वैश्विक उथल-पुथल के दौर में देश तलाशे अपनी भूमिका
उथल-पुथल भरे मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में देश के लिए अपनी जगह व भूमिका की पहचान ज़रूरी है। खासकर संरक्षणवादी व वैश्वीकरण- विरोधी नीतियों के दौर में। बेशक 2008 के असैन्य परमाणु समझौते के बाद भारत-अमेरिका संबंधों में बेहतरी शुरू हुई थी। लेकिन गत मई में ऑपरेशन सिंदूर के बाद तल्खी बढ़ी जो अब भारी टैरिफ दरें, एच-1बी वीज़ा व चाबहार प्रतिबंध तक जारी है।
हालिया घटनाएं मुझे फिर से एक बार इस पर विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं कि वैश्विक परिदृश्य में खेले जा रहे सत्ता के खेल में भारत की जगह क्या हो और इसमें ‘साउथ ब्लॉक’ को क्या भूमिका निभाने की जरूरत है। पिछले कुछ वक्त से, राष्ट्रपति ट्रंप और उनका व्यक्तित्व जोकि अमेरिकी रणनीति को संचालित कर रहा है, इसको लेकर काफ़ी चर्चा जारी है। हालांकि यह एक कारक मात्र है, यह मान लेना कि इसका प्रभाव सब चीज़ों पर है, देश मामलों का अति सरलीकरण होगा; खासकर तब जबकि अमेरिका एक महाशक्ति है।
शायद हमारी अपनी राजनीति, जो लंबे समय से संस्थागत होने की बजाय व्यक्ति पर टिकी है, हमें दूसरों को भी अपने इसी नज़रिए से देखने के लिए मजबूर करती है...मेरी राय में यह एक गंभीर चूक है। सर्वप्रथम, अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों को ही लीजिए। हालांकि पाकिस्तान कभी-कभी अमेरिका के लिए एक उद्दंड बालक जैसी समस्या रहा है (विशेषकर अल-क़ायदा और ओसामा बिन लादेन के दौर में), फिर भी यह मुल्क दक्षिण एवं मध्य एशिया के लिए अमेरिकी नीति में कुल मिलाकर एक अहम औजार रहा है। सोवियत संघ के विरुद्ध अफ़ग़ान मुजाहिदीन विद्रोह के दौरान पाकिस्तान ने काफी अहम भूमिका निभाई थी। इसके बाद, अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण और तालिबान के साथ युद्ध के दौरान, पाकिस्तान ने रसद सहायता और ख़ुफ़िया जानकारी, दोनों प्रदान की, यानि इस तरह उसने तालिबान और हक्कानी नेटवर्क, दोनों के साथ, दोहरा खेल खेला, हालांकि उसे इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी।
'पैटन' टैंकों से शुरू करते हुए और आगे चलकर एफ-16 लड़ाकू विमान देना, पाकिस्तानी सेना को भी ज्यादातर अमेरिका ने ही सुसज्जित और प्रशिक्षित किया। बेशक,हालिया वर्षों में, उसे चीन के रूप में एक मज़बूत समर्थक भी मिल गया। मैं इस पुराने संबंध का ज़िक्र इस क्षेत्र में अमेरिका के रहे (और आज भी) रणनीतिक हितों पर प्रकाश डालने के लिए कर रहा हूं। अब एक बार फिर अमेरिकी राष्ट्रपति ने अफ़ग़ानिस्तान से बगराम एयरबेस अमेरिका को सौंपने की मांग की है, जो इसका संकेत है कि जल्द ही कोई कड़ी कार्रवाई होने वाली है।
सोवियत संघ के साथ हमारे संबंध और विशेष रूप से तीनों सेनाओं में रूस निर्मित हथियार और गोला-बारूद की आमद के चलते (हमारे अधिकांश पुराने उपकरण रूसी हैं) 20वीं सदी के अधिकांश समय में भारत-अमेरिका संबंधों को ठंडा या ज्यादा-से-ज्यादा गुनगुना ही कहा जा सकता है। सोवियत संघ विघटन और भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने से अमेरिका के साथ एक नई शुरुआत के लिए अनुकूल माहौल बना। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में हुए भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते ने भारत पर दशकों से लगे परमाणु प्रौद्योगिकी प्रतिबंध को खत्म करवाया और साथ ही एक तरह से परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र होने की मान्यता भी मिली। इससे भारत-अमेरिका संबंधों को काफी सकारात्मक गति मिली।
राष्ट्रपति ट्रम्प के पहले कार्यकाल में, भारत-अमेरिका संबंध सुधरते दिख रहे था। हालांकि, इस वर्ष संकेत तब अशुभ हो गए, जब मई में हुई सैन्य झड़प के बाद - जो पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों द्वारा किए गए पहलगाम नरसंहार के बाद हुई थी – ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम पर सहमति बनवाने का दावा किया। भारत ने इसका खंडन किया व स्पष्ट किया कि युद्धविराम दोनों देशों के डीजीएमओ के बीच वार्ता से बना। इसके बाद, ट्रम्प ने बारंबार युद्धविराम करवाने का दावा किया और कहा कि इस तरह उन्होंने एक संभावित परमाणु संघर्ष को टलवाया। स्थिति और मुश्किल बन गयी जब ट्रंप ने पाक सेना प्रमुख फील्ड मार्शल असीम मुनीर को निजी लंच दिया (अमेरिका ने बाद में भी उनकी मेज़बानी की)। किसी देश में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री होते हुए उसके सेना प्रमुख को न्योता देना अपनी ही कहानी बयां करता है। न्योता तो हमारे प्रधानमंत्री को भी दिया गया था, जब वे कनाडा में थे, लेकिन उन्होंने पहले से तय कार्यक्रमों में व्यस्तता के चलते मना कर दिया (मौजूदा व्हाइट हाउस वासियों ने इसे हल्के में नहीं लिया होगा)।
