पुस्तकें जो बन जाती हैं दर्द में दवा
दुविधा काल में किताबों में पढ़ने से, समझने से उसकी सोच का सकारात्मक विस्तार होता है। लोगों को एक सात्विक मानसिक खुराक दे सकती हैं, जो उनके जल्दी रोगमुक्त होने में सहायक हो सकता है।
तमिलनाडु के तिरुचि के महात्मा गांधी मेमोरियल सरकारी अस्पताल में एक उपेक्षित कोने में शुरू हुआ पुस्तकालय मरीजों, तीमारदारों और कर्मचारियों के लिए सुकून, ज्ञान और समय बिताने का माध्यम बन गया है। यहां कुछ पुस्तकें, पत्रिकाएं और अंग्रेज़ी-तमिल अख़बार उपलब्ध हैं। कोविड काल में यह सिद्ध हो चुका है कि मनोरंजक किताबें मरीजों के उपचार में बेहद सहायक होती हैं।
कोविड की दूसरी लहर के दौरान दिल्ली से सटे गाजियाबाद में कोरोना के लक्षण वाले मरीजों को एकांतवास में रखा जाता था। लेकिन आए दिन एकांतवास केंद्रों से मरीजों के झगड़े या तनाव की खबरें आ रही थीं। तब जिला प्रशासन ने नेशनल बुक ट्रस्ट के सहयोग से लगभग 200 बच्चों की पुस्तकें वहां वितरित कर दीं। रंग-बिरंगी पुस्तकों ने मरीजों के दिल में जगह बना ली और वे खुश नजर आने लगे। उनका समय पंख लगाकर उड़ गया। डॉक्टरों ने भी माना कि पुस्तकों ने क्वारंटीन किए गए लोगों का तनाव कम किया, उन्हें गहरी नींद आई और सकारात्मकता का संचार हुआ। इससे उनकी स्वास्थ्य लाभ की गति भी बढ़ी।
दिल्ली में भी छतरपुर स्थित राधास्वामी सत्संग में बनाए गए विश्व के सबसे बड़े क्वारंटीन सेंटर में हजारों पुस्तकों के साथ लाइब्रेरी शुरू करने की पहल की गई। यहां नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक हजार किताबों के साथ उनकी पत्रिका ‘पाठक मंच’ बुलेटिन और ‘पुस्तक संस्कृति’ के सौ-सौ अंक भी रखे। वहां भर्ती मरीज जल्दी स्वस्थ और प्रसन्न दिखे।
देश के अस्पतालों में मरीजों के साथ आने वाले तीमारदारों की उपस्थिति भीड़ और अव्यवस्था का बड़ा कारण है, क्योंकि वे अक्सर बिना काम के प्रतीक्षा क्षेत्र में समय बिताते हैं और मानसिक थकान का शिकार हो जाते हैं, जिससे अस्पताल प्रणाली पर भी दबाव बढ़ता है। तिरुची के अस्पताल के पुस्तकालय ने ऐसे तीमारदारों को सकारात्मक और व्यस्त रखने का समाधान खोजा है। दुनिया के विकसित देशों के अस्पतालों में पुस्तकालय की व्यवस्था का इतिहास सौ साल से भी पुराना है। अमेरिका में 1917 में सेना के अस्पतालों में लगभग 170 पुस्तकालय स्थापित किए गए थे। ब्रिटेन में सन् 1919 में वार लाइब्रेरी की शुरुआत हुई। इसके बाद आज अधिकांश यूरोपीय देशों के अस्पतालों में मरीजों को व्यस्त रखने और ठीक होने का भरोसा देने के लिए ऐसी पुस्तकों की व्यवस्था है। ऑस्ट्रेलिया के सार्वजनिक अस्पतालों में तो आम लोग भी पुस्तकें पढ़ने के लिए ले सकते हैं। इंग्लैंड के मैनचेस्टर के क्रिस्टी कैंसर अस्पताल का पुस्तकालय तो पुस्तकों का वर्गीकरण रंगों के अनुसार करता है। जापान के अस्पतालों में बच्चों की किताबें बहुतायत में मिलती हैं और उन्हें अक्सर वयस्क ही पढ़ते हैं।
