मौसम की तरह मिजाज बदलने वाले राजनेता भले ही जनता को भरमाने के भ्रम में रहें, पर हालिया उपचुनाव के परिणाम बताते हैं कि जनता ही वास्तव में जनार्दन है। पिछले दिनों हुए तीन लोकसभा और 29 विधानसभा उपचुनावों के परिणाम दरअसल राजनीतिक दलों-नेताओं का भ्रम दूर करने वाले हैं। कोई भी दल-नेता हर जगह समान भाव से मतदाताओं का आशीर्वाद मिलने का दावा नहीं कर सकता। कहीं मतदाताओं ने सत्तारूढ़ दल में अपना विश्वास बरकरार रखा है तो कहीं उसे पूरी तरह नकार दिया है। एक ही समय अलग-अलग राज्यों में हुए इन उपचुनावों के अलग-अलग परिणामों का विश्लेषण आसान नहीं है। इसलिए किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना तो और भी मुश्किल है। हरियाणा से ही बात शुरू करें। तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसान आंदोलन के समर्थन में इनेलो के एकमात्र विधायक अभय चौटाला के इस्तीफे के चलते ऐलनाबाद विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव की नौबत आयी। उपचुनाव हुआ तो अभय चौटाला को मैदान उतरना ही था। 2019 में हुए चुनाव में ऐलनाबाद में भाजपा के पवन बैनीवाल दूसरे स्थान पर रहे थे और कांग्रेस के भरत सिंह बैनीवाल तीसरे स्थान पर। इस बार पर्दे के पीछे की राजनीति ने इन दोनों की भूमिकाएं बदल दीं। पवन बैनीवाल अचानक न सिर्फ कांग्रेसी हो गये, बल्कि उन्हें ऐलनाबाद से कांग्रेस का टिकट भी मिल गया।
संभव है कि निर्दलीय विधायक गोपाल कांडा के भाई गोविंद कांडा और भाजपा के बीच मेल-मुलाकातों से पवन को अपना पत्ता साफ होने का पूर्वाभास हो गया हो। सत्तारूढ़ भाजपा-जजपा गठबंधन ने गोविंद कांडा पर ही दांव लगाया। यह दांव बेकार भी नहीं गया। न सिर्फ भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा, बल्कि अभय की जीत का अंतर भी घटा, जबकि कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे पवन की जमानत ही जब्त हो गयी। भरत सिंह बैनीवाल को कांग्रेस का टिकट तो नहीं मिला, अलबत्ता अब पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए कारण बताओ नोटिस अवश्य मिल गया है। जाहिर है, ऐलनाबाद में अभय चौटाला की बादशाहत बरकरार रही, लेकिन जीत का अंतर बताता है कि दबदबा कम अवश्य हुआ है। फिर भी इस उपचुनाव परिणाम से हरियाणा के राजनीतिक परिदृश्य के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं—सिवाय इसके कि अंतर्कलह में डूबी कांग्रेस में गुटबाजी और बढ़ेगी।
अब पड़ोसी हिमाचल प्रदेश की बात करें। लंबे अरसे तक वीरभद्र सिंह-शांता कुमार-प्रेम कुमार धूमल की तिकड़ी के बीच फंसी रही हिमाचल की राजनीति में 2017 में जयराम ठाकुर का भाजपाई मुख्यमंत्री बनना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। बिसात किसी ने किसी के लिए बिछायी थी, पर पासा किसी और का पड़ गया। ऐसे अनपेक्षित घटनाक्रम के लिए राजयोग शब्द ही शायद सबसे उपयुक्त है। भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति में 2014 के बाद तेजी से बदले समीकरणों ने भी जयराम ठाकुर की राह आसान बनायी। लगभग चार साल तक उनका मुख्यमंत्रित्वकाल भी निष्कंटक ही रहा, लेकिन अब मंडी लोकसभा के साथ ही तीनों विधानसभा उपचुनावों में भी कांग्रेस की जीत उनके लिए शुभ संकेत नहीं है। जिस महंगाई की आड़ जयराम अपनी चुनावी नाकामी छिपाने के लिए लेना चाह रहे हैं, वह तो राष्ट्रव्यापी है, सिर्फ हिमाचल तक सीमित नहीं। हिमाचल प्रदेश भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह राज्य भी है। अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में कांग्रेस के हाथों मिली इस शर्मनाक हार पर भाजपा मूकदर्शक नहीं बनी रह सकती, पर पार्टी और राज्य के राजनीतिक समीकरणों के मद्देनजर बहुत सहज स्वाभाविक विकल्प उपलब्ध भी नहीं है।