पिछले साल अपनी चुनावी रैलियों में, ट्रंप ने भारत को 'टैरिफ किंग' ठहराया था और भारत तथा अन्य देशों पर, जिनके बारे में उनका दावा था कि अमेरिका के साथ व्यापार संतुलन और व्यवहार में भारी अंतर हैं, उन पर तगड़ा टैरिफ लगाने की धमकी दी थी। अंततः भारी टैरिफ लगा भी दिया; पहले 25 फीसदी , जो अपमानजनक है क्योंकि चीन को छोड़ हमारे पड़ोसी एशियाई देशों पर टैरिफ बहुत कम है और फिर रूसी तेल खरीदने पर अतिरिक्त 25 फीसदी (कुल 50 प्रतिशत तक निषेधात्मक) लगा दिया।
किसी कारण, हमारे विदेश और वाणिज्य मंत्रालय के अलावा मीडिया का बड़ा वर्ग इस मंडराते खतरे को नकारता दिखाई दिया, इस उम्मीद में कि हमारे नेताओं के व्यक्तिगत संबंधों से स्थिति संभाल ली जाएगी। फिलहाल ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब हमारी अर्थव्यवस्था के विरुद्ध और अधिक दंडात्मक उपायों की धमकी न दी जाती हो। एच-1बी वीज़ा प्रकरण (1,00,000 डॉलर शुल्क) हमारे ऊपर नवीनतम प्रहार है। इसका प्रभाव हमारी आईटी फर्मों और पेशेवरों पर दीर्घ काल में बहुत बड़ा रहेगा। हमें इन उच्च प्रशिक्षित पेशेवरों को किसी अन्य देश के हित में फिर से खो देने के बजाय, इनकी संभावित वतन वापसी हेतु अनुकूल माहौल बनाने का प्रयास करना चाहिए।
तो, हमें क्यों अलग-थलग करने के साथ निशाना बनाया जा रहा है? क्या यह मुख्यतः रूसी तेल का मामला है? अगर ऐसा होता, तो यूरोप और कई नाटो देश भी इसके दोषी होते। अगर नहीं, तो क्या हम एक बहुत बड़े खेल में 'मोहरा' बन रहे हैं? शोचनीय है , सऊदी-पाक सैन्य समझौता इतनी जल्दी कैसे संभव है? अमेरिका के आशीर्वाद के बिना यह संभव नहीं।
ईरान में चाबहार बंदरगाह पर प्रतिबंधों में ढील वापस लेना हम पर किया गया अन्य आघात रहा। यह बंदरगाह इस क्षेत्र में हमारे प्रमुख रणनीतिक हितों में से एक था और इससे हमें मध्य एशियाई बाजारों और अफ़ग़ानिस्तान तक पहुंचने में मदद मिलती। हो सकता है अमेरिका द्वारा ईरान पर हाल में की गई बमबारी और अमेरिका-पाकिस्तान के बीच हो रहे समझौतों ने इस पर असर डाला हो। संभवतः ये कदम इस क्षेत्र में बढ़ रहे चीनी प्रभाव का मुकाबला करने को उठाए जा रहे हों। चीन ईरानी तेल का बड़ा खरीदार है। चीन और अफ़ग़ानिस्तान दुर्लभ धातु अयस्क खनन पर समझौते कर रहे हैं। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव इस क्षेत्र से गुज़रती है - इसमें कई खेल संभव हैं।
मैं अपने निकटतम पड़ोस पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा। नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका, सभी में थोड़े अंतराल में हिंसक सत्ता परिवर्तन हुए। ये सब अचानक हुए विस्फोट प्रतीत होते हैं, पक्का नहीं कि ये सिर्फ अंदरूनी अशांति का परिणाम थे या विदेशी ताकतों की शह से पैदा समस्या। हम मणिपुर समस्या का समाधान नहीं खोज सके और म्यांमार, बांग्लादेश और नेपाल से घिरे उत्तर-पूर्व में समस्याएं गहरा रही हैं। अरसे से लटकता समाधान, जिसमें समस्या की पहचान व निदान का कोई प्रयास नहीं किया गया, लद्दाख अंततः उबल पड़ा है। चीन के साथ सीमा विवादों के मद्देनजर यह घटनाक्रम भारतीय राष्ट्र के हित में नहीं। अपने नागरिकों के खिलाफ घातक हथियारों का इस्तेमाल, यदि करना भी पड़े, तो अंतिम विकल्प हो।
मौजूदा अशांत स्थितियों के मद्देनजर जब पूरे विश्व में तनाव उत्पन्न हो रहा है और राष्ट्र-राज्य संरक्षणवाद व वैश्वीकरण- विरोधी रुख अपना रहे हैं, हमें परिस्थिति जन्य परिदृश्य में अपना स्थान पहचानने की आवश्यकता है, ताकि घटनाएं हम हावी न हो पाएं।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।