस समय ऑक्सफर्ड और मोडर्ना की वैक्सीन सबसे ज्यादा चर्चा में है। लेकिन इनके ट्रायल सबसे ज्यादा गोरे लोगों पर किए गए हैं जबकि कोरोना वायरस ने अमेरिकी-अफ्रीकी और लैटिनो लोगों को अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावित किया है। रिसर्च से पता चला है कि विविध नस्लों के लोगों पर दवाओं और थिरेपी का असर अलग-अलग ढंग से होता है। इसमें आयु जैसी दूसरी बातें भी महत्वपूर्ण हैं। यह पता लगाना भी आवश्यक है कि अधिक उम्र वाले लोगों पर वैक्सीन का क्या असर होगा। लोगों की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, उनका इम्यून रेस्पांस कमजोर पड़ने लगता है। पिछले महीने ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी ने बताया कि एस्ट्राजेनेका कंपनी के साथ विकसित उसकी वैक्सीन ने ट्रायल में शामिल लोगों में तगड़ा इम्यून रेस्पांस उत्पन्न किया है। यह वैक्सीन चिंपैंजी के वायरस से तैयार की गई है। दूसरी तरफ, अमेरिकी बायोटेक कंपनी मोडर्ना की देखरेख में चल रहे वैक्सीन प्रोजेक्ट से भी उत्साहवर्धक परिणाम मिले हैं। इन दोनों वैक्सीन पर बहुत तेजी से काम चल रहा है लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि इनके ट्रायल ज्यादातर गोरे लोगों पर किए जा रहे हैं।
ऑक्सफोर्ड के ट्रायल में जिन 1000 स्वस्थ वालंटियर्स ने भाग लिया, उनमें 91 प्रतिशत गोरे थे। इनमें करीब पांच प्रतिशत एशियाई थे। अश्वेत लोगों की संख्या एक प्रतिशत से भी कम थी। मोडर्ना के छोटे ट्रायल में 45 वयस्कों ने हिस्सा लिया, जिनमें 40 गोरे थे। इसमें अश्वेत पार्टिसिपंट्स सिर्फ दो थे। ये दोनों वैक्सीन प्रोजेक्ट अब बड़े चरणों में प्रवेश करने वाले हैं। मोडर्ना अपने नवीनतम चरण में 30000 लोगों को सम्मिलित कर रही है जबकि ऑक्सफर्ड अपने तीसरे चरण के ट्रायल भारत में कर रही है। ड्यूक यूनिवर्सिटी की रिसर्चर और सर्जन ओलूवाडामिलोला फायनजू ने कहा कि प्रारंभिक चरणों में विविधता की कमी से कई त्रुटियां रह सकती हैं। यह देखते हुए कि कोविड ने अमेरिका और ब्रिटेन में अश्वेत लोगों को असमान रूप से प्रभावित किया है, ये त्रुटियां महंगी साबित हो सकती हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि इन दोनों देशों में नस्लीय आधार पर बहुत ज्यादा असमानताएं हैं। लोगों में वैक्सीन के गंभीर साइड इफेक्ट्स रोकने के लिए ट्रायल में विविधता आवश्यक है। अश्वेत लोगों में हाइपरटेंशन और डायबिटीज जैसी बीमारियों के मामले अपेक्षाकृत अधिक हैं। हमें यह पता लगाना होगा कि ये बीमारियां वैक्सीन को किस तरह प्रभावित करती हैं। फायनजू ने कहा कि वर्तमान असाधारण परिस्थितियों में सभी चाहते हैं कि वैक्सीन जल्दी से जल्दी बने लेकिन हम इसके लिए शॉर्टकट नहीं ढूंढ सकते क्योंकि इससे कुछ चीजों के छूटने का डर रहेगा। ड्रग कंपनियां ट्रायलों को विविध न करके भारी भूल कर रही हैं।
