चलो प्रेयसी हम एक रील ही बना लें
डॉ. हेमंत कुमार पारीक
किसी को कंधे पर उठाने में दम लगता है। उठाने के लिए कंधे मजबूत होने चाहिए। और देख लो आजकल महिलाओं को उठाने की मुहिम चल रही है। तरह-तरह की रीलें बन रही हैं। पहले फ्रेम बना करते थे। पर फ्रेम में वो मजा कहां जो रील में है। और अगर रील महिला को लेकर हो तो सारे काम छोड़कर लोग रील देखने लगते हैं। रील एक धंधा है। स्टार्टअप कह लो। भजिए पकौड़े के स्टार्टअप की बातें अब हवा हो गयीं। लोगबाग पकौड़े खाने और चाय पीने की अपेक्षा रील पर जिंदा हैं। सुबह-सुबह हाथ-मुंह बाद में धोता है आदमी, पहले रील का स्वाद चखता है।
धंधा अच्छा है। चलते-फिरते खींच लो। बाजार में तफरी करते रील बना लो। क्या लगता है? फिलहाल सोनम की रील तो ऐसे बन रही है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही। इसके साथ छोटी-मोटी रीलें भी आ गयी हैं बाजार में। मगर बड़ी रील का मजा कुछ और ही होता है। नये-नये किरदार चले आते हैं। बच्चे, जवान और बूढ़ों को टाइम पास करने के लिए और क्या चाहिए? टीवी वालों को तो पका पकाया माल मिल रहा है। रोज की बहसों में सोनम एक सब्जेक्ट है। इस सब्जेक्ट में मसाला ही मसाला है। पापाजी के पास भी एक सब्जेक्ट है। व्हाइट हाऊस में बैठे-बैठे रील बनाने में व्यस्त हैं। नमक-मिर्च का काम कर रहे हैं। नमक की प्रकृति है कि ज्यादा मिल जाए तो रोटी खाई न जाए और कम मिले तो स्वाद न आता।
एक बड़ी रील उनकी तरफ से भी है। पापाजी क्या उवाचे? आज ये उवाचे और कल पल्टी मार गए। लगता है कि बिहारी बाबू का पानी पी के गए होंगे। अब रील बनाना तो इंटरनेशनल धंधा हो गया है। हर किसी को मजा आने लगा है। इस वक्त रील सार्वभौमिक सत्य है। कहीं सास दामाद के साथ रील बना रही है तो कहीं बहू ने ससुर का दामन थाम रील बना ली। मोबाइल के कंधे पर सवार लोग भाग रहे हैं। आज सबसे बड़ा मोबाइल का धंधा है। समाज गया चूल्हे में। चूल्हे में लकड़ी की जगह संस्कार जल रहे हैं।
फिलहाल भैय्याजी की रील चल रही है। अम्माजी कह रही हैं, लगे रहो बिटवा। कभी न कभी तो तुम्हारी रील भी बाजार में चलने लगेगी। बाजार किसी के न हुए। जो चलता रहता है एकदिन बाजार उसी की कद्र करता है। समय पर भट्ठेे के भाव भी बढ़ जाते हैं और सोना भी पीतल के भाव बिक जाता है। मौसम के हिसाब से आयटम चुनने में समझदारी है। इस वक्त नफरत ऊंचे दामों में बिक रही है। अब जरूरत है कि कोई मोहब्बत की रील बनाए। खूब चलेगी।