भारत में तकरीबन अड़तीस हजार अस्पताल हैं, जिनमें कोई आठ लाख से अधिक मरीज हर दिन भर्ती होते हैं। इनके साथ तिमारदार भी होते हैं। अनुमान है कि कोई बीस लाख लोग चौबीसों घंटे अस्पताल परिसर में होते हैं। इनमें बीस फीसदी ही बेहद गंभीर होते हैं, शेष लोग बुद्धि से चैतन्य और ऐसी अवस्था में होते हैं जहां उन्हें बिस्तर पर लेटने या बाहर अपने मरीज का इंतजार करना एक उकताहट भरा काम होता है।
आमतौर पर बड़े अस्पतालों में मरीजों और तीमारदारों के लिए लगाए गए टीवी, अक्सर तनाव बढ़ाने वाले कार्यक्रम दिखाते हैं, जबकि मोबाइल फोन अफवाहों और झूठी सूचनाओं का जरिया बन चुके हैं। इससे मरीजों का मानसिक संतुलन और तीमारदारों की शांति दोनों प्रभावित होती है। सर्वविदित है कि पुस्तकें एकांत में सबसे अच्छा साथ निभाती हैं। ये काले छपे हुए शब्द, दर्द और उदासी के दौर में दवा का काम करते हैं। हर किसी की जिंदगी में कुछ अच्छी किताबों का होना जरूरी है। किताबें सिर्फ मनोरंजन या इम्तिहान उत्तीर्ण करने के लिए नहीं होतीं, जिंदगी के रास्ते बनाने के लिए होती हैं। किताबों में हर मुश्किल सवाल, परिस्थिति का हल भले ही न छुपा हो लेकिन दुविधा काल में किताबों में पढ़ने से, समझने से उसकी सोच का सकारात्मक विस्तार होता है। लोगों को एक सात्विक मानसिक खुराक दे सकती हैं, जो उनके जल्दी रोगमुक्त होने में सहायक हो सकता है।
यदि देश के सभी जिला अस्पतालों, मेडिकल कालेज और बड़े समूह के निजी अस्पतालों में हिंदी, अंग्रेजी और स्थानीय भाषा की अच्छी पुस्तकें रखी जाएं, प्रत्येक भर्ती मरीज से कुछ रुपये लेकर उनका पुस्तकालय से एक या दो किताबों जारी करने का कार्ड बना दिया जाए तो यह नए तरीके का पुस्तकालय अभियान बन सकता है।
यदि प्रशासन या अस्पताल चाहें तो हर शहर में कुछ साहित्यप्रेमी लोग, सेवानिवृत्त जागरूक व्यक्ति ऐसे पुस्तकालयों के लिए नि:शुल्क सेवा देने को भी तैयार हो जाएंगे। प्रारंभ में साहित्य, सूचना, बाल साहित्य की पुस्तकें रखी जाएं जो मरीज या तिमारदार को भाषा-विषय-वस्तु और प्रस्तुति के स्तर पर ज्यादा कठिन न लगे।
यदि मरीजों को दी जा रही दवा के साथ पुस्तकें आत्मविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करें, तो अस्पताल से जाते समय उनके पास ज्ञान, सूचना और जिज्ञासा का ऐसा खजाना होगा, जो जीवनभर उनके साथ रहेगा। अस्पताल के दिन उन्हें बोझ नहीं, बल्कि एक उपलब्धि की तरह याद आएंगे। यही पुस्तकें वहां काम कर रहे चिकित्सकों और कर्मचारियों के लिए भी ऊर्जा का स्रोत बन सकती हैं। इसलिए देश की स्वास्थ्य नीति में हर अस्पताल में पुस्तकालय की स्थापना के लिए बजट का प्रावधान, नि:शुल्क दवा वितरण की तरह ही एक प्रभावी और दूरदर्शी कदम होगा।
लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं।