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अस्वस्थ प्रतियोगिता से दांव पर विश्वसनीयता

टीआरपी जितनी ज़्यादा होगी, चैनल को उतना ही ज़्यादा व्यावसायिक लाभ होगा। अधिकाधिक लाभ कमाने की एक दौड़ चल रही है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में। सारी विश्वसनीयता इसी प्रतियोगिता का शिकार बनती जा रही है। विश्वनाथ सचदेव बहुत पुरानी बात है।...
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टीआरपी जितनी ज़्यादा होगी, चैनल को उतना ही ज़्यादा व्यावसायिक लाभ होगा। अधिकाधिक लाभ कमाने की एक दौड़ चल रही है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में। सारी विश्वसनीयता इसी प्रतियोगिता का शिकार बनती जा रही है।

विश्वनाथ सचदेव

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बहुत पुरानी बात है। सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ता था मैं। किसी शब्द को लेकर एक मित्र से बहस हो गयी। मुद्दा शब्द के हिज्जों का था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैंने ‘ब्रह्मास्त्र’ चलाते हुए कहा था, मैंने अखबार में पढ़ा है, यह शब्द ऐसे ही लिखा जाता है। और बहस समाप्त हो गयी थी। मेरे तर्क को सुनकर मित्र ने हथियार डाल दिये थे। वह जीत मेरी नहीं, अखबार की थी। उस समय हमारे दिमागों में यह बात बिठा दी गयी थी कि अखबार की बात पर विश्वास करना चाहिए। वास्तव में यह सारा मुद्दा अखबार या मीडिया की विश्वसनीयता का था। उस समय के मीडिया ने, यानी अखबारों ने अपने पाठकों का विश्वास अर्जित किया था। अखबार में लिखने वाला यह जानता था कि पाठक उसकी बात पर भरोसा करता है और इसलिए वह यह भी मानता था कि इस भरोसे को बनाये रखना उसके अस्तित्व तथा सार्थकता की शर्त है। अखबार पढ़ने वाला भी इस विश्वास के साथ पढ़ता था कि अखबार में लिखा है, इसलिए यह सही होगा। पारस्परिक भरोसे का यह रिश्ता आज भी खत्म नहीं हुआ है। अखबार पढ़ने वाला या टीवी पर समाचार देखने-सुनने वाला आज भी यह मानना चाहता है कि वह जो पढ़ रहा या देख रहा है, वह सही है। पर दुर्भाग्य से, विश्वास का यह रिश्ता आज कमजोर पड़ गया है। आज मीडिया विश्वसनीयता खोता नजर आता है।

कारण है इस स्थिति के बनने का। अब मीडिया मिशन नहीं रहा, जैसा कि पहले था। व्यापार बन चुका है अधिकांश मीडिया। यह जानकारी भी अब हैरान नहीं करती कि देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थान के मालिक ने खुलेआम इस बात को स्वीकारा है कि वह खबरों में नहीं, आर्थिक प्राथमिकताओं में लगे हैं। ऐसी स्थिति में विश्वसनीयता का बने रहना संभव भी कैसे हो सकता है?

मीडिया की दुनिया में आजकल एक शब्द बहुत तेज़ी से चल रहा है–टीआरपी। इस शब्द का मतलब है टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट। किसी कार्यक्रम या चैनल की लोकप्रियता को मापने के लिए यह एक माप है। टीआरपी जितनी ज़्यादा होगी, चैनल को उतना ही ज़्यादा व्यावसायिक लाभ होगा। अधिकाधिक लाभ कमाने की एक दौड़ चल रही है मीडिया में, मीडिया की सारी विश्वसनीयता इसी प्रतियोगिता का शिकार बनती जा रही है।

यह टीआरपी बढ़ाने का मंत्र है, सबसे पहले, सबसे आगे! हर समाचार चैनल इस कोशिश में लगा रहता है कि वह समाचार सबसे पहले दे, सबसे आगे रहे। इसी आधार पर विज्ञापन मिलते हैं। मीडिया को इस बात की तनिक भी चिंता नहीं लगती कि इस घटिया प्रतियोगिता में दांव पर उसकी सार्थकता लगी है। पर मीडिया को भला इसकी चिंता क्यों हो?

सबसे पहले की इस दौड़ का, और उसके नतीजों का, ताज़ा उदाहरण ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान देखा गया। देश पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर सफलतापूर्वक हमला कर रहा था। लगातार सफल हो रहे थे हम। तभी पाकिस्तान के ताज़ा हालात की खबरें आने लगीं। हमारे टीवी चैनलों में जैसे पाकिस्तान की खबरें देने की होड़ लग गयी। एक के बाद एक दूसरा ‘स्कूप’ सामने आ रहा था– ‘भारतीय सेना पाकिस्तान में घुस गयी’, ‘पाकिस्तानी सेना प्रमुख गिरफ्तार’, ‘पाक-सेना का आत्म-समर्पण’, ‘1971 के बाद कराची सबसे बुरा सपना देख रहा है’, जैसे समाचार लगातार प्रसारित होने लगे। देश में खुशी की लहर दौड़ना स्वाभाविक था। पर यह खुशी खत्म भी जल्दी ही हो गयी। देश ने हैरानी से देखा कि भारतीय सेना के शौर्य और विजय के नाम पर जो कुछ बताया-दिखाया जा रहा था, वह सब सही नहीं था।

