इसमें क्या हैरानी कि भारत में कभी कोई उदारवादी वामपंथी प्रधानमंत्री नहीं बन पाया, कट्टर तो एक तरफ रहा। यहां तक कि भारत के पहले वामपंथी मुख्यमंत्री, जो भीड़-खींचू नेता कम और विद्वान ज्यादा थे और निर्मम स्टालिन की बजाय खुद आडंबरहीन गांधीवादी थे। इतने मूर्धन्य वामपंथी मुख्यमंत्री को उस प्रधानमंत्री ने बर्खास्त किया था जिसे हम अपना सबसे अधिक ज्ञानवान राजनेता मानते हैं -नेहरू के उदारवाद पर इतना भर। केवल एक परंपरावादी प्रधानमंत्री ही अपने बेटी को पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर स्थापित कर वंशवादी राजनीति की शुरुआत कर सकता था।
भारतीय राजनीतिक चरित्र लाजिमी तौर पर अपरिवर्तनवादी रहा है और अंतस की यह रूढ़ि-प्रियता देश की दिशा और नियति तय करती है। यही चरित्र आधुनिक इतिहास के सबसे बड़े उलट-फेर को परिभाषित करता है : जब रूढ़िवादियों ने सर्वसम्मति बनाकर भारत को औपनिवेशिक शासन से आजादी दिलाई, सत्ता हस्तांतरण के जरिए, हिंसक विद्रोह बिना। बेशक, एक दुखद तथ्य यह भी है कि औपनिवेशिक दमनकारी अपने पीछे सफलतापूर्वक विभाजन की खूनी लकीर और पहचान की राजनीति का कभी न भरने वाला नासूर छोड़ गए।
देश के संस्थापक और यहां तक कि महात्मा गांधी भी- जो इन सब में सबसे ज्यादा रचनात्मक सुधारक थे – उन्होंने न केवल अपने लोगों को इकट्ठा रखने के लिए बल्कि महाकाय भारतीय राजनीतिक ढांचे को सुदृढ़ बनाने के लिए परंपरावादियों के बीच ज्यादातर सर्वसम्मति बनवा दी थी। हिंदू रूढ़िवाद के खिलाफ उन्होंने अपने जिस सबसे ज्यादा सुधारवादी विचार को स्वीकार्य करवाया वह था छुआ-छूत और मैला ढोने के खिलाफ अभियान। 1922 में, जब चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी जी को सविनय अवज्ञा आंदोलन वापिस लेने को मजबूर होना पड़ा था, तब ‘द ट्रिब्यून’ समाचारपत्र के मुताबिक बारडोली-दिल्ली में पारित कार्यसूची में सबसे अहम विषयों में एक था ‘छुआ-छूत उन्मूलन कर दमित वर्ग का उत्थान’।
सौ साल पहले, सबसे बड़े भारतीय राष्ट्रीय मंच का नेतृत्व, अपने शब्द और कर्म से, हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों और प्रथाओं पर प्रहार करने का संकल्प केवल परंपरावादियों के बीच इस आम सहमति के बूते ले पाया था। इसके लिए अधिक अनुमान लगाने की जरूरत नहीं कि गांधी के सेनानी खुद अनुदारवादी थे, जिनमें मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय और स्वामी श्रद्धानन्द थे (ये सभी गांधी द्वारा बनाए जलियांवाला बाग यादगार ट्रस्ट के सदस्य थे)। फिर भी ये सब हिंदुओं में जारी सबसे बुरी प्रथाओं को चुनौती देने और उन्मूलन करने में साथ आए।
बारडोली-दिल्ली प्रस्तावों के दो साल बाद पहला गांधीवादी सत्याग्रह एक सवर्ण जत्थे द्वारा दलितों को हिंदू मंदिरों में प्रवेश करवाने को लेकर था, जिसकी अगुवाई प्रवेश के हकदार जाति वाले एक व्यक्ति ने की थी। यह वाइकोम सत्याग्रह अम्बेडकर के महाड़ सत्याग्रह से तीन साल पहले हुआ था। तब, अम्बेडकर भी परंपरावादी थे जिन्होंने सुधारवादी-आंदोलनात्मक राजनीति अपनाने की बजाय औपनिवेशिक हुक्मरानों का साथ देना चुना। अगर ब्रिटिश हुकूमत राष्ट्रवादियों को हराने में सफल हो गई होती तो शायद अम्बेडकर आगे भी वायसरॉय एक्जिक्यूटिव काउंसिल में सदस्य बने रहते और फिर गणराज्य का संविधान भी न होता।
