लोग पीने के पानी के लिए पाताल तक खुदाई कर रहे हैं, लेकिन अक्सर निराशा ही हाथ लगती है। समझने की जरूरत है कि धरती की कोख में जल भंडार तभी भरपूर रहता है, जब आस-पास की नदियां हंसती-खेलती, निर्बाध रूप से बहती रहें।
देहरादून के निकट जाखन नदी, जो सामान्यतः सूखी और सफेद पत्थरों से भरी रहती है, हाल ही में अत्यधिक वर्षा के कारण उफान पर आ गई। पुलों पर पानी चढ़ गया, आवाजाही ठप हो गई और आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ जैसे हालात बन गए। जाखन समेत सौंग और सुसवा जैसी लुप्तप्राय गैर-हिमानी नदियों ने बादल फटने के बाद रौद्र रूप दिखाया। ये घटनाएं जलवायु परिवर्तन और चरम मौसम की ओर इशारा करती हैं। यदि इन नदियों की गाद हटाकर उन्हें पुनर्जीवित किया जाए, तो ये आपदा प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। सफेद पत्थरों की नदी मान कर उपेक्षित ऐसी ही अन्य दस नदियों ने सहस्रधारा में बादल फटने के बाद देहरादून के आसपास अपना रौद्र रूप दिखाया। ये सभी गैर-हिमानी नदियां भले ही छोटी हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के दौर में चरम मौसम के हालात में जल का अतिरेक सहेजने में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं, बशर्ते उनकी कोख में गाद न भरी हो।
गंगा-यमुना जैसी विशाल नदियां पहाड़ों के बजाय मैदानी इलाकों के लिए अधिक लाभकारी हैं और उन पर बने बांध भी मैदानों को ही ज़्यादा फायदा पहुंचाते हैं। जबकि पहाड़ों की जीवनरेखा बनी छोटी, गैर-हिमानी नदियां—जो वर्षा जल और भूमिगत जल से पोषित होती हैं—उपेक्षा की शिकार हैं। ये नदियां न केवल सिंचाई, पेयजल और जलविद्युत उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र और अनेक दुर्लभ प्रजातियों का आश्रय भी हैं।
नेचुरल रिसोर्स डाटा मैनेजमेंट सिस्टम की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश की तमाम बड़ी नदियों की 332 सहायक नदियां सूखकर बरसाती नदियों में तब्दील हो चुकी हैं। कोसी नदी को जोड़ने वाले 36 गाड़-गधेरे सूख गए हैं। वहीं कोसी की सहायक नदियां अपनी अंतिम सांसें गिन रही हैं। उत्तराखंड के लगभग 68 फीसदी भूभाग को गैर-हिमानी नदियों और हजारों सरिताओं (धारे, गाड़-गधेरों) से पानी मिलता है। कोसी, गगास, गोमती, रामगंगा के उद्गम धारापानी धार से निकलने वाली 11 सहायक नदियां धीरे-धीरे सिकुड़ रही हैं। इसी तरह पश्चिमी राम गंगा नदी में 134 छोटे गाड़-गधेरे व नदियां सूख चुकी हैं। हम भूल जाते हैं कि हर नदी की याददाश्त समान ही होती है। उसके जल-वहन और जल-ग्रहण क्षेत्र में कुछ दिन पानी न आने पर समाज उसकी उपेक्षा भले ही करे लेकिन साल-दशकों में ये नदियां अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देती हैं। ऐसे में छोटी नदियों पर ध्यान देना और भी अधिक जरूरी है। आज गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने के लिए प्रयास हो रहे हैं, परंतु छोटी नदियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण अब भी उपेक्षापूर्ण है। वास्तव में, बड़ी नदियां इसलिए अस्तित्व में हैं क्योंकि उनमें अनेक छोटी नदियां आकर मिलती हैं। यदि इन छोटी नदियों में पानी की कमी होगी या वे प्रदूषित होंगी, तो उसका सीधा प्रभाव बड़ी नदियों पर पड़ेगा। इसलिए, बड़ी नदियों को स्वस्थ और स्वच्छ बनाए रखने के लिए छोटी नदियों का संरक्षण और पुनर्जीवन अत्यंत आवश्यक है।
छोटी नदियां अक्सर गांव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं। लोक समाज और प्राचीन मान्यता नदियों और जल को लेकर बहुत अलग थीं, बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो। बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए। अब यदि बड़ी नदी अविरल बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा, यदि तालाब और छोटी नदी में पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की कमी नहीं होगी। आज देश में ऐसी लगभग 12 हज़ार छोटी नदियां हैं, जो उपेक्षा का शिकार हैं। नदियों के इस तरह रूठने और उसके परिणामस्वरूप बाढ़ और सूखे का दर्द साथ-साथ चलने लगा है—यह कहानी अब देश के हर जिले और कस्बे की बन चुकी है।
लोग पीने के पानी के लिए पाताल तक खुदाई कर रहे हैं, लेकिन अक्सर निराशा ही हाथ लगती है। समझने की जरूरत है कि धरती की कोख में जल भंडार तभी भरपूर रहता है, जब आस-पास की नदियां हंसती-खेलती, निर्बाध रूप से बहती रहें। लेकिन अंधाधुंध रेत खनन, ज़मीन पर कब्जा और नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थायी निर्माण—ये सभी छोटी नदियों के सबसे बड़े शत्रु बन चुके हैं। यदि समय रहते इन पर नियंत्रण नहीं किया गया तो जल संकट और भी गहराता जाएगा।
पिछले ढाई दशकों के दौरान वार्षिक वर्षा और वनस्पति आवरण में वृद्धि के बावजूद, प्रमुख गैर-हिमानी नदियों की सहायक धाराओं का बारहमासी तंत्र का लगभग 82 प्रतिशत गैर-बारहमासी प्रकृति में बदल गया है। इनकी प्रमुख नदी का प्रवाह इस अवधि में 16 गुना कम हो गया। इसलिए, गैर-हिमालयाई प्रमुख नदियां घट रही हैं और अपने अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं। जंगल की आग व लगातार भूस्खलन से गैर-हिमानी नदियों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।
बढ़ता तापमान, अनियमित वर्षा और ग्लेशियरों का पिघलना, गैर-हिमानी नदियों के जलस्तर को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं। साथ ही, बढ़ती जनसंख्या, कृषि, उद्योग और पर्यटन के लिए जल की अत्यधिक मांग भी इन नदियों को कमजोर बना रही है।
देहरादून के करीब बादल फटने ने चेता दिया है कि छोटी नदियों का अस्तित्व अनिवार्य है और यह बरसात-बादल फटने के दौरान न केवल बाढ़ से बचने में सक्षम है, बल्कि जमीन के कटाव को रोकने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।