हिमाचल की तरह राजस्थान में भी कांग्रेस ने भाजपा को चौंकाया है। मध्य प्रदेश में दलबदल के जरिये कांग्रेस सरकार गिरा कर सत्ता में लौटी भाजपा राजस्थान में भी वैसी ही कोशिशें करती रही है। अंतर्कलह के बावजूद राजस्थान में कांग्रेस का दोनों विधानसभा उपचुनाव जीत जाना भाजपा के लिए बड़ा झटका है। बेशक राजस्थान भाजपा में भी आंतरिक टकराव कम नहीं है, पर कांग्रेस के अंतर्कलह और सत्ता विरोधी भावना का लाभ उठा पाने में नाकामी नेतृत्व के लिए एक बड़ी चुनौती है। ऐसा ही झटका बिहार में लालू यादव के राजद को लगा है। पिछले साल कोरोना काल में हुए विधानसभा चुनाव में राजग को मिले बहुमत पर लालू के पुत्र तेजस्वी ने सवाल उठाये थे, अब हुए दोनों विधानसभा उपचुनाव में जद-यू की जीत ने उसका जवाब दे दिया है। ये उपचुनाव परिणाम राजद और कांग्रेस, दोनों को ही आईना दिखाने वाले रहे हैं। तेजस्वी के तेज की सीमाएं उजागर हो गयी हैं तो कन्हैया का कमाल भी कहीं नजर नहीं आया। असम में भी सत्तारूढ़ भाजपा और मित्र दल ने अच्छा प्रदर्शन किया है, मेघालय में भी भाजपा के मित्र दल के हिस्से ही जीत आयी है, लेकिन यही बात कर्नाटक की बाबत नहीं कही जा सकती, जहां कुछ महीने पहले ही मुख्यमंत्री बदला गया है। कर्नाटक में दो सीटों के लिए हुए उपचुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा के हिस्से एक ही सीट आयी, जबकि दूसरी कांग्रेस के खाते में चली गयी। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस एकमात्र उपचुनाव जीतने में सफल रही, जबकि मध्य प्रदेश में तीन सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भी भाजपा की दो के मुकाबले उसके हिस्से एक सीट आ गयी।
तेलंगाना में सत्तारूढ़ टीआरएस से उपचुनाव में विधानसभा सीट छीन लेने से निश्चय ही भाजपा का आत्मविश्वास बढ़ा होगा, लेकिन उससे उस सदमे की भरपाई संभव नहीं लगती, जो पश्चिम बंगाल में लगा है। पश्चिम बंगाल में हाई वोल्टेज चुनाव प्रचार के बावजूद ममता बनर्जी से मात खाने के बाद भाजपा वहां किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में नजर आ रही है। चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में हो रही भगदड़ ने माहौल बनाने में मदद की थी, लेकिन अब हवा उलटी चल पड़ी है। ममता की तृणमूल ने पश्चिम बंगाल विधानसभा उपचुनावों में क्लीन स्वीप ही नहीं किया है, बल्कि दिनहाटा विधानसभा सीट तो उसने भाजपा से एक लाख 64 हजार वोटों के अंतर से छीनी है। इतना अंतर तो अब लोकसभा चुनाव में भी कम ही देखने में आता है। ऐसे में वहां भाजपा की मुश्किलें बढ़ेंगी, क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में दस्तक के साथ ही ममता बनर्जी का राजनीतिक कद और आकर्षण बढ़ेगा ही। हर चुनावी हार कसक देती है, पर पश्चिम बंगाल और हिमाचल प्रदेश के उपचुनाव परिणाम उससे भी ज्यादा राजनीतिक असरकारी नजर आते हैं। भाजपा को रास अपने पुराने मित्र और अब सबसे बड़ी राजनीतिक शत्रु शिव सेना का महाराष्ट्र से बाहर पैर फैलाना भी नहीं आयेगा। भाजपा ने दादर एवं नागर हवेली लोकसभा सीट उपचुनाव में जीत कर वह करिश्मा कर दिखाया है, जिसके बारे में संस्थापक बाल ठाकरे ने सोचा भी नहीं होगा। कुल मिला कर उपचुनाव परिणामों ने राजनीतिक परिदृश्य की मिलीजुली तस्वीर पेश की है। भाजपा और मित्र दलों का जादू कुछ राज्यों में बरकरार है तो कांग्रेस कुछ राज्यों में अभी भी दमखम रखती है, जबकि क्षेत्रीय दल भी अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में दम दिखा ही रहे हैं। इसे अगर आगामी चुनावों के लिए संकेत मानें तो भाजपा के लिए निराशाजनक न सही, चिंताजनक अवश्य हैं।
journalistrksingh@gmail.com