Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

खाद्यान्न संकट के बीच कुपोषण की चुनौती

सुबीर रॉय नवीनतम वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत को 111वें स्थान पर रखा गया है, यह जगह 125 मुल्कों में न केवल सबसे निचले पायदानों की है बल्कि हम पड़ोस के बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान से भी पिछड़े हुए...
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement
सुबीर रॉय

नवीनतम वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत को 111वें स्थान पर रखा गया है, यह जगह 125 मुल्कों में न केवल सबसे निचले पायदानों की है बल्कि हम पड़ोस के बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान से भी पिछड़े हुए हैं। उम्मीद के मुताबिक भारत सरकार की ओर से खंडन आना ही था। भारत ने इस सूचकांक को नकारते हुए कहा है भुखमरी पैमाना के इस ढंग में प्रणालीगत खामियां हैं। यहां तक कि एक कदम आगे जाकर इसको वह हरकत ठहराया है, जिसमें ‘बदनाम करने का इरादा’ झलकता है।

यह सूचकांक वेल्ट हंगर हाइफे (डब्ल्यूएचएच) और कंसर्न वर्ल्डवाईड नामक दो नामचीन संस्थानों द्वारा बनाया जाता है। यह भांपते हुए पिछले सूचकांकों की भांति भारत इस बार भी आकलन पर एतराज करेगा, दोनों संस्थाओं ने भारत सरकार से बात करने के बाद और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा उपलब्ध डाटा को शामिल करते हुए यह सूचकांक जारी किया है।

Advertisement

असल में, यह सूचकांक समूची वैश्विक व्यवस्था के लिए बुरी खबर बता रहा है। वैश्विक भुखमरी का आंकड़ा बहुत ऊंचे स्तर पर बना हुआ है और इसको नीचे लाने पर प्रगति पिछले सालों में ठहरी-सी है। वर्ष 2008 और 2015 के आंकड़ों में उभार (जो कि वास्तव में स्थिति और बिगड़ने का द्योतक है) अपने से पिछले साल के मुकाबले चार बिंदु अधिक रहा, वहीं 2023 का नवीतनम आंकड़ा 2015 से एक बिंदु कम है। साथ ही, कुपोषण की रेखा भी असल में ऊपर उठी है।

वैश्विक और राष्ट्रीय सूचकांक की गणना करने में चार संकेतक इस्तेमाल किए जाते हैं– कुपोषण (नाकाफी कैलोरी ग्राह्यता), लंबाई में आशातीत वृद्धि न होना (उम्र के अनुसार कम लंबाई), कम भार (लंबाई के मुताबिक कम भार) और शिशु-मृत्यु दर (पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत)। वर्तमान लेखा-जोखा बताता है कि वर्ष 2030 तक विकास ध्येय पाने की पूर्ति में उपरोक्त चारों संकेतक आशान्वित नहीं करते। 2030 तक शून्य भुखमरी ध्येय पाने की दिशा में, 58 राष्ट्र यानी कि नवीनतम सूची में शामिल लगभग आधे देश, शून्य का आंकड़ा पाना तो दूर की बात है, न्यूनतम-भुखमरी स्तर की प्राप्ति भी नहीं कर पाएंगे।

वर्ष 2015 से 2023 के बीच बनी इस अधोगति का अध्ययन दो कारण बताता है। पहले कोविड-19 महामारी का आना और उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध, जिससे खाद्य कीमतों में बहुत ऊंचा उछाल आया। कुछ गरीब मुल्कों में तो लोग एक वक्त के भोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। छोटे स्तर में ही सही, गैर-बासमती चावल के निर्यात पर रोक लगाकर भारत ने भी अंतर्राष्ट्रीय खाद्य तंगी और उच्च मूल्य बनाने में भूमिका निभाई है क्योंकि सबसे बड़े चावल निर्यातकों में भारत एक है।

चिंताजनक यह है कि वैश्विक खाद्य स्थिति में सुधार होने की संभावना नहीं दिख रही। अतिशयी मौसमीय मार (जो कि पर्यावरणीय बदलावों का नतीजा है) लगातार बढ़ने लगी है और जिससे बनी बाढ़ या सूखे खाद्यान्न उत्पादन पर असर डालते हैं। इसके साथ ही, यदि इस्राइल-हमास लड़ाई में आसपास के मुल्क भी कूद पड़े तो इससे खाद्यान्न आपूर्ति में आगे अनिश्चितता बनेगी और कीमतें और ऊपर उठेंगी। सूचकांक में प्रयुक्त हुए चार संकेतकों में तीन में भारत और पड़ोसी देश सबसे खराब श्रेणी में नहीं आते अर्थात‍् उम्र-बनाम-लंबाई, कुपोषण और शिशु-मृत्यु दर में। लेकिन भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश लंबाई-बनाम-भार श्रेणी में सबसे अधिक प्रभावित वर्ग में है। इन तीनों में, भारत का आंकड़ा सबसे अधिक 18.7 फीसदी होने के कारण स्थिति सबसे खराब है, तो श्रीलंका (13.1 प्रतिशत) और बांग्लादेश 11 फीसदी स्कोर के साथ सबसे ऊपर है। यह दृश्यावली उस बृहद हकीकत से भी बंधी है, जिसमें बांग्लादेश कहीं ज्यादा गरीब होने के बावजूद मानव विकास संकेतकों में भारत से ऊपर स्थान पर है।

सूचकांक रिपोर्ट में नीतियों में सुधार के वास्ते कई सिफारिशें सुझायी गई हैं। कहा गया है कि खाद्य व्यवस्था में बदलाव करने में ‘भोजन का अधिकार’ को प्रक्रिया का आधार बनाया जाए। इस खाद्य व्यवस्था की रूपांतरण प्रक्रिया में युवाओं की क्षमताओं पर निवेश किया जाए। सततापूर्ण, न्यायसंगत और लचीली खाद्य व्यवस्था में निवेश करके सुनिश्चित किया जाए कि वे युवा जनसंख्या को व्यवहार्य और आकर्षक कमाई करने का मौका मिल पाए। भारत सरकार के लिए इसका मतलब है, ‘भोजन का अधिकार’ बनाना, जो भले ही संविधान में लिखित रूप में न हो परंतु ‘शिक्षा का अधिकार’ की भांति सबकी एक वास्तविक जरूरत है। जिस तरह ‘शिक्षा का अधिकार’ कार्यक्रम पर क्रियान्वयन हुआ है, लगता है चाहे ‘अधिकार’ शब्द से यह जरूरत कानूनन रूप से पाने की राह खुलती हो, पर जब तक इस पर अमल अर्थपूर्ण न हो पाएगा तब तक यह न्यायसंगत नहीं बन पाएगी। इसके अतिरिक्त, कोई वजह नहीं कि अपने ज्यादा अनुभवों के साथ बड़े-बुजुर्ग खाद्य व्यवस्था में रूपांतरण के लिए बढ़िया योगदान न कर पाएं।

वैश्विक भुखमरी सूचकांक पर भारत के एतराजों के पीछे कई कारण हैं। कुपोषण का डाटा, जो कि सूचकांक का मुख्य अवयव है, वह गैलप वर्ल्ड पोल की खोज पर आधारित है, जिसका सर्वेक्षण केवल 3000 लोगों पर आधारित है। इस रिपोर्ट में भारत में उम्र-बनाम-लंबाई और लंबाई-बनाम-भार में असमानता दर बहुत अधिक बताई गई है। यह डाटा राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे (2019-21) से लिया गया है। भारत सरकार का एतराज यह भी है कि सूचकांक बनाते वक्त वास्तविक समय आधारित ‘पोषण ट्रैकर’ डाटा को गिना जाना चाहिए था। भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन के बहु-केंद्रीय विकास संदर्भ अध्ययन का डाटा इस्तेमाल करने पर भी सवाल उठाती है, जिसने उम्र-बनाम-लंबाई और लंबाई-बनाम-भार का जमीनी सर्वे भारत में 1997-2003 में किया था, जो कि अब पुराना पड़ चुका है। एक एतराज यह भी है कि अध्ययन में दक्षिण भारत के अमीर बच्चों का ही डाटा लिया गया है जो कि पूरे देश के बच्चों की स्थिति का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करते।

बेशक वैश्विक सूचकांक को खारिज करना आसान है लेकिन भारत के लिए आगे की राह है क्या? वर्तमान में काफी सब्सिडी देकर सस्ती दर पर खाद्य उपलब्धतता नीति, सबको स्वच्छ पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित ध्येय, और खुले में शौच रोककर स्वच्छता बनाने के कार्यक्रम जारी हैं। शिशु मृत्यु दर में कमी लाने में इनकी भी भूमिका है। साथ ही, ग्रामीण जनसंख्या को भुखमरी से बचाने के मकसद से चलाई जा रही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम को विस्तार देकर, इसमें सकल ग्रामीण गरीबों को भी शामिल करना चाहिए।

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर, अनेक राज्य सरकारें ‘मुफ्त की रेवड़ियां’ देने का वादा कर रही हैं, जिसको वित्तीय रूप से गैर-जिम्मेवाराना ठहराकर समीक्षक आलोचना किया करते हैं, लेकिन गरीबी और भुखमरी को दूर रखने में इनकी भी भूमिका है।

सूचकांक में प्रयुक्त शब्द ‘भुखमरी’ हो सकता है यथेष्ट संज्ञा न हो, लेकिन इसमें शक कम ही है कि जरूरतमंद बच्चों में कुपोषण से निपटने को बनाई गई आंगनवाड़ी व्यवस्था नाकाफी होने से पौष्टिकता की कमी व्यापक रूप से बनी हुई है। नीति-निर्माताओं को सूचकांकों से परे जाकर देखने और इन मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है।

लेखक वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक हैं।

Advertisement
×