विश्वनाथ सचदेव
पता नहीं अब संसद में ‘भ्रष्ट’ या ‘तानाशाही’ जैसे शब्द सुनाई देंगे या नहीं और यह भी नहीं कह सकते कि सांसद यदि इन शब्दों का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो इनकी जगह कौन-से शब्द काम में लेंगे, पर यह तय है कि संसद के वर्तमान सत्र में इन और ऐसे शब्दों को लेकर कुछ बहस ज़रूर होगी। यहां बहस की जगह तू-तू, मैं-मैं का उपयोग बेहतर रहता, पर पता नहीं यह शब्द संसद की स्वीकृत शब्दावली में है भी या नहीं। लोकसभा के कार्यालय द्वारा हाल ही में जारी की गयी असंसदीय शब्दों की नयी सूची में संभवतः पंद्रह सौ से अधिक शब्द हैं, जिन्हें असंसदीय करार दिया गया है। इसका अर्थ तो यही होना चाहिए कि इस सूची में शामिल शब्दों का उपयोग संसद में वर्जित है। लेकिन लोकसभा के अध्यक्ष ने यह जानकारी दी है कि इसका अर्थ यह नहीं है कि ये शब्द वर्जित हैं, अध्यक्ष अपने विवेक से संदर्भ को देखते हुए यह निर्णय देंगे कि शब्द-विशेष को संसद की कार्रवाई में रखा जाये या उसे हटा दिया जाये। सवाल यह उठ रहा है कि यदि मामला अध्यक्ष के विवेक का ही है तो कार्रवाई से हटाये गये शब्दों की सूची जारी करने का क्या अर्थ है, और यदि ये शब्द वर्जित नहीं हैं तो विवाद किस बात का?
कहा यह भी जा रहा है कि इस तरह की सूची जारी करने की परंपरा पुरानी है। सवाल यह भी उठ रहा है कि यदि कोई पुरानी परंपरा अर्थहीन है तो उसे ढोने की आवश्यकता क्या है? ऐसी ही एक और ‘परंपरा’ के नाम पर संसद-परिसर में सांसदों द्वारा किये जाने वाले प्रदर्शन आदि पर प्रतिबंध लगाने संबंधी निर्देश जारी किया जाना है। आये दिन संसद-परिसर में, अधिकतर गांधीजी की प्रतिमा के समक्ष, विपक्ष के सांसदों को प्रदर्शन करते देखा जाता है। पर इन्हें अनुचित बताने संबंधी परिपत्र शायद संसद के हर सत्र के शुरू होने पर जारी किया जाता है। यहां भी मामला एक परिपाटी के चले आने का है।
बहरहाल, असंसदीय शब्दावली को लेकर विवाद उठ ही गया है तो इस बात पर स्थिति स्पष्ट होनी ही चाहिए। असंसदीय व्यवहार का सामान्य अर्थ तो यही है कि जो व्यवहार संसद की मर्यादा के अनुकूल न हो, वह अनुचित है। संसद हमारे लोकतंत्र का मंदिर है, सांसद इस मंदिर की पवित्रता को बनाये रखने के लिए उत्तरदायी हैं। ऐसे में किसी भी प्रकार का असंसदीय व्यवहार स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। पर, आये दिन हम अपनी संसद में, और विधानसभाओं में, सांसदों या विधायकों के अनुचित व्यवहार के उदाहरण देखते रहते हैं। सदन में नारेबाजी, शोर-शराबा करके सदन की कार्रवाई न चलने देने के उदाहरण अक्सर दिख जाते हैं। मज़े की बात यह है कि इसे संसदीय कार्य-प्रणाली की वैध कार्रवाई भी बताया जाता है। और ऐसा भी नहीं है कि यह कार्य सिर्फ विपक्ष ही करता है। शोर-शराबा और नारेबाजी दोनों ओर से होती है।
स्पष्ट है, वैध कार्रवाई की परिभाषा पर मतभेद हैं। अक्सर यह दायित्व पीठासीन अधिकारी का होता है कि वह सदन के सदस्यों को नियंत्रित रखें। सदन की कार्रवाई से कुछ शब्दों को हटा देना भी इसी नियंत्रण का ही हिस्सा माना जाता है। शब्दों को कार्रवाई से हटा देने की इस प्रक्रिया में समय लगता है, अर्थात् सदनों में कथित आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल हो जाता है, और बाद में उन्हें कार्रवाई के रिकार्ड में रखने या न रखने का निर्णय लिया जाता है। लेकिन सदन की सीधी कार्रवाई को टेलीविजन पर दिखाये जाने वाले आज के दौर में बाद में की गयी शब्दों को हटाने की इस कार्रवाई का क्या अर्थ रह जाता है। टीवी पर सदन की कार्रवाई देखने वाला हर दर्शक तो उस कथित असंसदीय शब्द को सुन चुका होता है। तो फिर ऐसे शब्दों की सूची जारी करने का क्या मतलब?
एक मतलब हो सकता है- इससे सांसदों-विधायकों को यह आगाह किया जा सकता है कि अनुचित शब्दों का उपयोग करने से बचें। पर इस सावधानी की अपेक्षा तो माननीय सांसदों से होती ही है!
संसद के हर सत्र के शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री मीडिया के समक्ष आकर दो-चार मिनट का भाषण देते हैं। इस मौके पर उनके कहे का सार यह होता है कि वे एक उपयोगी सत्र की अपेक्षा रखते हैं। सांसदों से उनकी आशा-अपेक्षा यह रहती है कि सदन में सारगर्भित बहस हो, वाद-विवाद भी हो और विपक्ष सरकार की आलोचना भी कर सकता है। ‘वाद-विवाद’ और ‘आलोचना’- ये दो शब्द इस बार भी प्रधानमंत्री ने काम में लिये थे। सहज जिज्ञासा होती है कि आलोचना करते समय विपक्ष किन शब्दों का इस्तेमाल करेगा। ‘जुमलाबाजी’, ‘बाल-बुद्धि’, ‘मगरमच्छ के आंसू’, ‘चमचागीरी’, ‘तानाशाह’, ‘अक्षम’, ‘दोहरा चरित्र’, ‘भ्रष्ट’, ‘नाटक’, ‘शकुनि’, ‘बहरी सरकार’… जैसे अनेक शब्दों को असंसदीय बता दिया गया है। यदि ये और ऐसे शब्द असंसदीय हैं, उपयोग में लाने लायक नहीं हैं, तो इन्हें बोलने पर प्रतिबंध लगना ही चाहिए। पर यदि प्रतिबंध पीठासीन अधिकारी के विवेक पर निर्भर करता है तो इस तरह की सूची जारी करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यदि सदन का कोई सदस्य किसी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहा है तो वह ‘भ्रष्ट’ के अलावा और क्या शब्द काम में ले सकता है? किसी के तानाशाही व्यवहार को और क्या कहा जायेगा?
शब्दों की मर्यादा होनी चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं। सांसदों या विधायकों से यह अपेक्षा करना कतई ग़लत नहीं है कि वे अपनी बात करते समय अनुचित शब्दों का उपयोग नहीं करेंगे। कड़वी बात भी शालीनता से कही जा सकती है, और कही भी शालीनता से जानी चाहिए। पर संसद या विधानसभाओं की कार्रवाई देखते समय अक्सर ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं जो शालीनता की सीमा लांघने वाले होते हैं। उचित तो यही है कि सदस्य अपने कहे पर विवेक का पहरा स्वयं रखें। पीठासीन अधिकारियों द्वारा कार्रवाई से शब्दों का हटाया जाना अच्छा उदाहरण प्रस्तुत नहीं करता। लेकिन यह भी कोई अच्छी बात नहीं है कि शब्दों पर प्रतिबंध लगाकर सदस्यों के जनतांत्रिक अधिकारों और कर्तव्यों पर अंकुश लगे।
विपक्ष के कई मुखर सांसद यह कह चुके हैं कि वे तो इन कथित प्रतिबंधित शब्दों का इस्तेमाल करेंगे, देखते हैं पीठासीन अधिकारी क्या करते हैं। स्वस्थ जनतांत्रिक परंपराओं का तकाज़ा है कि हमारे सांसदों या विधायकों को अपनी बात स्वतंत्रतापूर्वक कहने का अवसर मिलना चाहिए। यही परंपराएं यह भी बताती हैं कि सरकारी पक्ष का दायित्व यह भी है कि वह विपक्ष को डराने के काम न करे। आलोचना करना विपक्ष का अधिकार है, और आलोचना सुनना सरकारी पक्ष का कर्तव्य। आलोचना के अधिकार पर किसी भी प्रकार का अंकुश जनतांत्रिक मूल्यों पर प्रहार ही माना जायेगा। कथित असंसदीय शब्दों के बजाय सदन में अनुचित व्यवहार से बचना ज़रूरी है और यह बात दोनों पक्षों पर लागू होती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।