विषमता की खाइयां पाटना वक्त की जरूरत
स्वराज का मतलब यह भी है कि हम सत्ता के अनुचित उपयोग के विरुद्ध खड़े होने का साहस भी अपने भीतर जगायें? अन्याय के विरोध का भाव जगाना ही पर्याप्त नहीं है, अन्याय के विरोध की क्षमता भी स्वतंत्र देश के हर नागरिक में होनी चाहिए। एक स्वतंत्र समाज का दायित्व बनता है कि वह ऐसी स्थितियां बनाये कि हर नागरिक में अन्याय का विरोध करने की क्षमता जगे।
‘स्वराज में राहत तो होगी/ मज़दूर मगर भूखा होगा/ उसके बदले की रोटी/ दौलत वाला खाता होगा... आज़ादी चीज तो अच्छी है/ लेकिन है पैसे वालों की/ मजदूर को मजदूरी करनी/ गोरों के बजाय कालों की...।’ यह पंक्तियां किसने लिखी हैं, यह तो नहीं पता, पर इतना अवश्य पता है कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान कुछ लोग इस तरह के गीत भी गाया करते थे। मैंने अपने पिताजी से बचपन में ये पंक्तियां सुनी थीं और यह बात वे तब कहते थे जब देश में आर्थिक या सामाजिक विषमता का कोई मुद्दा उठता था। समानता और बंधुता के सारे दावों के बावजूद विषमता की खाइयों की गहराइयां कम नहीं हो रहीं। बड़े-बूढ़ों से यह बात हम अक्सर सुनते रहते हैं कि आज़ादी पा लेने के बावजूद देश में समानता का वह सपना कहीं पूरा होते नहीं दिखता जो हमारे स्वतंत्रता सेनानी देखा करते थे। यह एक सच्चाई अपने आप में बहुत कुछ कह देती है कि आज देश की आबादी के दस प्रतिशत ऊपरी हिस्से के पास देश की राष्ट्रीय संपत्ति का 77 प्रतिशत हिस्सा है!
आज जबकि हम अपनी आज़ादी के 78वें साल में दुनिया की तीसरी आर्थिक व्यवस्था बनने की ओर तेज़ी से बढ़ने के दावे कर रहे हैं, करोड़ों को गरीबी रेखा से उबारने की दुहाई दे रहे हैं, दुनिया की सबसे तेज़ी से सुधरती अर्थव्यवस्था होने का दम भर रहे हैं, स्वयं को विश्वगुरु मान रहे हैं तो यह सवाल उठना ही चाहिए कि देश की 80 प्रतिशत आबादी को सरकार द्वारा दिये जाने वाले प्रतिमाह 5 किलो अनाज पर जीवन-यापन क्यों करना पड़ रहा है? सरकारी मदद को भीख कहना अच्छा नहीं लगता है, पर हकीकत है- इससे भी तो इन्कार नहीं किया जा सकता।
बरसों पहले भारत की संसद में उठा तीन आने और तेरह आने वाला सवाल एक तरह से आज भी मुंह बाये हमारे सामने खड़ा है। देश की आर्थिक स्थिति पर बोलते हुए समाजवादी विचारक और नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चुनौती दी थी कि वे इस स्थापना को गलत साबित करके बतायें कि देश के 27 करोड़ लोग तीन आने से भी कम पैसे में अपना जीवन-यापन करने के लिए विवश हैं। तब रुपये में सोलह आने हुआ करते थे और देश की आबादी भी 50-55 करोड़ थी। अपने उस भाषण में डॉ. लोहिया ने देश की संसद में कहा था, ‘देश के प्रधानमंत्री पर प्रतिदिन पच्चीस हज़ार रुपये खर्च होते हैं! जबकि, देश का आम नागरिक प्रतिदिन तीन आने में अपना काम चलाने के लिए बाध्य है।’ ज्ञातव्य है कि तब प्रधानमंत्री नेहरू ने डॉ. लोहिया की इस स्थापना को ग़लत तो कहा था, पर उन पर देशद्रोही होने का आरोप नहीं लगाया था।
आज़ादी की लड़ाई के दौरान स्वराज में मजदूर के भूखा सोने की बात कहने वाले की आलोचना तब भी होती थी, पर उन्हें देशद्रोही नहीं समझा जाता था। आज हम आज़ाद हैं, और आज़ादी का तकाज़ा है कि हम सतत् सावधान रहने की शर्त को पूरा करने वाले नागरिक सिद्ध हों। नागरिक की जागरूकता स्वतंत्र देश की सार्थकता की पहली शर्त है। आज जबकि हम आज़ादी की 78वीं सालगिरह मनाए जा रहे हैं, हममें से हर एक को अपने आप से यह पूछना होगा कि सतत् जागरूकता की इस कसौटी पर हम कितना सफल सिद्ध होते हैं? पूछना तो हमें अपने आप से यह भी है कि क्या वह पूरी आज़ादी हमने पा ली है जिसकी शपथ 95वें साल पहले हमने रावी नदी के तट पर ली थी?
