उमेश चतुर्वेदी
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की दसवीं की परीक्षा रद्द हो गई है। इसके साथ ही बोर्ड की बारहवीं की परीक्षा टाल दी है। उ.प्र. के माध्यमिक शिक्षा परिषद ने कोई परीक्षा रद्द नहीं की, अलबत्ता उन्हें टाल दिया है। कोरोना की भयावहता के बीच हुए इस फैसले से अभिभावक राहत तो महसूस कर रहे हैं, लेकिन वे इससे दुखी भी हैं। दुखी होने की वजह है मौजूदा कंपटीशन आधारित व्यवस्था में दसवीं की परीक्षा का महत्व, जिसके अनुभव से बच्चों की एक बड़ी जमात वंचित हो गई है। प्रोफेशनल जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए हमने जिन मूल्यों को स्वीकार किया है, उसमें दसवीं की परीक्षा भावी चुनौतियों से जूझने की बुनियाद है। कह सकते हैं कि दसवीं की परीक्षा जिंदगी रूपी जहाज का मस्तूल है, जिससे तय होता है कि भावी जिंदगी किस दिशा में आगे बढ़ेगी।
कोरोना के दौर में दसवीं की परीक्षा टालने की मांग अभिभावकों की तरफ से नहीं आई। बेशक दसवीं की परीक्षा रद्द कर दी गई, लेकिन इसकी मांग दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की तरफ से आई। इसके बाद तमाम राजनीतिक दल मुखर होने लगे। कोरोना के दौर में अभिभावक नहीं चाहते कि उनके बच्चों की सेहत से कोई खिलवाड़ हो। इसीलिए वे बच्चों के स्कूल जाने के विरोधी रहे। लेकिन उन्होंने परीक्षाओं का कभी विरोध नहीं किया। वे अभिभावक तो इससे खासे निराश हैं, जिन्हें उम्मीद थी कि नंबर वाली व्यवस्था में उनका बच्चा मेरिट में जगह बना सकता है। बेशक वे ऑफ लाइन की बजाय ऑन लाइन परीक्षा के समर्थन में रहे।
पिछले एक साल में स्कूलों ने ऑफ लाइन परीक्षाएं खूब ली हैं। जब फरवरी में कोरोना के मामले रोजाना पंद्रह हजार से भी कम हो गए थे तो दिल्ली के कई स्कूलों ने दसवीं और बारहवीं को छोड़ बाकी कक्षाओं की ऑफ लाइन परीक्षाएं ली थीं। उनके अध्यापकों को शक था कि ऑन लाइन परीक्षाओं के जरिए बच्चों ने अपना बेहतरीन प्रस्तुत नहीं किया और कई बार तो उन्होंने इंटरनेट के जरिए हेराफेरी की। कुछ अध्यापकों की नजर में ऑन लाइन परीक्षा कुछ-कुछ किताब रखकर लिखने वाली परीक्षा जैसे रही। इसलिए फरवरी में तो तमाम विद्यालयों ने अपने बच्चों और उनके अभिभावकों पर ऑफ लाइन परीक्षा के लिए दबाव बनाया और परीक्षाओं को सफलतापूर्वक पूरा भी किया।
सीबीएसई की दसवीं के छात्रों को इस बार आंतरिक मूल्यांकन के आधार पर नंबर दिए जाएंगे। इस प्रक्रिया में वे बच्चे पिछड़ सकते हैं, जो फाइनल परीक्षा में बेहतर नंबरों के लिए मेहनत कर रहे थे। दसवीं की परीक्षा की तैयारी के लिए कई बार छात्र नौंवी की पढ़ाई में वैसी गंभीरता नहीं दिखाते। परीक्षा टालने के फैसले से ऐसे छात्र निराश हो सकते हैं। यहां ध्यान देने की बात है कि आंतरिक मूल्यांकन में कई आग्रह भी काम करते हैं। कई छात्र ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने अध्यापकों से भेदभाव का सामना करना पड़ता है। कुछ जगह इसके लिए नंबर दे सकने वाले अध्यापक से ट्यूशन न ले पाने का पूर्वाग्रह काम करता है तो कई बार छात्र का कमजोर बैकग्राउंड का होना। आंतरिक मूल्यांकन में कई बार नापसंद आने वाले छात्र इसीलिए पिछड़ जाते हैं। आज के दौर में वशिष्ठ जैसे गुरु की कल्पना करना भी बेमानी है, जो हर शिष्य का मूल्यांकन उसकी क्षमता, योग्यता और मेहनत के आधार पर कर सके। यही वजह है कि आंतरिक मूल्यांकन में पूर्वाग्रह का शिकार बच्चा न हो सके, इसके लिए कई बड़े स्कूलों के अध्यापकों से बच्चों के माता-पिता बेहतर संबंध बनाकर रखते हैं। चूंकि बोर्ड की परीक्षाओं में छात्र की प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं होती, लिहाजा वहां मूल्यांकन उसके द्वारा दिए गए जवाबों पर ही होता है। बोर्ड परीक्षा में छात्र का चेहरा उसकी मेहनत और उसका ज्ञान ही होता है। इसीलिए बोर्ड परीक्षाएं कुछ किंतु-परंतुओं के बावजूद पवित्रता का पर्याय बनी हुई हैं। 1971 में ए.ई.टी. बैरो की अगुआई में दुनिया के जाने-माने शिक्षाविदों ने परीक्षाओं के मूल्यांकन के लिए जिस सांख्यिकी पद्धति के उपयोग की जोरदार वकालत की थी, तकरीबन उन्हीं पर मौजूदा परीक्षा प्रणाली चल रही है।
पवित्र परीक्षा न होने की वजह से बच्चों का पढ़ाई का स्तर भी प्रभावित होता है। इसका उदाहरण है, आठवीं तक के बच्चों को फेल न करने का नियम। वर्ष 2015 में हुए शिक्षामंत्रियों की बैठक में इस व्यवस्था पर सवाल उठ चुका है। शिक्षा शास्त्री इस बात से सहमत हैं कि इस नियम से बच्चों की पढ़ाई के स्तर में भारी गिरावट आई है। उनके सीखने की प्रक्रिया पर असर पड़ा है। माना जाता है कि जैसे ही बच्चे को पता चल जाता है कि वह पढ़े या न पढ़े, पास हो ही जाएगा। वह गंभीरता से पढ़ाई में ध्यान नहीं लगा पाता। ऐसा ही असर उ.प्र. के बच्चों पर भी 1994 से दिखना शुरू हुआ, जब तत्कालीन सरकार ने बोर्ड परीक्षा में एक तरह से नकल की छूट दे दी। उस दौर में शैक्षिक स्तर में जो गिरावट शुरू हुई, उसकी भरपाई उस दौर के प्रतिभाशाली छात्र अब तक नहीं कर पाए हैं।
‘पढ़ाई नहीं तो परीक्षा नहीं’ का तर्क स्वीकार करने और उसे परंपरा बनाने की जगह परीक्षा की पवित्रता को बचाए रखने पर जोर दिया जाना चाहिए। इस पर फोकस किया जाना चाहिए कि भविष्य में फिर कभी कोरोना जैसी महामारी आ जाए तो उस दौरान संतुलित पढ़ाई और परीक्षाओं का मेल कैसे बैठाया जा सकता है।
बहरहाल, कोरोना जैसे माहौल में ऐसे विकल्पों पर सोचना होगा, जिससे परीक्षाओं को टालने की नौबत ही न आए। इसके लिए उन्हें संचार तकनीक से जुड़ी प्रणाली विकसित करनी होगी।