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हवा-पानी साफ और कचरा-गंदगी हाफ

तिरछी नज़र
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सफाई का आलम यह है जनाब कि दिल्ली-एनसीआर से झुग्गियां तक साफ हो गयी। और कितनी सफाई चाहिए यार। इधर दिल्ली से मद्रासी बस्ती साफ हुई तो उधर गुरुग्राम से बंगाली बस्ती साफ हो गयी।

दिल्ली-एनसीआर में इतनी साफ हवा कभी नहीं रही जी। बेशक आसमान साफ नहीं रह रहा क्योंकि बादल हैं, घटाएं हैं, कड़कड़ाती बिजलियां हैं। पर आसमान तो पहले भी कभी साफ नहीं रहा। बस एक बार रहा था कुछ समय के लिए-कोरोना काल में। वरना तो कभी सर्दी की धुंध तो कभी पराली का स्मॉग। संसार का बस इतना ही फसाना है एक धंुध से आना है, एक धुंध में जाना है टाइप से। पर तब तो आसमान ही आसमान क्या हवा भी साफ नहीं रहती न जनाब। लेकिन अब आसमान पर तो बेशक बादल हैं, पर हवा भी साफ है। बारिश के दिनों की अच्छी बात यह होती है इन दिनों जमनाजी भी साफ हो जाती हैं। हां, अलबत्ता दिल्ली के नाले-नालियां बारिश में साफ नहीं होते और वो साफ नहीं होते तो फिर पानी सड़कों पर फैलता है और उसके साथ कचरा फैलता है। इस तरह कहा जा सकता है कि हवा-पानी साफ और कचरा-गंदगी हाफ। और तो और सफाई का आलम यह है जनाब कि दिल्ली-एनसीआर से झुग्गियां तक साफ हो गयी। और कितनी सफाई चाहिए यार। इधर दिल्ली से मद्रासी बस्ती साफ हुई तो उधर गुरुग्राम से बंगाली बस्ती साफ हो गयी।

ऐसे में बस समस्या यही हो गयी है कि गुरुग्राम में कोई सफाई वाला नहीं मिल रहा। यहां तक घरों की बाइयां तक चली गयी हैं। सब चले गए। पुलिस-प्रशासन बंगलादेशियों को निकाल रहा था, रोहिंग्याओं को निकाल रहा था। सरकार का यह भी एक तरह का सफाई अभियान ही था। अभियान तो चला। बंगाली बस्ती खाली हो गयी। सफाई करने वाले गए तो फिर सफाई भी चली गयी। अब मिलेनियम सिटी तो है, पर सफाई नहीं रही। क्योंकि जो शहर में सफाई करते थे, वे ही नहीं रहे। उन्होंने कहा कि हम बंगलादेशी नहीं, बंगाली हैं और वे बंगाल चले गए। पहले वे गए, फिर उनका सामान भी चला गया। बताते हैं कि उन्हें खदेड़ा नहीं गया। वे खुद ही चले गए। डर के मारे। वे कहते रहे कि वर्दी वाले पैसा मांगते हैं, और हमारे पास पैसा नहीं है। उन्हें डर था कि पुलिस-प्रशासन उन्हें भी बंगलादेशी ही समझ रहा है। पर वे बंगाली थे। पुलिस-प्रशासन को बंगलादेशियों और बंगालियों में फर्क करना नहीं आता न जी। उन्हें तो बस इतना फर्क पता था कि पैसा दो तो बंगाली हो, नहीं तो बंगलादेशी। ऐसे में अब न सड़कें साफ हो रही हैं और न घरों के बर्तन साफ हो रहे हैं। बाइयां ही नहीं हैं। गुरुग्राम पैसे वालों का है। वहां उनके करोड़ों के फ्लैट हैं, कोठियां हैं। पर साफ-सफाई करने वालों, बर्तन धोने वालों के पास पैसा नहीं है और वे चले गए हैं। उनके बिना करोड़ों के फ्लैटों, कोठियों में ऐशो आराम कहां रहा। मेमसाहबों को बर्तन धोने पड़ रहे हैं।

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