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मगर ताउम्र न आई बिकने की कला

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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डॉ. हेमंत कुमार पारीक

इस वक्त हर कोई बाज़ार में खड़ा है। कोई बिकने के लिए है तो कोई खरीदने के लिए। कहीं विक्रेता है तो कहीं क्रेता। अर्थात‍् सब कुछ बाज़ार के कब्जे में है। इसलिए बाजार फैलते जा रहे हैं। गली, कूचे, सड़क, चौराहे और पूछिए मत, अब तो घर-आंगन तक आ गए हैं। घर घर ही न रहे नीचे पान की दुकान ऊपर गोरी का मकान वाली उक्ति सही सिद्ध हो रही है। सो माहौल रसिक हो रहा है। और मजे की बात तो यह है कि आजकल जो मजा सब्जी-भाजी में है वह सोने और सुहागे में भी नहीं। आदमी को तो रोकड़ा चाहिए। हम जैसे मूढ़ जो आम आदमी की श्रेणी में आते हैं, समझ ही नहीं पा रहे कि बिकने में ही सब कुछ धरा है। जेब से निकाल-निकाल कर देते जाते हैं और जब जेब खाली हो जाती है तो बाजार में टूंगते फिरते हैं। पता नहीं कि दुनियाभर का सार जेब में ही है। जिसने जेब की हकीकत समझ ली वो भवसागर पार हो गया।

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अब देख लो, इस वक्त सबसे बड़ा बाजार तो आईपीएल है। जो एक बार इस बाजार में घुसा उसका चांदी, सोना, प्लैटिनम! कभी सोचा तक न था कि एक साधारण-सी गिल्ली कल बॉल का रूप धारण कर लेगी। खेलते तो थे मगर सोचते नहीं थे। विवाह की अंतिम रस्म में भी लड़की वालों से कुछ न मांगा। कम से कम एक चार पहिया गाड़ी ही मांग लेते। वह बिकने का प्राइम टाइम था। बाराती तो बोली लगा रहे थे पर अपन चुप थे। चुप्पी खल गयी। इसलिए अब क्रेताओं की लाइन लगे हैं खाली जेब। खाली जेब वालों को बाजार में कोई पूछता नहीं। जेबकतरे भी समझ लेते हैं और धक्का देकर आगे निकल जाते हैं।

पढ़-लिखकर नवाब बनने के फलसफे ने बर्बाद करके रख दिया। उस वक्त कोई पण्डित बता देता कि बच्चे आने वाला वक्त खेलने का है। लिहाजा अब कबाड़ की श्रेणी में हैं। और वह भी ताने मारती है, हाथ-पांव में दम नहीं, हम किसी से कम नहीं। हालत यह है कि दो कौड़ी के हैं। पढ़-लिखकर नवाब बनने की सोच ने गुड़-गोबर कर दिया। और देखिए एक नाचीज गिल्ली गली-कूचे से निकलकर बड़े-बड़ों की जेब में पहुंचते ही बॉल बन गयी। बिजनेस हो गई। अब उसका ही जलवा है। और देखिए हर कोई बिकने को तैयार लाइन में लगा है। लाइन लम्बी है। बोलियां लग रही हैं। पहले मैं, पहले मैं का शोर है। सुन-सुनकर हमारे कान फटे जा रहे हैं।

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