अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर बदली स्थितियों के मुताबिक देशों के बीच दोस्ती-दुश्मनी में भी त्वरित परिवर्तन जारी हैं। ऐसे में एक हद तक सही है कि ‘लड़ाई-लड़ाई’ करने की तुलना में ‘बात-बात’ बेहतर है। सभी के लिए बड़ा संदेश यह कि ‘नए’ अमेरिका को किसी से भी बात करने में कोई गुरेज नहीं है। ऐसे में सही कदम ही कहा जायेगा कि प्रधानमंत्री मोदी भी ट्रंप के साथ जल्द बैठक करना चाहते हैं।
ज्योति मल्होत्रा
वैश्विक राजनीति के तेजी से बदलते परिदृश्य के बीच, गत सप्ताह बहुत कुछ घटा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने टीवी चैनल फॉक्स न्यूज को बताया कि उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह से ठीक पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से ‘टिकटॉक, व्यापार और ताइवान’ को लेकर बात की थी और यह बातचीत दोस्ताना रही। अब हम जानते हैं कि ट्रम्प ने जिनपिंग को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया था, लेकिन उन्होंने खुद न जाकर अपने उपराष्ट्रपति हान झेंग को भेजा। इतना ही नहीं, उसके बाद से ट्रंप ने टिकटॉक पर प्रतिबंध के अलावा चीनी आयात पर प्रस्तावित अतिरिक्त शुल्क लगाना (60 प्रतिशत की उच्च दर तक) स्थगित कर दिया है।
हम यह भी जानते हैं कि शपथ ग्रहण समारोह की पूर्व संध्या तक वाशिंगटन डीसी स्थित भारतीय दूतावास के अधिकारी ट्रम्प की ट्रांजिशन टीम से प्रधानमंत्री मोदी को भी आमंत्रित करने का अनुरोध करते रहे। लेकिन ट्रम्प के लोगों ने यह कहते हुए टालमटोल की कि पहले ही बहुत कुछ हो रहा है और अब पर्याप्त समय भी नहीं बचा - कुछ ऐसा ही बहाना। इसके बजाय, उन्होंने विदेश मंत्री एस जयशंकर को उस दोपहर हुए पूरे समारोह में पहली पंक्ति में जगह दी (हान झेंग कहां बैठे, कोई नहीं जानता)। अमेरिकियों को इस बात का अच्छी तरह अहसास है कि किसी भी विदेश नीति की सफलता में ‘कोई धारणा बनाने ’ का हिस्सा आधा होता है, इसलिए उन्होंने अगले दिन क्वाड मीटिंग का आयोजन भी किया - इससे चीनियों को संदेश दिया है कि आप भले ही हम से मुकाबला करने की सोच रहे हैं,लेकिन हमारे साथ भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान भी हैं।
सभी के लिए, खासकर भारत के लिए, बड़ा संदेश यह है कि ‘नए’ अमेरिका को किसी से भी बात करने में कोई गुरेज नहीं है –अतएव,हमारे लिए भी अपने अड़ोस-पड़ोस पर नज़र डालनी और विचार करना वाजिब होगा कि महाकुंभ में गंगा के प्रवाह से भी अधिक तेजी से कैसे देश अपने दोस्त बदल रहे हैं। एक महीना पहले तक, यही ट्रम्प जिनपिंग को राह पर आने या नतीज़ा भुगतने की धमकियां दे रहे थे –लेकिन अब स्याम देश की बिल्ली की तरह ‘गुर्रा’ रहे हैं। यही नहीं, पिछले सप्ताह की शुरुआत में, 2009 के बाद से पहली बार पाकिस्तान के आईएसआई प्रतिष्ठान की एक टीम बांग्लादेश के लिए रवाना हुई, इसके कुछ दिन पहले बांग्लादेश सशस्त्र बल के मुखिया लेफ्टिनेंट जनरल एसएम कमरुल हसन के नेतृत्व में बांग्लादेशी सैन्य प्रतिनिधिमंडल इस्लामाबाद पहुंचा था।
इस तमाम मंथन के बीच, एकमात्र रिश्ता जो दृढ़ बना हुआ है, वह है जिसे पाकिस्तान और चीन ‘पहाड़ों से भी ऊंचा, समुद्र से भी गहरा और शहद से भी मीठा’ संबंध बताते हैं यानि दोनों के बीच यारी। तो जब आप पृथ्वी को अपनी धुरी पर घूमते हुए देखें तो वहीं पुरानी वफ़ादारी के छिटककर टूटने और नई वफ़ादारियां बनने वाले रोमांच को भी महसूस करें। यह वही है जैसे पंजाब में आप लोहड़ी पर पुरानी और अवांछित लकड़ी को अलाव में डाल देते हैं, जब मकर संक्रांति के दिन माघ का महीना शुरू होता है, और एक नया जीवन-पथ आपकी बाट जोह रहा होता है।
जरा देखिए तो, माघ ने अब तक दुनिया को क्या-क्या संकेत दिए हैं : अमेरिका और चीन के बीच नई दोस्ती, चीन-पाकिस्तान के बीच पुराने संबंधों का अक्षुण्ण बने रहना और साथ ही पाकिस्तान-बांग्लादेश के बीच एक असामान्य घनिष्ठता - आखिरकार, एक समय वे एक ही मुल्क का हिस्सा थे, जब तक कि 1971 में उनकी दुनिया बदल नहीं गई और एक नए राष्ट्र का जन्म नहीं हुआ।
