क्षमा शर्मा
इस पीढ़ी के बहुत से माता-पिता महानगरों में ऐसे हैं, जिन्हें डिंक इनकम ग्रुप यानि कि डबल इनकम वर्ग कहा जाता है। इनमें से अधिकांश एकल परिवार हैं। ऐसे में जब घर में किसी शिशु का आगमन होता है, तो दफ्तर के कामों में चौबीस घंटे व्यस्त रहने वाले माता-पिता के सामने भारी समस्या होती है कि शिशु का लालन-पालन कैसे हो। संयुक्त परिवारों में जो बच्चे चुटकियों में पल जाते थे, वे एकल परिवारों में माता-पिता की चिंता का कारण बनते हैं। ऐसे में ये युवा या तो दूर-दराज रहने वाले अपने परिवारों की राय लेते हैं या इंटरनेट पर बच्चों के पालन-पोषण के जो सुझाव मिलते हैं, यू ट्यूब पर जो वीडियो दिखते हैं, उनसे सीखते हैं। परिवार की बुजुर्ग स्त्रियों की सलाहों को कई बार यह कहकर दरकिनार कर दिया जाता है- यह आपका जमाना नहीं है। यह भी कि नये दौर के बच्चों की परवरिश के तौर-तरीके अलग हैं। दलील दी जाती है कि यह इस दौर का बच्चा है, जो आठ महीने की उम्र से ही मोबाइल चलाना सीख गया है, कुछ ही साल की उम्र में कम्प्यूटर पर हाथ आजमाता है। बचपन से ही टीवी देख-देखकर सारे नेताओं के नाम जानता है। यहां तक कि विज्ञापनों में खाने-पीने की जो चीजें दिखाई देती हैं, उन्हें ही खाने की जिद करता है।
कई बार परिवार में बच्चे की देखभाल करते वक्त माता-पिता भी उन्हीं चीजों को सही मान लेते हैं जो उन्हें किसी आकर्षक विज्ञापन में दिखीं या किसी ने बताईं।
इस संदर्भ में एक उदाहरण याद आता है। एक युवा महिला ने एक बच्ची को जन्म दिया। जन्म से पहले उसने शिशु के लिए बाजार से महंगी ब्रांड के कपड़े खरीदे। उन दिनों उसकी सास गांव से आई हुई थीं। उन्होंने कहा कि बच्चे को पहनाने से पहले कपड़ों को अच्छी तरह से धो लिया जाए। क्योंकि नए कपड़ों में जो रूखापन होता है, उनसे बच्चों की त्वचा में कई बार घाव हो जाते हैं, लेकिन मां ने कहा कि वह ऐसा क्यों करे। इतने महंगे नए कपड़े क्या इसलिए हैं कि उन्हें पहनाने से पहले ही धो दूं। खैर, बच्ची के जन्म के बाद मां ने जब उसे हर रोज नए कपड़े पहनाए, तो वही हुआ जो बूढ़ी सास ने कहा था। बच्ची के शरीर पर लाल चकत्ते उभर आए। उसे कपड़ों में लगे रसायनों से एलर्जी हो गई। लम्बे इलाज के बाद ही वह ठीक हो सकी।
दूसरा किस्सा ऐसा कि एक बच्चे ने स्कूल जाना शुरू किया तो मां की पक्की सहेली ने कहा कि वह तो बच्चे के स्कूल के लिए खाना नहीं देती है। क्योंकि साथ के सारे बच्चे स्कूल कैंटीन से ही कुछ न कुछ लेकर खाते हैं। ऐसे में यदि उसका बच्चा घर से खाना ले जाएगा, तो दूसरे बच्चे उसकी हंसी उड़ाएंगे। आखिर अपने बच्चे की हंसी कैसे उड़वाएं। लेकिन स्कूल में अध्यापिकाओं ने इस बात को नोटिस किया। फिर स्कूल की तरफ से एक पत्र इन बच्चों के घरों में भेजा गया जिसमें स्पष्ट रूप से यह निर्देश था कि बच्चों के लिए दोपहर का खाना घर से भेजें। खाना ऐसा हो, जिससे बच्चों को पोषक तत्व मिल सकें। इसमें सुझाव के तौर पर खाने की चीजों की सूची भी दी गई थी। यह भी कहा गया था कि बच्चे दूसरे बच्चों की देखादेखी सीखते हैं। इसलिए जब एक बच्चा घर से खाना लेकर आएगा, तो दूसरे बच्चे भी ऐसा ही करेंगे। स्कूल कैंटीन से कभी-कभी खाना बुरा नहीं है, लेकिन हर रोज जंक फूड खाने से बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। निस्संदेह बढ़ते बच्चों के लिये पौष्टिक आहार बेहद जरूरी भी है।
