विश्वनाथ सचदेव
पहले गुजरात, फिर पंजाब और फिर उत्तर प्रदेश, तीनों राज्यों में पिछले दिनों ऐसे राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं, जिन्हें कुछ ही महीनों बाद होने वाले चुनावों की दृष्टि से महत्वपूर्ण समझा जा रहा है। गुजरात में भाजपा सरकार सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर रही है जहां मुख्यमंत्री समेत सारे मंत्रिमंडल को बदल दिया गया है। बदलाव का आधार वोटों के जातीय समीकरणों को बताया जा रहा है और इस बदलाव के जिम्मेदार लोग चाहते हैं कि मतदाता तक यह संदेश जाये कि सत्तारूढ़ दल उसकी जातीय भावनाओं के प्रति संवेदनशील है। पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। वहां भी चुनाव की दृष्टि से जातीय समीकरण साधे गये हैं और राज्य में पहली बार किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाया गया है। मंत्रिमंडल के चयन में भी इस बात का ध्यान रखा गया है कि निचली जाति वालों को यह लगे कि कांग्रेस पार्टी उनके हितों के प्रति संवेदनशील है।
संवेदनशीलता का ऐसा ही दिखावा उत्तर प्रदेश में योगी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने भी करना ज़रूरी समझा है। इन तीनों राज्यों में इस उलटफेर का क्या परिणाम निकलता है, यह तो आने वाले चुनावों के नतीजों से ही पता चलेगा, पर इस कवायद से यह तो पता चल ही गया है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां यह मानकर चल रही हैं कि देश का मतदाता राजनीतिक दलों की इस चाल का आसानी से शिकार बन जायेगा। मज़े की बात यह है कि यह बीमारी सिर्फ इन दो बड़े दलों तक ही सीमित नहीं है। देश के लगभग सभी दल जातीयता के लालच में लिप्त दिखाई दे रहे हैं। राजनीति में जातीयता की पूरी बिसात बिछाने के बावजूद केंद्र की भाजपा सरकार देश की जातीय जनगणना के पक्ष में नहीं है।
यह सही है कि समता, न्याय और बंधुता के घोषित आधारों वाले हमारे संविधान में जाति के आधार पर किसी को ऊंचा या नीचा समझना एक अपराध माना गया है, पर दुर्भाग्य यह भी है कि राजनीतिक दल तो चुनावी लाभ के लिए इस भेदभाव का सहारा ले ही रहे हैं, वहीं यह जातिगत वर्गीकरण हमारी सामाजिक सोच में भी दीमक की तरह अपनी जगह बनाये हुए है।
उत्तर प्रदेश की हाल ही की घटना है। मैनपुरी जिले के एक गांव दीमापुर में सरकारी स्कूल में तथाकथित अगड़ी और पिछड़ी जातियां आमने-सामने खड़ी हैं। स्कूल में विद्यार्थियों को दिये जाने वाले भोजन के लिए अगड़ों और पिछड़ों के लिए अलग-अलग बर्तन हैं। यह बर्तन न केवल अलग रखे जाते हैं, बल्कि पिछड़ी जाति के छात्र-छात्राओं को अपने बर्तन साफ भी खुद ही करने पड़ते हैं। गांव के कुछ लोग इस स्थिति को नहीं सह पाये। आवाज़ उठी। स्कूल की अगड़ी जाति वाली मुख्य अध्यापिका को निलंबित कर दिया गया। होना तो यह चाहिए था कि सामाजिक समता की दिशा में उठाये गये इस कदम के बाद स्थिति सुधर जाती, पर ऐसा हुआ नहीं। विवाद बढ़ गया। मुख्य अध्यापिका के निलंबन के विरोध में गांव के अगड़ी जाति वाले उठ खड़े हुए। उन्होंने घोषणा कर दी कि जब तक निलंबन का यह आदेश वापस नहीं लिया जाता, अलग-अलग बर्तन वाली व्यवस्था फिर से लागू नहीं होती, वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे!
और यह स्थिति आज़ादी पा लेने के 75 साल बाद की है। यह एक हकीकत है कि आज़ादी की लड़ाई देश ने एक होकर लड़ी थी। फिर हमने अपना संविधान बनाया जो देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है। पर यह विडंबना ही है कि आये दिन दीमापुर गांव जैसी घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में घटती रहती हैं।
यह सही है कि शहरों में स्थिति कुछ बेहतर दिखती है, पर इस हकीकत को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि हमारा समाज अभी भी जातीयता के जाल में फंसा हुआ है। हम तो वसुदेव कुटुम्बकम की दुहाई भी देते हैं। जब सारी धरती एक कुटुम्ब है तो अगड़ी और पिछड़ी का क्या अर्थ रह जाता है?
हमारी विडंबना यह है कि पीछे रह जाने वालों के पीछे रहने में ही हमें अपना लाभ दिखाई देता है। समानता के मार्ग पर इन 75 सालों में हम बहुत आगे बढ़ गये होते, पर हमारे सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व को किसी के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की आदत पड़ गई है। लाभ नहीं, इसे ग़लत लाभ कहा जाना चाहिए। इस प्रवृत्ति के चलते प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री यह घोषणा करने में शर्म महसूस नहीं करते कि उनके मंत्रिमंडल में कितने सदस्य पिछड़ी जातियों के हैं। राजनेताओं को इस प्रक्रिया में लाभ मिलने की आशा का सीधा-सा मतलब यह भी है कि वे मतदाता को बरगलाने में सफल होते हैं। यह देश के जागरूक और विवेकशील मतदाताओं को तय करना है कि वह राजनेताओं के धोखे में नहीं आयेंगे। पिछड़ों को अवसर मिलना चाहिए, यह उनका अधिकार है, पर यदि किसी को यह लगता है कि यह अधिकार देने की दुहाई देकर वह उपकार कर रहा है तो यह शर्म की बात है। यह बात हमारे नेताओं को भी समझनी है और हमें भी।