यह पूरी आज़ादी की शपथ देश ने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ली थी। इस पूरी आज़ादी का मतलब सिर्फ अपना शासन नहीं था। पूरी आज़ादी का मतलब था वह सोच जो हर नागरिक को खुली हवा में सांस लेते हुए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रगति का समान अवसर देती है।
स्वतंत्रता को किसी भी कीमत पर महंगी न समझने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ‘जब तक हम पूर्ण स्वतंत्र नहीं हैं, हम गुलाम ही हैं।’ आज बापू के इन शब्दों को सही अर्थों में समझने की आवश्यकता है। पूरी आज़ादी का मतलब है समान अधिकारों और समान अवसरों के साथ जी पाना। क्या ऐसी स्थिति है हमारे देश में? आज़ादी की लड़ाई के दौरान जिस तरह राहत की बात कवि कर रहा था, क्या सचमुच हमने वह राहत पा ली है? हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्र भारत में एक ऐसे मानव-समाज की कल्पना की थी जिसमें हर नागरिक को समान अधिकारों के साथ जीने का अधिकार भी मिलेगा और अवसर भी। उस स्वतंत्रता में कोई छोटा या बड़ा नहीं होगा। स्वतंत्र भारत में समानता का मतलब वह व्यवस्था होगी जिसमें झोपड़ी कुछ ऊंची होगी, महल कुछ नीचा। जाति और वर्ण के आधार पर किसी को नीचा या ऊंचा नहीं माना जायेगा। हमारे संविधान का आमुख हर नागरिक को न्याय पाने का पूरा अधिकार देता है। समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता की यह स्थितियां क्या हमने पा ली हैं?
एक सवाल और जो हमें अपने आप से पूछना चाहिए वह यह है कि क्या हम सचमुच स्वतंत्रता और स्वराज का मतलब समझते हैं? स्वतंत्रता बंधन से मुक्ति का नाम है और स्वराज का मतलब है निज-शासन की युक्ति। स्वतंत्रता कुछ बंधन लाती है अपने साथ। बंधन अर्थात संयम। बंधन अर्थात मर्यादाओं में जीने की युक्ति। यह तो सब जानते हैं कि स्वराज का मतलब सत्ता का अपने अथवा अपनों के हाथ में आना है, पर हम में से कितने लोग यह समझते हैं कि स्वराज का मतलब यह भी है कि हम सत्ता के अनुचित उपयोग के विरुद्ध खड़े होने का साहस भी अपने भीतर जगायें? अन्याय के विरोध का भाव जगाना ही पर्याप्त नहीं है, अन्याय के विरोध की क्षमता भी स्वतंत्र देश के हर नागरिक में होनी चाहिए। एक स्वतंत्र समाज का दायित्व बनता है कि वह ऐसी स्थितियां बनाये कि हर नागरिक में अन्याय का विरोध करने की क्षमता जगे।
पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को तिरंगा फहराकर हम अपनी आज़ादी का उत्सव तो मना सकते हैं, पर इस उत्सव की सार्थकता तभी होगी जब देश का हर नागरिक वह जीवन जी सके, जिसमें आज़ादी अपने पूरे के साथ को पुष्पित-पल्लवित होगी। सच्चा और पूरा स्वतंत्र समाज वही है जिसमें हर रंग के फूल अपनी गंध बिखेर रहे हों, जहां जाति के आधार पर आदमी और आदमी के बीच की दूरी नहीं होगी। रावी के तट पर हमने पूरी आज़ादी पाने की शपथ ली थी, उस आज़ाद भारत में ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होना था, धर्म की दीवार नहीं होनी थी, पूरी आज़ादी वाले उस समाज में नफरत के लिए कोई जगह नहीं है, जहां धर्म बांटता नहीं, जोड़ता है, जहां पूजा-स्थल मनुष्यता के धर्म को परिभाषित करते हैं। पूरी आज़ादी वाला वह समाज अभी बनाना है हमें। आर्थिक असमानता और सामाजिक विषमता की दीवारों-खाइयों को ढहाने-पाटने की आवश्यकता को अनुभव करके ही हम अपना बेहतर भारत बना सकते हैं। सच कहूं तो तभी जयहिंद कहने का अधिकार मिलेगा हमें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।