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अनंत संभावनाओं के द्वार खोलेगा चंद्रयान

डॉ. संजय वर्मा चांदी-सी चमक बिखेरने वाले चंद्रमा को छूने की हसरत हम इंसानों में सदियों से रही है। विज्ञान और अंतरिक्ष संबंधी जानकारियों ने इन आकांक्षाओं को तब नए पंख दिए, जब पता चला कि स्पेस की चारदीवारी पार...

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डॉ. संजय वर्मा

चांदी-सी चमक बिखेरने वाले चंद्रमा को छूने की हसरत हम इंसानों में सदियों से रही है। विज्ञान और अंतरिक्ष संबंधी जानकारियों ने इन आकांक्षाओं को तब नए पंख दिए, जब पता चला कि स्पेस की चारदीवारी पार कर चंद्रमा को छुआ जा सकता है। उस तक यान पहुंचाए जा सकते हैं, उसकी जमीन पर इंसानों को उतारा जा सकता है। पर ये दोनों लक्ष्य आज से करीब साढ़े पांच दशक पहले ही हासिल किए जा चुके थे। अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा के अंतरिक्ष यात्रियों ने 20 जुलाई, 1969 से चंद्रमा पर उतरने का जो सिलसिला शुरू किया था, वह सफल छह अपोलो अभियानों में कुल 12 यात्रियों को चंद्रमा पर उतारने के साथ खत्म हो गया था। तब दुनिया में चंद्रमा के बारे में कुछ और जानने या उस पर वैज्ञानिकों या यात्रियों को दोबारा उतारने जैसी कोई हसरत नहीं बची थी। लेकिन इक्कीसवीं सदी लगते ही दुनिया में चंद्र-होड़ का नया सिलसिला शुरू हो गया। इसका एक श्रेय भारत को दिया जा सकता है। पहली बार ऐसा तब हुआ, जब अक्तूबर 2008 को प्रक्षेपित उसके चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की कक्षा में पहुंचने के बाद ऐसे कई प्रेक्षण दिए जिनसे दुनिया में चांद को फिर पाने-छूने की ललक जग गई। दूसरी बार अब, जबकि भारतीय स्पेस एजेंसी- इसरो का नया मून मिशन चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरा। यह बेशक एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन इसके साथ ही अब यह सवाल फिर उठ रहा है कि क्या वाकई हम चांद से कुछ नया हासिल करने जा रहे हैं।

हाल के वर्षों में भारत ही नहीं, पड़ोसी चीन, जापान, इस्राइल समेत कई देश चंद्रमा के लिए या तो अपने मिशन भेज चुके हैं या ऐसा करने की तैयारी में हैं। सबसे उल्लेखनीय तो अमेरिकी स्पेस एजेंसी- नासा की योजनाएं हैं। नासा एक बार फिर इंसानों को चांद पर उतारने का अपना अभियान शुरू कर चुकी है। वर्ष 2024 या 2025 में उसके तीन यात्री चंद्रमा की सतह पर उतर सकते हैं। इधर, अमेरिका के चिर प्रतिद्वंद्वी रहे रूस ने भी अपना यान लूना-25 चंद्रमा के उसी दक्षिणी ध्रुव वाले इलाके में उतारने की कोशिश की, जहां चंद्रयान-3 ने कदम रखे हैं। 1976 के 47 साल बाद रूस ने चंद्रमा पर अपना स्पेसक्राफ्ट उतारने की यह नई कोशिश की थी। इसके सहारे वह साबित करना चाहता था कि यूक्रेन से सतत जारी जंग के बावजूद वह कहीं से भी कमजोर नहीं हुआ है। लेकिन इसे रूस की बदकिस्मती कहेंगे कि वह अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को कोई सकारात्मक संदेश देने में विफल रहा। 20 अगस्त, 2023 को उसका यान चंद्रमा पर उतरने की कोशिश में नाकाम होकर क्रैश हो गया। हालांकि, भारत या कहें कि इसरो की बात है तो इसकी चंद्रमा संबंधी योजनाओं को भी एक झटका वर्ष 2019 में लग चुका है। सितंबर, 2019 में भेजे गए चंद्रयान-2 के लैंडर ‘विक्रम’ और रोवर ‘प्रज्ञान’ की चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग नहीं हो पाई थी। इस कारण वह मिशन नाकाम हो गया। लेकिन इससे भारत के हौसले पस्त नहीं हुए। जो मकसद चंद्रयान-2 के थे, उनसे आगे बढ़कर चंद्रयान-3 को बेहद सस्ते में तैयार कर लॉन्च किया गया। अब इसकी कामयाब लैंडिंग के बाद उम्मीद है कि यह मिशन चंद्रयान-2 के अधूरे कार्यों को पूरा करेगा। इससे चंद्रमा संबंधी उन अनुसंधानों व योजनाओं को गति मिलेगी, जिन्हें लेकर पृथ्वी का सबसे नजदीकी खगोलीय पिंड विश्व बिरादरी के आकर्षण का नया केंद्र बना हुआ है।

