वे बच्चे अब नहीं रहे जो पूछा करते कि चांद पर कौन रहता है? अब पूछते हैं कि बाबा! एलन मस्क चांद पे कॉलोनी कब बनायेंगे? अब बच्चे खुद कहते हैं- मम्मी मैं बच्चा नहीं हूं।
बचपन अब बस्ता नहीं ढोता, ब्रांड ढोता है। गिल्ली-डंडा खेलता, पतंग उड़ाता, गुल्लक सहेजता, गुड्डे-गुड़िया की बारात सजाता बचपन लापता हो गया है। वो लट्टू घुमाता, बरसात में कागज की नाव चलाता, नाक पोंछता, लुका-छिपी खेलता बचपन कहां खो गया है? अब वह किसी गली-कूचे में स्कूल की छुट्टी के बाद बिना ब्रेक साइकिल चलाते हुए, बड़ों की डांट खाते हुए नहीं मिलता।
आजकल का बचपन तो इंस्टाग्राम पर रील बनाता है, बर्थडे पर केक नहीं, थीम पार्टी चाहता है। उसकी गेंद, चिड़ी-बल्ले, गुड्डे-गुड़िया आदि खिलौनों को मोबाइल निगल गया है। स्मार्टफोन ने बचपन को एक स्क्रीन में समेट दिया है। अब उन्हें ‘ककहरा’ नहीं कोडिंग सिखाई जाती है। कोचिंग सेंटर ऐसे हैं जो तीसरी कक्षा से ही उसे इंजीनियर-डॉक्टर बनाने का धंधा चालू करे बैठे हैं। पैरेंट्स ऐसे हैं कि हमारा ‘बच्चा पीछे न रह जाये’ सोचने में यह ध्यान रखना भूल रहे हैं कि ‘वह आगे क्या खो रहा है।’
कभी बचपन का मतलब था घुटनों और कोहनियों पर लगे छाले, जेब में कंचे, मुट्ठी में गिट्टे और बालों में धूल। अब बचपन है- सोफे पर बैठा बच्चा, हाथ में मोबाइल या टैबलेट और मुंह से निकलते शब्द कि वाईफाई स्लो है। अब बच्चे आगे बढ़ रहे हैं पर दौड़ते नहीं। पेड़ों पर चढ़ आम-जामुन तोड़ने वाला बचपन अब ऑनलाइन शॉपिंग में अपने लिये ब्रांडेड कच्छे-बनियान आर्डर कर रहा है। वह भी बचपन था जब रोते बच्चे को टॉफी-गोली, चूर्ण, चवन्नी या गुब्बारा देकर भुला चपरा लिया जाता था। अब तो मोबाइल ही उसके आंसुओं का इलाज है।
वे भी दिन थे जब गलियों में खेलते बच्चों को कान पकड़ कर घर लाया जाता था। अब धक्का देकर बच्चों को खेलने के लिये जबरन भेजना पड़ता है। बच्चे बेमन से मैदान में जाते हैं और अंतर्मन में यही चाहते हैं कि उनका स्क्रीन टाइम बढ़ा दिया जाये। कोडिंग क्लास, गिटार-पियानो और फ्रेंच-स्पेनिश ट्यूशन सब उसे एक ही दिन में मैनेज करना पड़ रहा है। इसके अलावा कभी टेनिस अकेडमी कभी बेडमिंटन क्लब जाने का दबाव। अब उसके पास बस टाइम टेबल है, फ्री टाइम नहीं है।
वे बच्चे अब नहीं रहे जो पूछा करते कि चांद पर कौन रहता है? अब पूछते हैं कि बाबा! एलन मस्क चांद पे कॉलोनी कब बनायेंगे? अब बच्चे खुद कहते हैं- मम्मी मैं बच्चा नहीं हूं। यह सब देख-सुन कर तो बड़े-बूढ़े एक ही नसीहत दे रहे हैं कि हो सके तो बचपन बचा लो।
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एक बर की बात है अक नत्थू नै अपणी मां तै बूज्झी- बड़ा आदमी बनण खात्तर के करूं मां? उसी मां बोल्ली- यो भाट्ठा पकड़ अर सबतै पहल्यां अपणा मोबाइल फोड़ दे।