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कूटनीतिक प्रतिद्वंद्विता का मंच न बने ब्रिक्स

जी. पार्थसारथी जैसे-जैसे राष्ट्रपति जो बाइडेन का बतौर राष्ट्रपति पहला कार्यकाल खत्म होने को है, तेल संपन्न फारस की खाड़ी पर अमेरिका को अपनी नीतियों को लेकर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। चीन ने बड़ी दक्षता और सततता...
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जी. पार्थसारथी

जैसे-जैसे राष्ट्रपति जो बाइडेन का बतौर राष्ट्रपति पहला कार्यकाल खत्म होने को है, तेल संपन्न फारस की खाड़ी पर अमेरिका को अपनी नीतियों को लेकर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। चीन ने बड़ी दक्षता और सततता से समूचे हिंद महासागरीय क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाया है, विशेषकर फारस की खाड़ी में, जहां लगभग 35 लाख भारतीय कामगार प्रवासी हैं। यह इलाका भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए बहुत महत्व रखता है। खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका की कूटनीति पिछले कुछ वर्षों से अनाड़ी-सी देखी गई है, राष्ट्रपति बाइडेन ने गैर-कूटनीतिक बयानबाजी तक कर दी जब अक्तूबर 2018 में उन्होंने सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का नाता, अमेरिका में बसे और राजशाही के कड़े आलोचक सऊदी पत्रकार जमाल अहमद खाशोगी के कत्ल से जोड़ डाला। खाशोगी की हत्या इस्ताम्बुल में सऊदी अरब के दूतावास में हुई थी। इसके बाद से सऊदी-चीन सहयोग में तेजी से विस्तार हुआ, हालांकि बाद में बाइडेन ने सऊदी राजपरिवार से संबंध सुधारने की कोशिशें की।

तब से लेकर सऊदी अरब पर अमेरिका का राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभाव घटता गया। गुपचुप तरीके से सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौते करवाकर, दोनों के बीच दुश्मनी भरे रिश्ते को सामान्य बनवाना चीन का खाड़ी देशों में सबसे बड़ा कारनामा रहा। यह काम ईरान के प्रति अमेरिका के निरंतर वैमनस्य भरे रुख से विपरीत रहा, ईरान अब यूक्रेन युद्ध में इस्तेमाल के लिए रूस को हथियार पहुंचा रहा है। पिछले साल राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अरब की खाड़ी मुल्कों से रिश्तों में विस्तार करने को मंजूरी दी थी, इन विषयों में वित्त, विज्ञान, तकनीक और हवाई क्षेत्र शामिल हैं। शी जिनपिंग के इस संकल्प का सऊदी अरब की राजशाही ने स्वागत किया और युवराज सलमान ने शी जिनपिंग की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसके बाद से सऊदी अरब पर अमेरिकी राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव को चुनौती मिलती गई। आगे, सऊदी अरब और चीन ने औद्योगिक सहयोग स्थापित करने का निर्णय लिया है। सऊदी नेतृत्व ने चीन की तकनीक-महारथी कंपनी हुआवे को वहां पर उच्च-तकनीक उद्योग स्थापित करने की मंजूरी दी है। हालांकि अरब की खाड़ी के अन्य देश नए सऊदी-ईरान रिश्ते पर सऊदी अरब जितने उत्साहित नहीं हैं। उनमें लगभग सभी अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मुख्यतः बहरीन स्थित अमेरिकी नौसैन्य अड्डे पर तैनात पांचवें बेड़े पर निर्भर हैं।

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जहां चीन खाड़ी मुल्कों में अपना प्रभाव बढ़ाने में व्यस्त था, वहीं इस बीच दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) संगठन के नेताओं के बीच हुए शिखर सम्मेलन के रूप में एक महत्वपूर्ण आयोजन हुआ, ब्रिक्स को सोवियत यूनियन के विघटन के बाद उभरती हुई नव-आर्थिक शक्तियों का गुट कहा जाता है। लिहाजा, ब्रिक्स की सदस्यता को विस्तार देने और शामिल होने के लिए कई देश इच्छा जताते आए हैं, खासकर एशियाई मुल्क। दक्षिण अफ्रीका में संपन्न हुआ शिखर सम्मेलन अपने आप में अलहदा रहा, मेजबान देश दक्षिण अफ्रीका का वैश्विक परिदृश्य पर अफ्रीकी देशों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने में दिखाया दृढ़-संकल्प जायज था और इसके लिए विकास फंड की उपलब्धता में इजाफा करने का प्रस्ताव रखा गया। भारत के ध्यान का केंद्र जहां आर्थिक विकास रहा वहीं चीन और रूस की रुचि क्वाड की सदस्यता में विस्तार करवाने में दिखी। वे चाहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और जापान को छोड़कर अधिकांश हिंद-प्रशांत महासागरीय मुल्कों को इसमें शामिल किया जाए।