गूगल गुरु के जमाने में हमने अपने आसपास के अनुभव जन्य ज्ञान से किनारा कर लिया है। बच्चों को कैसे पालें, कैसे पढ़ाएं, लिखाएं, कैसे उनका मनोरंजन करें, कहां-कहां घुमाने ले जाएं, उन्हें मैनर्स कैसे सिखाएं, वे परिवार में किस तरह से व्यवहार करें, कक्षा में सबसे आगे कैसे रहें, खेल-कूद में सबसे अच्छा परफाॅर्म कैसे करें आदि ज्ञान का भंडार आपको हर जगह दिखाई दे सकता है। असंख्य गुरु और बेशुमार ज्ञान। इसमें यह जो ‘सबसे’ शब्द है, असली मुसीबत की जड़ भी यही है। हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा सबसे आगे रहे। इस सबसे के चक्कर में होता यह है कि जिसने जो कुछ बताया, उसे ही सही मान लिया जाता है। अकसर ऐसी बातों को अनुभव की कसौटी पर कसने की जरूरत नहीं समझी जाती। इससे कई बार बच्चों को बहुत नुकसान भी होता है।
कई बार टीवी के अनेक विज्ञापनों में बच्चों के खिलौनों को उनके मानसिक विकास, उनके स्वास्थ्य आदि से जोड़ दिया जाता है। इनडोर गेम्स के बारे में हम जानते हैं कि उन्हें बच्चे बैठे-बैठे खेलते हैं, उनमें उनकी शारीरिक गतिविधियां कम होती हैं। जबकि बाहर खेलने वाले खेलों में भागते -दौड़ते , अपनी ऊर्जा खर्च करते हैं, इसलिए वे स्वास्थ्य के लिए अच्छे माने जाते हैं। कोरोना के दौर में अधिकांश बच्चे घरों में रहे। वे बाहर कम निकले। घर में रहकर ही खेले। इससे उनका समय तो कटा, लेकिन स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर भी देखा गया। मोटापे जैसी कई समस्याएं बढ़ी।
सूचना के विस्फोट ने यह किया है कि बच्चों के पालन-पोषण, उनके खेल-कूद, उनकी शिक्षा, रहन-सहन, कपड़ों, खेल-खिलौनों आदि के बारे में माता-पिता जो कुछ भी देख-सुन रहे हैं, उन्हें अपना रहे हैं। जिस खिलौने से पड़ोस का बच्चा खेल रहा है, वैसा ही खिलौना अपने बच्चे को देना है, जिस ब्रांड के कपड़े वह पहन रहा है या रही है, वही चाहिए। जबकि हर बच्चे की जरूरतें और पसंद- नापसंद अलग हो सकती हैं। इन दिनों तो बच्चे अपनी चीजों का चुनाव भी खुद करना चाहते हैं। हालांकि यह भी सच है कि बच्चे भी उन्हीं चीजों को मांगते हैं, जिन्हें देखते हैं।
यह भी देखने में आया है कि आज बच्चों के लिए किसी उत्पाद को बहुत अच्छा बताया जाता है, तो कल उसे सिरे से खारिज कर दिया जाता है। दशकों पहले
डिब्बाबंद दूध को नवजात बच्चों के लिए मां के दूध से भी अच्छा बताया जाता था। डाॅक्टर्स भी इसे लिखते थे। लेकिन बाद में मां के दूध को ही सर्वोपरि माना गया। तो आखिर किधर जाएं। किसकी मानें। अच्छे-बुरे की पहचान कैसे करें। अच्छा तो यही है कि सुनें सबकी लेकिन बच्चों के बारे में निर्णय अपने विवेक और बच्चे की जरूरतों के हिसाब से लें।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार हैं