अब यह कल्पना करना फैशन बन गया है कि हमारा संविधान एक अनुदारवादी दस्तावेज है। अगर ऐसा है तो संविधान सभा के उन परंपरावादी महानुभावों को फिर से झुककर सलाम करना चाहिए, जिन्होंने यह लिखा है। संसद को अप्रत्यक्ष रूप से बड़े जमींदारों और सरमायादारों ने चुना था और जिनके पास मतदान के पात्र कुल लोगों में सिर्फ 20 फीसदी से भी कम का प्रतिनिधित्व था। फिर भी, समझदार स्त्री-पुरुषों की यह सम्माननीय सभा एक ऐसा प्रगतिशील दस्तावेज लिख पाई जिसने उन कट्टर वामपंथियों तक से शास्त्र का दर्जा प्राप्त कर लिया, जिनके राजनीतिक पूर्वजों ने ‘यह आज़ादी झूठी है’ कहकर इसको नकारा था।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस जोर देती है कि वह स्वतंत्रता आंदोलन के श्रेय की एकमात्र विरासतदार है, लेकिन अब यह जगजाहिर है कि पार्टी अपनी केंद्रीय परंपरावादी पहचान खो चुकी है। गांधी परिवार अब भारतीय परंपरावादियों का प्रतिनिधित्व करने वाला नहीं रहा। कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व जनसंख्या के एक खास तबके का प्रतिनिधित्व करने वाली हस्ती न होकर संगठनात्मक जरूरत का तत्व भर है। हताश कांग्रेस अपना संगठन कायम रखने के लिए ‘गांधियों’ पर बेतरह निर्भर है, सीधी बात है कि मौजूदा कांग्रेस पार्टी में एक भी ऐसा गैर-गांधी नेता नहीं है जो घटते कुनबे को एकजुट रखने में काबिल हो। हालांकि गुट- 23 के सदस्यों ने नेतृत्व की कमियों को उठाकर सही किया है, लेकिन यह भी गांधियों का भरोसेमंद विकल्प प्रस्तुत करने में असफल रहा है। इसलिए जहां गांधी परिवार कांग्रेस रूपी किताब के फटते और छिटकते जा रहे पन्नों को जोड़ने में गोंद का काम कर रहा है वहीं किसी खास वर्ग, कौम या तबके ने इसको पढ़ना बंद कर दिया है।
1969 में कांग्रेस में हुए पहले दोफाड़ के बाद पार्टी से परंपरावादी नेताओं के अलगाव की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसे इंदिरा गांधी 1971 के युद्ध में मिली भारी जीत से उलट सकती थीं। एमरजेंसी और निजी हार के बाद भी इंदिरा गांधी ने 1980 के चुनाव में काफी हद तक अपनी खोई राजनीतिक जमीन वापस हासिल कर ली थी। 1984 में राजीव गांधी की जीत परंपरावादियों का पुनः अनुमोदन थी जो एक स्थिर, एकीकृत और मजबूत भारत की चाहना रखते थे। लेकिन एक नयी शुरुआत करने वाले प्रधानमंत्री के स्वार्थी अनुचरों द्वारा शाह बानो केस, सलमान रुशदी की किताब पर प्रतिबंध और अयोध्या में बाबरी मस्जिद के बंद ताले खुलवाकर दोहरा सांप्रादायिक कार्ड खेलने के प्रयासों ने परंपरावादी समर्थक मतदाता को पार्टी से परे करवाकर बुरी तरह नुकसान पहुंचाया।
नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने अपनी सहज वृत्ति से इस परंपरावादी मतदाता के बड़े हिस्से में पुनः जगह बनाई, जिसका पिछले कुछ सालों से धीरे-धीरे सांप्रदायीकरण हो रहा था। लेकिन लगता है कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के पास अपने इन परंपरावादी वोटरों को राजीव काल के प्रतीकवादी नर्म इस्लामिक-हिंदुत्व-जाति आधारित राजनीति देने के अलावा और कुछ नहीं है। फिलहाल गांधी परिवार जो कुछ कर सकता है तो यही कि अपनी ताकत-संगठनात्मक नियंत्रण- पर लगाये और ठीक इसी समय क्षत्रपों को पार्टी का केंद्रीय विचार फिर से परंपरावादी बनाने की इजाजत दे। कोई हर्ज नहीं यदि कोई नेता नाइट क्लब जाए, पार्टी में आनंद ले, हल्की दाढ़ी रखे, दोस्तों संग कुछेक जाम पिए, तथ्य है कि कोई और भी करे तो भी नैसर्गिक है। लेकिन राजनेता सार्वजनिक तौर पर ऐसा क्यों नहीं करते, इसके पीछे कारण है कि वे अपने परंपरावादी समर्थकों के इस विचार से डरते हैं कि नेता सदा आदर्श चरित्र वाला दिखे। हां, यह है तो ढोंग। लेकिन फिर परंपरावादी विचार ऐसे ही बनते हैं।
और यदि फिर भी कांग्रेस नेतृत्व को यकीन है कि वह एकदम अलग वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है और उस तक संदेश पहुंचता है तो यही वक्त है अपने इस मतदाता वर्ग को जोड़े रखने की रूपरेखा बनाए।
लेखक प्रधान संपादक हैं।