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हरफनमौला अभिनेता की कमी खलेगी बॉलीवुड को

स्मृति शेष : असरानी

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फिल्म संस्थान जाने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि यह पेशा एक विज्ञान की तरह है। आपको प्रयोगशाला में जाना पड़ता है और प्रयोग करना पड़ता है। अभिनय में आंतरिक मेकअप भी बहुत महत्वपूर्ण है।

भारतीय सिनेमा के लिए यह दु:ख का समय है, जब हिंदी सिनेमा के चर्चित हास्य अभिनेता गोवर्धन असरानी दिवाली के अवसर पर इस दुनिया से विदा हुए। वास्तव में यह भारतीय सिनेमा के उस हास्य कलाकार और हरफनमौला व्यक्तित्व की विदाई है, जिसकी मिसाल वे स्वयं थे।

लगभग 460 से अधिक फिल्मों में काम करने वाले असरानी 1966 से लेकर अपने जीवन के अंतिम समय तक भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नामी हास्य अभिनेता रहे। उन्होंने मेहनत, संघर्ष और शिक्षा से अर्जित ज्ञान के दम पर अपनी अलग पहचान बनाई। वे कहते थे कि सिनेमा एक विज्ञान है और इस विज्ञान को समझने तथा सीखने के लिए उन्होंने पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में दाखिला लिया। फिर ऋषिकेश मुखर्जी जैसे पारखी फिल्म निर्माता की फिल्म ‘गुड्डी’ से उनकी ऐसी शुरुआत हुई कि उन्होंने फिल्मों के इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ दी।

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असरानी को ‘शोले’ जैसी फिल्म में अंग्रेजों के ज़माने के जेलर के किरदार में ऐसी प्रसिद्धि मिली कि आज भी बच्चों की ज़ुबान पर उनका वह डायलॉग याद है। वास्तव में, असरानी एक बहुमुखी और बहुआयामी प्रतिभा के धनी हास्य कलाकार थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों में अपने संघर्ष और वास्तविक हास्य को जीवित रखा और उसे जिया भी।

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उनका जन्म जयपुर में 1 जनवरी, 1941 को हुआ था। यहीं के प्रसिद्ध सेंट जेवियर्स स्कूल और कॉलेज में उनकी पढ़ाई हुई और उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो, जयपुर में कई साल तक काम भी किया। अभिनेता असरानी एक उत्कृष्ट उद्घोषक और गायक भी थे। उन्होंने कई फिल्मों में हिंदी और गुजराती में गीत भी गाए। उन्होंने कपड़ा व्यापार से लेकर फिल्म निर्माण और निर्देशन तक में हाथ आजमाया, एक ऐसे कलाकार की भूमिका निभाई, जो हमेशा प्रतिभाशाली लोगों के संघर्ष से जुड़ा रहा।

असरानी अपने लंबे सिनेमाई सफर के दौरान जब भी जयपुर आते थे, उनसे मुलाकात होती थी। अपनी भावपूर्ण मुलाकातों में असरानी ने कहा था कि जीवन एक विज्ञान है, और इसे उसी तरह निभाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि अगर वे सिनेमा की बारीकियों को समझने के लिए पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में नहीं जाते, तो शायद उन्हें सिनेमा में काम नहीं मिलता।

यही उनके जीवन का एक टर्निंग प्वाइंट था, और फिर जो करियर उन्होंने बनाया, वह शानदार था। उन्होंने अपने समय की मशहूर अभिनेत्री मंजू बंसल से शादी की थी, जिन्होंने ‘नमक हराम’ जैसी फिल्मों में काम किया था। वर्ष 1977 में असरानी ने फिल्म ‘आलाप’ में दो गीत गाए, जो उन पर फिल्माए गए थे। अगले साल उन्होंने फिल्म ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ में मशहूर प्लेबैक गायक किशोर कुमार के साथ एक गीत गाया।

उनकी प्रसिद्ध फिल्मों के लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले। उन्हें गुजराती फिल्म ‘सात कैदी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए गुजरात सरकार का पुरस्कार मिला। 1973 में ‘अनहोनी’ के लिए शमा-सुषमा सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता पुरस्कार, 1974 में ‘अभिमान’ के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार, और ‘आज की ताज़ा खबर’ के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

पुणे में असरानी को मशहूर अभिनय शिक्षक रोशन तनेजा ने पढ़ाया। उनके शब्दों में, ‘फिल्म संस्थान जाने के बाद मुझे अहसास हुआ कि यह पेशा एक विज्ञान की तरह है। आपको प्रयोगशाला में जाना पड़ता है और प्रयोग करना पड़ता है।’ उन्होंने कहा कि अभिनय में आंतरिक मेकअप भी बहुत महत्वपूर्ण है।

उन्होंने एक बार कहा कि—‘एक बार अभिनेता मोतीलाल पुणे के फिल्म संस्थान में मेहमान के रूप में आए थे। मेरे एक छोटे से अभिनय प्रदर्शन को देखने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा—‘तुम राजेन्द्र कुमार की बहुत सारी फिल्में देखते हो, क्या तुम उनकी नकल कर रहे हो? हमें फिल्मों में नकल नहीं चाहिए।’ यह एक बड़ा सबक था। मोतीलाल का मतलब था कि अपनी आंतरिक प्रतिभा को बाहर लाओ।

उन्होंने याद करते हुए कहा कि निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी पुणे के फिल्म संस्थान में संपादन सिखाने आते थे। एक दिन उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी से मौका देने की गुजारिश की। कुछ दिनों बाद ऋषिकेश मुखर्जी फिल्म ‘गुड्डी’ में गुड्डी का किरदार निभाने वाली लड़की की तलाश में संस्थान आए, और फिर जब उन्हें रोल मिला, तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

सन‍् 1970 का दशक उनके करियर का चरम था, जब उन्होंने ‘मेरे अपने’, ‘कोशिश’, ‘बावर्ची’, ‘परिचय’, ‘अभिमान’, ‘चुपके चुपके’, ‘छोटी-सी बात’ और ‘रफू चक्कर’ जैसी शानदार फिल्मों में महत्वपूर्ण किरदार निभाए। वास्तव में, वे एक ऐसे बहुमुखी कलाकार थे, जिनकी टाइमिंग और संवाद बोलने का तरीका दर्शकों को हमेशा याद रहेगा।

लेखक दूरदर्शन के उप-महानिदेशक रह चुके हैं।

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