अमेरिका के एक प्रसिद्ध अखबार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ ने एक पूरे पृष्ठ में भारतीय सेना के अभियान का ‘सच’ बताया है। निस्संदेह आतंकी ठिकानों पर भारत की सटीक मार के समाचार सही थे, हमारे ड्रोनों के कारनामे भी सही थे, पर वॉशिंगटन पोस्ट के अनुसार कराची, लाहौर जैसे स्थानों पर भारतीय हमलों, पाकी सेनाध्यक्ष की गिरफ्तारी जैसे समाचारों में कोई सच्चाई नहीं थी। कतई ज़रूरी नहीं है कि हम किसी अमेरिकी अखबार के ‘स्कूप’ को सही मानें ही, पर भारत ने ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ की बातों का कोई खंडन नहीं किया है, इसलिए उन्हें सहज ही ग़लत भी नहीं कहा जा सकता।

बहरहाल, सवाल किसी विदेशी अखबार द्वारा प्रसारित बातों के औचित्य का नहीं है। सवाल यह है कि हमारे देश के समाचार चैनलों ने बिना किसी जांच के वह सब क्यों दिखाया जो सही सिद्ध नहीं हो रहा है। बताया गया कि इन समाचारों का मूल भारत के आधिकारिक चैनल प्रसार भारती के एक समाचार में था। संस्थान के किसी ‘सूत्र’ ने आधी रात को टेलीफोन पर किसी भारतीय पत्रकार को पाकिस्तान से संबंधित खबरों की जानकारी दी थी। बात फैलने में देर नहीं लगी। समाचार चैनलों में ‘सबसे पहले’ की होड़ लगी गयी! बाद में कुछ चैनलों ने अपनी हड़बड़ी के लिए खेद भी व्यक्त किया, पर इससे यह तथ्य नहीं बदलता कि टीआरपी के लालच में हमारा मीडिया कुछ भी कर सकता है।

हमारे विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने यह अवश्य कहा है कि ‘वाशिंगटन पोस्ट’ भारत के खिलाफ दुश्मनी भरा रवैया रखता है पर इससे भी इस तथ्य की गंभीरता कम नहीं हो जाती कि हमारे मीडिया को अपनी विश्वसनीयता की कोई चिंता नहीं है। यही नहीं, हमारे चैनल तो अब यह कह रहे हैं कि भले ही दिखाये गये समाचार सही नहीं हों, पर वे भारत-विरोधी समाचार नहीं थे। एक बड़े चैनल के एक बड़े एंकर ने तो स्पष्ट कहा है, ‘हर चैनल ने कम से कम एक ग़लती की, लेकिन हमारी एक भी ग़लती इस देश के खिलाफ नहीं थी।’ पर सवाल देश के खिलाफ या पक्ष में होने का नहीं है, सवाल मीडिया की विश्वसनीयता का है और इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि ‘पाकिस्तान की हार’ के नाम पर हमारे मीडिया में जो आधारहीन बातें दिखाई गयीं, उससे हमारे मीडिया की छवि और धूमिल ही हुई है।

पिछले एक दशक में टीवी समाचारों में स्वतंत्रता की कमी के आरोप अक्सर लगते रहे हैं। यह भी कहा जाता रहा है कि समाचार चैनल सरकारी बातों को दोहराते रहते हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग अब ‘राजाश्रय’ के नाम से जाना जाता है। आरोप यह है कि यह वर्ग आधारहीन तथ्यों और ‘विश्लेषणों’ द्वारा सत्ता के पक्ष में वातावरण बनाने का काम कर रहा है। हो सकता है कि इसके बदले में उसे सरकारी विज्ञापनों का उपहार मिलता हो।

वाशिंगटन पोस्ट में दावा किया गया है कि चैनलों और एंकरों के हवाले से उसने अपनी रिपोर्ट में जो कुछ लिखा है उसके बारे में स्पष्टीकरण के लिए संबंधित पक्षों से आग्रह किया गया था, पर किसी ने उत्तर नहीं दिया। बेहतर होता है यदि संबंधित व्यक्ति और संस्थान अपना पक्ष रखते, पर उनकी चुप्पी रहस्य भरी है। सवाल किसी पक्ष के सामने आने या न आने का नहीं है, सवाल यह है कि हमारे मीडिया को अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता की चिंता क्यों नहीं है? सवाल सिर्फ ग़लत खबरों को चलाने का भी नहीं है, सवाल मीडिया की विश्वसनीयता के लगातार कमज़ोर होते जाने का है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार की सुरक्षा का तकाज़ा है कि मीडिया से जुड़े व्यक्ति और वर्ग इस दिशा में जागरूक हों। सोशल मीडिया में अक्सर इस संदर्भ में सुगबुगाहट होती रहती है, आवश्यकता इस सुगबुगाहट को ताकतवर बनाने की है। टीआरपी की चिंता में मीडिया अपने होने का औचित्य खोता जा रहा है। यह गंभीर चिंता का विषय है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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