इस बीच, कोविड-19 के इलाज के लिए रिसर्चरों ने कृत्रिम एंटीबॉडीज विकसित की हैं, जिन्हें इनहेलर के रूप में मरीज को दिया जा सकता है। रिसर्चरों का कहना है कि यह कृत्रिम एंटीबॉडी कोरोना वायरस को मानव कोशिकाओं पर हमला करने से रोकती है। यह रिसर्च अभी प्रयोगशाला के स्तर पर हुई है और इसका कोई क्लिनिकल ट्रायल नहीं हुआ है लेकिन रिसर्चर शुरुआती नतीजों से बहुत उत्साहित हैं। उनका कहना है कि नई थेरैपी काफी दमदार है और जल्द ही इसके क्लिनिकल ट्रायल शुरू किए जाने चाहिए। रिसर्चरों का मकसद इस थेरैपी को सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का है ताकि वे घर पर ही कोविड का उपचार कर सकें। निरोधात्मक उपाय के रूप में भी इस थेरैपी का इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसर्चरों का कहना है कि सांस के साथ ली जाने वाली कृत्रिम एंटीबॉडी कुछ ही महीनों के भीतर सार्वजनिक प्रयोग के लिए जारी की जा सकती है। रिसर्चरों द्वारा विकसित किए गए एंटीबॉडी प्रोटीन का नाम एनएमबी6-ट्राई है। उन्होंने इसका दूसरा नाम एरोनेब्स भी रखा है। यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 वायरस के स्पाइक प्रोटीन को मजबूती के साथ जकड़ लेता है, जिसकी वजह से वायरस की मानव कोशिकाओं को संक्रमित करने की क्षमता अवरुद्ध हो जाती है। रिसर्चरों ने परीक्षणों के दौरान देखा कि एनएमबी6-ट्राई प्रोटीन एक बार वायरस के स्पाइक प्रोटीन को कस कर पकड़ने के बाद उससे अलग नहीं होता। यह एक अच्छी खबर है। ध्यान रहे कि स्पाइक प्रोटीन कोरोना वायरस का मुख्य हथियार है, जिसके जरिए वह मानव कोशिकाओं में दाखिल होता है।
ऊंट और लामा जैसे कुछ स्तनपायी जीवों की एंटीबॉडीज बहुत ही सरल प्रोटीनों से बनी होती है। इन्हें ‘नैनोबॉडीज’ कहा जाता है। वैज्ञानिक पिछले काफी समय से इस बात पर रिसर्च कर रहे हैं कि क्या कोविड के खिलाफ जंग में नैनोबॉडीज का प्रयोग किया जा सकता है। सेन फ्रांसिस्को स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलफोर्निया में फार्मास्यूटिकल केमिस्ट्री के असिस्टेंट प्रोफेसर आशीष मांगलिक अपने प्रयोगों में नैनोबॉडीज का इस्तेमाल कर रहे हैं। रिसर्चरों का कहना है कि नैनो बॉडीज बहुत छोटी होती हैं और वे वायरस के स्पाइक प्रोटीन को आसानी के साथ खोज कर जकड़ लेती हैं। मांगलिक के सहयोगी पीटर वाल्टर ने कहा कि कोविड के उपचार में कृत्रिम एंटीबॉडी के असर को जानने के लिए प्रति दिन एरोनेब्स पार्टिकल्स की एक ही डोज काफी होगी। वाल्टर के अनुसार जिन मरीजों के फेफड़ों में सार्स-कोव-2 है, उन्हें नेबुलाइजर के जरिए एरोनेब्स मिस्ट दी जा सकती है। उन्होंने कहा कि कोविड के गंभीर लक्षणों वाले मरीजों में एरोनेब्स का असर देखने के लिए दिन में एक बार कुछ मिनट तक नेबुलाइजर दिया जा सकता है। चूंकि कोरोना इंफेक्शन सांस की नली से शुरू होता है, अग्रणी स्वास्थ्य कर्मियों को सुरक्षा के तौर पर एरोनेब्स नेसल स्प्रे दिया जा सकता है। यह स्प्रे उन लोगों को भी दिया जा सकता है, जिनके लक्षण नहीं दिखते लेकिन उनके टेस्ट पॉजिटिव आते हैं। वाल्टर ने कहा कि एरोनेब्स का बहुत कम लागत पर औद्योगिक उत्पादन किया जा सकता है और पाउडर के रूप में उसे दुनिया के किसी भी हिस्से में भेजा जा सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।