अब दुनिया फिर से बदल रही है। यह स्पष्ट है कि बांग्लादेश की प्रभारी अब आईएसआई होगी। मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस एक ऐसा मुखौटा साबित हुए हैं, जिसने ‘रक्षक’ वाली अपनी भूमिका बखूबी निभाई है - इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका अगला कदम क्या और कब होगा, एक बार फिर दक्षिण एशिया की राजनीतिक बिसात पर शुरू हुए नए महान खेल में नवीनतम दौर को पाकिस्तान ने जीत लिया है।
बांग्लादेश में भारत को भले ही कुछ धक्का लगा है –लेकिन एक तरह से यह अच्छा है कि वह अपने पुराने मित्र यानि शेख हसीना का साथ निभा रहा है। और चूंकि आईएसआई की ढाका में वापसी हो गई है, इसलिए आप इस पर शर्त लगा सकते हैं कि भारत के उत्तर-पूर्व को अस्थिर करने के प्रयास का इस क्षेत्र में नया खेल होगा। याद रहे कि मणिपुर लगभग दो वर्षों के बाद भी हिंसा की त्रासदी से जूझ रहा हैै, कि असम में भी स्थिति चिंताजनक है, कि मिजोरम को भी शांत नहीं कह सकते –यह भी कि बांग्लादेश बगल में है।
इसलिए गणतंत्र दिवस के दिन जब विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने बीजिंग के लिए उड़ान भरी- इस प्रतीकात्मकता की विवेचना किसी और दिन के लिए रखते हुए - तथ्य यह है कि हाल ही में रूस के कज़ान में मोदी-जिनपिंग गले मिले थे, जिसके पीछे निस्संदेह मध्यस्थता रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की रही, फलस्वरूप भारत और चीन, दोनों के लिए, लंबे समय से चले आ रहे अपने क्षेत्रीय विवादों पर बातचीत की शृंखला को फिर शुरू करना आसान हुआ।
यह एक अच्छी बात है। ‘लड़ाई-लड़ाई’ करने की तुलना में ‘बात-बात’ बेहतर है, खासकर जब आप भारत और चीन के बीच भारी सैन्य अंतर को ध्यान में रखें। इसलिए नई बनी सहमति ने भारतीय सैनिकों का उस इलाके में फिर से गश्त लगाना संभव बनाया है, जहां वे अप्रैल 2020 के बाद से जा नहीं पाए थे। हालांकि, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि ‘बफर जोन’ कहां है और क्या दोनों पक्ष अप्रैल 2020 से पहले वाले मोर्चों तक पीछे हटेंगे या नहीं।
इस बीच, यह भी अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ट्रंप के साथ जल्द से जल्द बैठक करना चाहते हैं –इससे वे अमेरिका-चीन के बीच पक रही नई खिचड़ी को समझ सकेंगे, जिसके पीछे मुख्य सूत्रधार एलन मस्क हैं। जाहिर है ट्रंप और मस्क दोनों ही अत्यधिक व्यापार असमानता को फिर से संतुलित करना चाहेंगे, जो वर्तमान में चीन के पक्ष में है, लेकिन उन्हें ‘दुश्मन’ से बात करने में कोई हिचक नहीं है।
पुतिन भी वर्तमान में यही कर रहे हैं - घेराबंदी, पैंतरेबाजी, दो-दो हाथ करना। वे कह रहे हैः आइए बात करते हैं, आखिर आप चाहते क्या हैं? पिछले दो वर्षों से पुतिन भले ही यूक्रेन में अपने से रोटी-बेटी का रिश्ता रखने वालों पर कहर बरपा रहे हैं, फिर भी यह स्पष्ट है कि उन्होंने बाइडेन के उत्तराधिकारी के साथ बातचीत के लिए तैयारी कर रखी है।
भारत के साथ समस्या यह है कि वह बड़े देशों के खेल के बीच भावनाओं को आड़े आने देता है। ट्रंप, पुतिन और जिनपिंग की निस्बत - जो अपने ‘दुश्मनों’ से भी बातचीत करने के लिए सदा तैयार रहते हैं - क्योंकि राजनीति का पहला नियम है : जितना अपने दोस्तों को करीब रखें...उससे ज्यादा पास अपने दुश्मनों को । अलबत्ता प्रधानमंत्री मोदी कई कारणों से पाकिस्तान से बात करना करना नहीं चाहेंगे। सीमा पार आतंकवाद, या कुछ और?
लेकिन फिर एक खबर यह भी है कि दिल्ली नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली से खुश नहीं है क्योंकि उन्होंने दिल्ली आने के बजाय पहले बीजिंग की यात्रा करने की हिमाकत की और इसलिए ओली की दिल्ली आमद हमेशा के लिए स्थगित कर दी गई। यह अलग बात है कि पाकिस्तान और नेपाल, दोनों से मनमुटाव का मुख्य लाभार्थी चीन है - इसलिए रहस्यमय सवाल यह है कि भारत भले ही इनकी सरकारों से सहमत न हो लेकिन इन देशों के आम नागरिकों को दंडित क्यों कर रहा है?
कभी सोचिएगा कि अविश्वसनीय रूप से विविधता से भरपूर, वह प्राचीन राष्ट्र जिसने सदा अपनी लय कायम रखी है, उसे महानता हासिल करने में क्या आड़े आ रहा है? माघ के इस महीने में, जवाब मिल सकते हैं, बस आपको यह पता होना चाहिए है कि उन्हें खोजना कहां है।
लेखिका ‘द ट्रिब्यून’ की प्रधान संपादक हैं।