सावधानीपूर्वक विचार के बाद ब्रिक्स ने अर्जेंटाइना, मिस्र, ईरान, सऊदी अरब और यूएई को बतौर नया सदस्य आमंत्रित किया है। रोचक यह है कि, एक बड़ी एशियाई शक्ति के रूप में इंडोनेशिया, जिसका चीन से पुराना विवाद रहा है, कोे नहीं बुलाया गया। दक्षिण चीन सागर के अधिकांश मुल्कों की तरह इंडोनेशिया का भी चीन के साथ सागरीय सीमा विवाद जारी है। क्वाड के संस्थापक राष्ट्रों के रूप में भारत को नए सदस्यों की सूची देखकर कहीं ज्यादा खुशी होगी, भारत को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि यह संगठन अमेरिका-चीन प्रतिद्वंद्विता के भंवर में न फंसने पाए। इसके अलावा, लगभग 27.8 करोड़ आबादी वाले इंडोनेशिया, जिसकी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति है, को भी ब्रिक्स में जितना जल्द हो, शामिल किया जाए।

बृहद आयाम में; इस प्रक्रिया में, जो हो रहा है, एक ओर ब्रिक्स राष्ट्रों के बीच संबंध प्रगाढ़ होंगे तो वहीं दूसरी ओर रूस और चीन के बीच भी। यह होना ही था क्योंकि जिन पांच सदस्यों ने ब्रिक्स संगठन बनाया था, वे वही थे जिनका आर्थिक भविष्य सोवियत यूनियन के पतन के बाद उत्थान की राह पर था। लेकिन हमें देखने को यह मिला कि लगभग दो दशकों बाद, संगठन के मूल चार सदस्यों में दो यानी चीन और रूस मिलकर पश्चिमी जगत को चुनौती देने लगे, जबकि कतर और बहरीन में तैनात अपने पांचवें समुद्री बेड़े के साथ अमेरिका के खाड़ी के अरब मुल्कों के साथ निकट रक्षा संबंध हैं।

स्पष्टतः भारत ने चुपचाप पर्दे के पीछे से भूमिका निभाई है कि अगले ब्रिक्स सम्मेलन में नए चार सदस्यों में कौन-कौन होगा, यह शिखर सम्मेलन रूस में वोल्गा और कज़ान्का नदी के किनारे बसे कज़ान शहर में तय होगा। अनेकानेक अफ्रीकी देशों के नेतृत्व को ब्रिक्स में आमंत्रित करने वाले दक्षिण अफ्रीका का प्रभाव समूचे महाद्वीप पर बढ़ सकता है। जहां तक बात यूएई सहित भारत के सहयोगी तेल संपन्न अरब देश की है, पश्चिम जगत के साथ उनके संबंधों के रुख में कोई बड़ी तब्दीली होती दिखाई नहीं देती। हालांकि, हमें यह भी यकीन है कि चीन अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए ब्रिक्स सदस्यों को पाकिस्तान के साथ संबंध घनिष्ठ बनाने के लिए मनाएगा। इस पर भारत को ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं क्योंकि अधिकांश ब्रिक्स सदस्यों के साथ भारत के संबंध बहुत मजबूत हैं। वैसे भी, आने वाले समय में पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता और दिवालिया होने की स्थिति बरकरार रहेगी। लेकिन न तो भारत और न ही नवनिर्वाचित ब्रिक्स सदस्यों में कोई चाहेगा कि महत्वपूर्ण वैश्विक मामलों में चीन का पिछलग्गू बनकर कोई पक्षपाती नजरिया बने। उम्मीद है भविष्य में ब्रिक्स संगठन वैश्विक मुद्दों पर इस नियम पर अमल करता रहेगा।

लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।

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