शंभूनाथ शुक्ल
केंद्र सरकार ने डेढ़ साल के भीतर दस लाख सरकारी नौकरियां देने की घोषणा की है। विभिन्न विभागों में इतनी नौकरियां संभवतः पहली बार दी जाएंगी। इनमें सबसे प्रमुख है, सेना के तीनों अंगों में 46000 जवानों की भर्ती। ये जवान चार साल के लिए नियुक्त किए जाएंगे। सेना में भर्ती की यह नई प्रक्रिया है। इसके पहले सेना में सेवा कम से कम 17 वर्ष के लिए होती थी। इस सेवा के लिए उम्र साढ़े 17 वर्ष से 21 वर्ष के बीच रखी गई है। पहले वर्ष इन जवानों को 30 हज़ार रुपए प्रति माह मिलेंगे और सेवा मुक्ति के समय उनका वेतन 40000 रुपए होगा। चार वर्ष बाद उन्हें 17.71 लाख रुपए का टैक्स फ्री सेवा निधि पैकेज दे कर मुक्त कर दिया जाएगा। भर्ती के समय शैक्षिक योग्यता 10वीं पास को अनिवार्य रखा गया है। सेवा काल के इन चार वर्षों में शस्त्र संचालन की विधिवत ट्रेनिंग तो उन्हें मिलेगी ही, 12वीं पास का प्रमाणपत्र भी मिलेगा। निश्चित तौर पर यह आकर्षक सेवा है। युवा इसे लेकर बहुत उत्सुक व उम्मीदों से भरे हैं।
मगर विरोधी राजनीतिक दल और कुछ सैन्य विशेषज्ञ इसे सही नहीं मान रहे। तर्क है, कि अल्पकालिक सेना लाखों युवकों को बेरोज़गार कर देगी। साढ़े 17 वर्ष का किशोर जब युवा होकर इस सेना से निकलेगा तब उसके समक्ष नौकरी का संकट होगा। क्योंकि चार साल में उसकी शैक्षणिक योग्यता सिर्फ़ बारहवीं की होगी और ट्रेनिंग के नाम पर महज़ हथियार चलाना उसे आता होगा। यह सैन्य प्रशिक्षित युवाओं की भीड़ बाहर आ कर अराजक नहीं हो जाएगी, इसकी क्या गारंटी। लेकिन विरोध करने वाले भी पुख़्ता तौर पर कुछ नहीं बोल पा रहे। अलबत्ता राजनीतिक विरोधियों की बात अलग है। यूं इस सेवा का प्रारूप आकर्षित तो करता है। साढ़े 17 वर्ष की उम्र से एक किशोर को 30000 रुपये प्रतिमास कमाने लगना और हर वर्ष इस आय में 3-3 हज़ार रुपए हर महीने की बढ़ोतरी तथा चौथे वर्ष में 40000 रुपये वेतन का हो जाना किसी भी निम्न मध्य वर्गीय परिवार को लुभाएगा। इसलिए लोग इस सेवा में भर्ती होने की क़तार में आ गए हैं। हालांकि इसके लिए भर्ती कुछ समय बाद होगी।
एक नज़र में यह सेवा अनिवार्य सैन्य सेवा की तरह प्रतीत होती है। इसकी भर्ती भी सेना की अखिल भारतीय चयन समिति करेगी। अर्थात नियमित सेवा और इस सेवा के चयन की पद्धति समान होगी। किंतु इस सेवा में कार्यकाल बहुत संक्षिप्त है और पेंशन व ग्रेच्युटी का भी प्रावधान नहीं रखा गया है। मालूम हो कि प्रथम विश्व युद्ध के समय 1914 में यूरोप में अनिवार्य सैन्य सेवा शुरू हुई थी और आज भी कई मुल्कों में जारी है। कम्युनिस्ट शासन वाले देशों में तो शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण हर एक को लेना ही पड़ता है। वैसे पहले भी एनसीसी के तहत शस्त्र संचालन का थोड़ा-बहुत प्रशिक्षण दिया जाता था। लेकिन उससे युवाओं की शिक्षा प्रभावित नहीं होती थी। पर इस तरह से जो नई भर्ती की जा रही है, उससे उनकी पढ़ाई बाधित होगी। वे सैन्य प्रशिक्षण तो पा जाएंगे, परंतु उनका भविष्य बहुत उन्नत नहीं होगा।
सेना किसी भी राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण अंग है, वह न केवल राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा करती है, बल्कि उस देश की सीमाओं की भी। कई बार आंतरिक संकट में भी उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ऐसे में सेना में यह नया प्रयोग होगा। सरकार ने अभी यह साफ़ नहीं किया है, कि चार वर्ष में ये जवान कौन-कौन से शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण पाएंगे। और क्या सेना की पूर्णकालीन भर्ती तो बाधित नहीं होगी? सेना के पूर्णकालिक जवानों और इस संविदा सेवा वाले भर्ती के जवानों के बीच कोई विभाजन रेखा होगी? सवालों के समाधान तक सैन्य विशेषज्ञ इस सेवा को संदेह की नज़रों से देखते रहेंगे। लेफ़्टिनेंट जनरल पीआर शंकर ने इसे ‘किंडरगार्टेन आर्मी’ कहा है। उनके अनुसार इस योजना के तहत किन-किन हथियारों को चलाने का प्रशिक्षण जवानों को मिलेगा, यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि ब्रह्मोस, पिनाका, वज्र आदि हथियार चलाना आसान नहीं है।
