राकेश गांधी
चुनाव आते ही गरीबों के चेहरे कुछ समय के लिए प्रसन्नता से खिल उठते हैं, क्योंकि अंततोगत्वा पांच साल बाद उन्हें याद जरूर कर लिया जाता है। चुनाव के तत्काल बाद ये गरीब राजनीतिक दलों के नेताओं के मानस पटल से हट भी जाते हैं। याद आना अच्छी बात है, पर हैरानी इस बात की भी है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी आखिर गरीबी मिट क्यों नहीं रही..? क्यों राजनीतिक दलों ने ‘गरीबी हटाओ’ नारे को अपना स्थाई जुमला बना रखा है?
गरीबी तो हटती नहीं, पर साल-दर-साल गरीबों का गरीबी में ही जरूर नामोनिशां मिट जाता है। चुनावी समर चल रहा है। अभी तो इन ‘गरीबों’ की भी पौ बारह है। नेता रोज ही इनकी पूजा-अर्चना व भरपेट खाना पहुंचाने में व्यस्त चल रहे हैं। चुनाव से निपटते ही इन गरीबों को फिर से इन्हीं के हाल छोड़ दिया जाएगा। कुल मिलाकर मुफ्तखोरी की आदत डालकर इन गरीबों को गरीब ही बनाए रखने और सालो-साल इन पर राज करने का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
हाल ही में राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र जारी हुए हैं। जोर-शोर से आगामी पांच साल में गरीबों के भूखे पेट का उपचार करने की बात की जा रही है। इससे ज्यादा तो कुछ होगा भी नहीं। जब साढ़े सात दशक में भी नहीं हो पाया तो अब क्या उम्मीद की जा सकती है। केवल गरीबी हटाने ही नहीं, हर बार लाखों नौकरियां देने के वादे भी किए जाते रहे हैं। ये बात अलग है कि पांच साल बाद भी हालात जस के तस ही रहते हैं और फिर शुरू हो जाता है जुमलों का दौर। इससे भी दुःखद तो ये है कि आजादी के बाद से लोगों को पानी, बिजली, सड़क, उच्च शिक्षा व बेहतर चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएं जुटाने के भी वादे किए जाते रहे हैं।
इसके उलट आजादी के 77 साल बाद भी देश में ऐसे कई शहर व गांव मिल जाएंगे, जहां डामर की सड़क तो छोड़ो, अभी कच्ची सड़क तक नसीब नहीं हुई है। घटिया सीवरेज व्यवस्था के कारण बरसात के दिनों में शहरों में लोग कई-कई दिनों तक पानी से घिरे घरों में कैद रहते हैं। पीने को पर्याप्त पानी नहीं मिलता। कई गांवों में यातायात के साधन तक नहीं पहुंच पाए हैं। देश की सिलिकॉन सिटी बेंगलुरु जैसे प्रमुख शहर के लोग जब पेयजल संकट के भयानक हालात से जूझ रहे हैं तो दूरदराज के गांवों की क्या बात करें।
हां, पिछले कुछ सालों में सारे देश में हाई-वे जरूर बने हैं। लिंक रोड से लोगों का आवागमन सुगम हुआ है। पर इसमें भी गरीब तो अभी भी गरीब ही है। उसकी गरीबी का निवारण अभी तक भी नहीं हो पा रहा है। इसमें किसी एक राजनीतिक दल को दोष देने से कुछ होना भी नहीं है। देश में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। सालों-साल झूठे वादे करने वालों से बचने की जरूरत है। वैसे भी देश में किसी नागरिक को ‘गरीब’ कहना किसी गाली से कम नहीं है। गरीब का मतलब केवल निर्धन ही नहीं, बल्कि उन्हें जबरन दरिद्र, कंगाल, दीनहीन, बेचारा, लाचार जैसे शब्दों से नवाजना है। ऐसे में वे जरूरतमंद जरूर हो सकते हैं, पर ‘गरीब’ तो बिल्कुल नहीं।
हमें ये मान लेना चाहिए कि अब देश में जब तक आखिरी इंसान तक रोजगार, पर्याप्त पेयजल, बिजली, जरूरी चिकित्सा व शिक्षा के संसाधन नहीं पहुंच जाते, तब तक विकास की बात करना बेमानी होगी। हमें ये याद रखना चाहिए कि विख्यात सर्वोदयी व सामाजिक कार्यकर्ता तथा महात्मा गांधी के अनुयायी बाबा विनोबा जीवनपर्यन्त ‘अन्त्योदय’ की बात करते थे। ‘अन्त्योदय’ यानी अंत तक उदय। देश के आखिरी आदमी तक विकास की बात उनके इस ब्रह्मवाक्य में निहित थी।
अन्त्योदय आज देश की अहम जरूरत बन गया है। सरकार जब तक इस ‘अन्त्योदय’ को नहीं अपनाती, तब तक देश को विकसित राष्ट्र नहीं माना जा सकता। देश में अंतरिक्ष विज्ञान, सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट, कृषि एवं चिकित्सकीय अनुसंधान के साथ-साथ इस समय प्रत्येक इंसान को आर्थिक, शैक्षिक व शारीरिक रूप से सम्पन्न बनाने पर ध्यान देने की जरूरत है। ‘भिखारी मुक्त’ नारे के साथ ही सक्षम व सम्पन्न देश के नारे पर ध्यान देने की जरूरत है। तभी भविष्य के चुनावों में गरीबी हटाओ और रोजगार व बुनियादी सुविधाएं जुटाने के झूठे वादों से मुक्ति संभव होगी।