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पर बीते पांच दशकों में ऐसा क्या हुआ है जो चंद्रमा पर दुनिया का फोकस बढ़ गया है। असल में, दुनिया के वैज्ञानिकों की नजर अब चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर है। वैज्ञानिकों का मानना है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर हमेशा अंधेरे में दिखने वाले इसके क्रेटर्स (गड्ढों) में पानी जमा हो सकता है। इस पानी का इस्तेमाल भविष्य में रॉकेट ईंधन के रूप में किया जा सकता है। माना जा रहा है कि चंद्रमा के इस हिस्से में मिलने वाला पानी सौरमंडल के विभिन्न हिस्सों में भेजे जाने वाले अभियानों के रॉकेटों के लिए ईंधन उपलब्ध कराने का जरिया बन सकता है। नासा का आकलन है कि चंद्रमा पर 60 करोड़ टन पानी जमी हुई बर्फ के रूप में मौजूद है। चंद्रमा पर मौजूद पानी को विघटित करके उससे मिलने वाली हाइड्रोजन का इस्तेमाल दूसरे ग्रहों को जाने वाले रॉकेटों के ईंधन के रूप में किया जा सकता है। पानी से बना रॉकेट फ्यूल तब ज्यादा काम आ सकता है, जब सुदूर अंतरिक्ष यात्राओं के लिए चंद्रमा को एक पड़ाव की तरह इस्तेमाल किया जाने लगेगा। पृथ्वी से प्रक्षेपित होने वाले रॉकेटों की अधिकतम ऊर्जा इस ग्रह के वायुमंडल और गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने में ही खर्च हो जाती है। ऐसी स्थिति में चंद्रमा के रिफ्यूलिंग स्टेशन अंतरिक्ष यानों के रॉकेटों को सौरमंडल के ही दूसरे ग्रहों तक पहुंचाने लायक ईंधन दे सके तो करिश्मा अंतरिक्ष के अब तक के प्रेक्षणों को बदलने का चमत्कार कर सकता है। भारत के चंद्रयान समेत अन्य मिशनों से वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि चंद्रमा की सतह के अंदर पानी के विशाल भंडार हैं। खास तौर पर उसके दक्षिणी ध्रुव में, जहां नासा की योजना अपने नए मून मिशन के तीसरे चरण में आर्टेमिस-3 के यान को उतारने की है। इसके अलावा चंद्रमा के कई अन्य आकर्षण भी हैं। जैसे पृथ्वी के इस इकलौते प्राकृतिक उपग्रह पर कई ऐसे दुर्लभ खनिज (रेयर अर्थ) हैं, जिनका इस्तेमाल पृथ्वी पर काफी तेजी से बढ़ा है। चंद्रमा पर हीलियम का विशाल भंडार है। इसका दोहन पृथ्वी की ऊर्जा जरूरतों के मद्देनजर किया जा सकता है।

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जहां तक भारत की चंद्रमा संबंधी उपलब्धियों का सवाल है तो हमारे देश ने चंद्रयान मिशन की शुरुआत वर्ष 2008 में की थी। भारतीय अंतरिक्ष संगठन- इसरो ने 22 अक्तूबर, 2008 को जब अपना चंद्रयान-1 रवाना किया था, तो सिवाय इसके उस मिशन से कोई उम्मीद नहीं थी कि यह मिशन अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदमों का सबूत देगा। लेकिन अपने अन्वेषण के आधार पर सितंबर, 2009 में जब चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर पानी होने के सबूत दिए तो दुनिया में हलचल मच गई। चंद्रयान-1 से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचाए गए उपकरण मून इंपैक्ट प्रोब ने चांद की सतह पर पानी को चट्टान और धूलकणों में वाष्प यानी भाप के रूप में उपलब्ध पाया था। चंद्रमा की ये चट्टानें दस लाख वर्ष से भी ज्यादा पुरानी बताई जाती हैं। यही वजह है कि आज दुनिया के कई देश चांद को पा लेना चाहते हैं।

यूं तो चंद्रमा को मंगल ग्रह और सुदूर ब्रह्मांड की खोज के अभियानों के एक पड़ाव के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन इसके अलावा भी चांद कई उपयोगिताओं के संदर्भ में फायदेमंद माना जा रहा है। हालांकि ये अभियान बहुत महंगे हो सकते हैं, इसलिए चंद्रमा से बहुत कुछ खोज लेने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं ताकि मून मिशनों के औचित्य को सही ठहराया जा सके। गौरतलब है कि वर्ष 1969 से 1972 के बीच नासा द्वारा संचालित अपोलो अभियानों का कुल खर्च एक संस्था प्लैनेटरी सोसायटी के मुताबिक आज की तारीख में 280 अरब डॉलर ठहरता है। यह खर्च दुनिया के सभी राष्ट्रों की सम्मिलित सकल विकास दर (जीडीपी) का 78 फीसदी है। ऐसे में हर नया चंद्र अभियान खर्च को लेकर आलोचनाओं के केंद्र में रहा है। लेकिन इसरो ने अत्यधिक किफायती तरीकों से जिस प्रकार चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचाया है, उसके मद्देनजर कहा जा सकता है कि हमारा चंद्रयान चांदी से चमकते अंतरिक्षीय पिंड यानी चांद को उन संभावनाओं की जमीन में बदल सकता है जिनके बल पर भावी अंतरिक्ष अभियानों की ठोस रूपरेखा तैयार होगी। चंद्रमा- जो एक विश्व धरोहर है, तब सही मायने में मानवता का विकास का केंद्र बन सकेगा।

लेखक बेनेट यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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