वैसे आज भी विश्व के तमाम देशों में से 15 में अनिवार्य सैनिक सेवा है। और ये देश हैं—इस्राइल, बरमूडा, ब्राज़ील, साइप्रस, ग्रीस, ईरान, नॉर्थ कोरिया और साउथ कोरिया, मेक्सिको, रूस, सिंगापुर, स्विट्ज़रलैंड, थाइलैंड, तुर्की और संयुक्त अरब गणराज्य। इनमें से चीन के बारे में अधिकृत जानकारी बाहर नहीं आ पाती। इस्राइल में ढाई वर्ष की यह अनिवार्य सैनिक सेवा पुरुषों के लिए है और दो वर्ष की सेवा स्त्रियों के लिए भी। इस दौरान उन्हें सारे शस्त्रों के संचालन की शिक्षा दी जाती है। बरमूडा अभी भी यूनाइटेड किंगडम की सेना है किंतु उसके यहां वहां के नागरिकों के लिए अनिवार्य सैनिक सेवा का नियम है। 18 से 32 वर्ष की उम्र के लोगों को यह ट्रेनिंग मिलती है। चयन लाॅटरी से होता है। बरमूडा में यह सेवा 32 महीने की है। ब्राज़ील में तो 18 साल पूरे होते ही युवाओं को एक वर्ष की सैनिक शिक्षा दी जाती है। स्वास्थ्यगत आधार पर छूट मिलती है या फिर विश्वविद्यालयी शिक्षा लेने वालों को। लेकिन जैसे ही वह युवक शिक्षा पूरी कर लेता है, सैन्य प्रशिक्षण उसे लेना ही पड़ता है। साइप्रस में यह सेवा 2008 से लागू की गई और हर युवा के लिए अनिवार्य है। और वहां रह रहे हर एथिनिक व भिन्न धार्मिक समुदाय वालों को भी प्रशिक्षण लेना पड़ता है। ग्रीस में 19 से 45 वर्ष की उम्र वालों को अनिवार्य सैनिक सेवा में जाना आवश्यक है। ईरान में दो साल का प्रशिक्षण मिलता है। उत्तरी कोरिया में यह ट्रेनिंग 14 से 17 की उम्र के बीच शुरू होती है और युवा को 30 वर्ष की उम्र तक सैन्य प्रशिक्षण लेना पड़ता है। साउथ कोरिया में यह उम्र 18 से 28 है। मेक्सिको में 12वीं पास करने के बाद सैन्य ट्रेनिंग दी जाती है। सिंगापुर में तो राष्ट्रीय सेवा (एनएस) की ट्रेनिंग न लेने वालों को 10 हज़ार डॉलर का जुर्माना देना पड़ता है अथवा तीन साल की जेल। कुल मिलाकर अधिकांश देशों में इस तरह की मिलिटेरी ट्रेनिंग मिलती है।
भारत में इसे रोज़गार स्कीम के तहत किया जा रहा है, यह थोड़ा चिंताजनक है। न तो इसे अनिवार्य सैनिक शिक्षा स्कीम के तहत रखा गया है, न यह विधिवत रोज़गार है। इसलिए लोगों को लगता है कि ट्रेनिंग के बाद जब ये युवक सेवा मुक्त होंगे तब क्या करेंगे? हालांकि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भरोसा दिया है, कि इस स्कीम के तहत थल, वायु और नभ सेनाओं में भर्ती जवानों में से 25 प्रतिशत को नियमित सेना में ले लिया जाएगा और शेष को कुछ ऐसा प्रशिक्षण भी दिया जाएगा ताकि उन्हें रोजगार पाने में दिक़्क़त न हो। उन्हें आईटीआई ट्रेंड किया जाएगा। इस सेवा का नाम अग्निपथ रखा गया है और इसमें चयनित जवानों को अग्निवीर कहा जाएगा। रक्षा मंत्री ने यह भी बताया कि कोरोना काल में भर्ती रुकने के बाद सेना में भर्ती हेतु इस सेवा से ज़रिया खोला गया है। महिलाओं को भी इस टूर ऑफ़ ड्यूटी में लिया जाएगा। यह भी बताया गया कि वेतन का 30 प्रतिशत सेवानिधि पैकेज के लिए हर जवान का कटेगा और इस निधि में सरकार का अंशदान भी इतना ही होगा। ऊपरी तौर पर फ़िलहाल यह एक आकर्षक सेवा है, मगर सरकार इस स्कीम के भविष्य को लेकर कुछ और पारदर्शी बने तो यह एक अभिनव प्रयोग होगा।
अग्निपथ के अग्निवीर निश्चय ही भविष्य के वे युवा होंगे जो हथियार चलाने की ट्रेनिंग से लैस होंगे। इसके साथ ही उनके पास व्यावसायिक प्रशिक्षण भी होगा, जिसके चलते वे स्वरोज़गार का सृजन भी कर सकेंगे। इस पर अंगुलियां उठी हैं लेकिन सरकार की मंशा को देखते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि ऐसे प्रशिक्षणों से रोज़गार का संकट दूर किया जा सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।