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कटुता-क्रिकेट और बेहतर रिश्तों की उम्मीद

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन स्थाई नहीं हुआ करते, देशों को समय और स्थितियों के अनुसार अपनी नीतियां बदलनी पड़ती हैं। हां इस बारे में सावधानी बरतना एक महत्वपूर्ण शर्त है। भारत-पाकिस्तान के रिश्तों के बारे में कुछ भी...
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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन स्थाई नहीं हुआ करते, देशों को समय और स्थितियों के अनुसार अपनी नीतियां बदलनी पड़ती हैं। हां इस बारे में सावधानी बरतना एक महत्वपूर्ण शर्त है।

भारत-पाकिस्तान के रिश्तों के बारे में कुछ भी कहने से पहले यह कहना चाहता हूं कि एशिया कप के लिए दुबई में हुआ इन दोनों देशों का मुकाबला मैंने देखा था और यह देखकर बहुत खुश हुआ था कि भारत यह मैच बड़ी शान से जीत गया। सच कहूं तो यह मैच मैंने क्रिकेट के रोमांचक मुकाबले के लिए नहीं, भारत को जीतने के लिए खेलते हुए देखने के लिए देखा था। जिस भी भारतीय ने इस मैच को देखा होगा, निश्चित रूप से वह भारत को जीतते हुए देखना चाहता होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि खेल खेल के लिए भी देखा जाता है, शायद देखा भी इसीलिए जाना चाहिए। लेकिन जब मुकाबला भारत और पाकिस्तान के बीच हो तो बात खेल तक ही सीमित नहीं रहती, यह भी सच है। दोनों देशों के रिश्तों को देखते हुए यह सही भी है। लेकिन ग़लत यह भी नहीं है कि ऐसे खेलों का एक उद्देश्य रिश्ते सुधारना भी होता है।

दुबई का यह मैच जिन स्थितियों में खेला गया, उनमें यह उम्मीद करना कि इससे रिश्ते सुधर जायेंगे, सही नहीं लगता। हमने यह भी देखा कि खेल के लिए सिक्का उछालते वक्त दोनों कप्तानों ने हाथ नहीं मिलाये थे और खेल समाप्त होने के बाद भी खिलाड़ियों के लिए हाथ मिलाने की परंपरा को भी नहीं निभाया गया। पाकिस्तान के कप्तान ने तो आगे बढ़कर हाथ मिलाना चाहा था, पर हमारे कप्तान और हमारी सारी टीम ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। और यह सही भी था। पहलगाम में पाकिस्तान की शह पर, और पाकिस्तान के समर्थन से आतंकवादियों ने मनुष्यता को कलंकित करने वाला जो घिनौना कार्य किया था, उसके बाद भारत के खिलाड़ियों द्वारा ऐसा कुछ न किया जाना हैरान करने वाली बात होती। हमारी टीम के कप्तान ने इस विजय को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को अंजाम देने वाले हमारे जांबाज सैनिकों और पहलगाम में शहीद हुए भारतीय पर्यटकों के परिवारों को समर्पित किया है। यह सब यही बताता है कि हाथ न मिलाने वाली यह घटना अनायास नहीं हुई थी, निश्चित रूप से पहले इस बारे में निर्णय ले लिया गया होगा।

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देश में कुछ लोगों को, या कइयों को, इस निर्णय से शिकायत है। उन्हें लग रहा है कि पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश के साथ हमें क्रिकेट नहीं खेलना चाहिए। उनका कहना है कि ‘खून और क्रिकेट साथ-साथ नहीं चल सकते’। बात ग़लत भी नहीं लगती। पाकिस्तान ने जो कुछ किया है, और जो कुछ कर रहा है, वह भुलाने या क्षमा करने लायक नहीं है। इसकी सज़ा उसे मिलनी ही चाहिए। ‘ऑपरेशन सिंदूर’ इसी सज़ा का एक हिस्सा है। यह भी सही है कि हमारी यह कार्रवाई अभी समाप्त नहीं हुई। हमने अभी इस ‘ऑपरेशन’ को ‘स्थगित’ ही किया है। पता नहीं, इस स्थगन का क्या मतलब है और कार्रवाई का अगला कदम कब उठाया जायेगा। यह हमारी सरकार को तय करना है। लेकिन कुछ ऐसा भी है जो हमें यानी देश के नागरिकों को तय करना है। पाकिस्तान ने पहलगाम में जो कुछ किया, उससे उपजा गुस्सा आसानी से, और जल्दी से, शांत नहीं हो सकता। देश में गुस्सा है, होना भी चाहिए। पाकिस्तान दोनों देशों के रिश्तों के बारे में जो कुछ कर रहा है, उसे विवेकहीनता के संदर्भ में ही समझा जाना चाहिए। हमने सारी दुनिया को यह बात बताई है, और अधिकांश देशों ने हमारे दृष्टिकोण को समझा- स्वीकारा है। पाकिस्तान कब समझेगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन एक विवेकशील देश होने के नाते हमारी यह कोशिश होनी चाहिए कि हम अपने इस पड़ोसी देश को समझाएं कि वह जो कर रहा है वह हर दृष्टि से ग़लत है।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था ‘हम अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते’। इस बात को समझने की आवश्यकता है—और पाकिस्तान को समझाने की भी। वाजपेयी जी ने यह कोशिश की थी। बशीर बद्र का एक शे’र भी सुनाया था उन्होंने पाकिस्तानियों को—‘दुश्मनी जम कर करो, लेकिन यह गुंजाइश रहे/ फिर कभी हम दोस्त बन जाएं तो शर्मिंदा न हों।’ यह शर्मिंदगी पाकिस्तान को समझनी चाहिए।

बहरहाल, मुल्कों की दुश्मनी को अनंतकाल के लिए लटकाये नहीं रखा जा सकता। आखिर हम चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा ही रहे हैं। तरेसठ साल पहले, 1962 में, चीन ने हमारी पीठ में छुरा घोंपा था। उसके बाद हमारी ज़मीन के बड़े हिस्से पर उसने कब्जा कर रखा है। अभी हाल तक वह भारत-विरोधी गतिविधियां करता रहा है। इस सबके बावजूद हम चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा ही रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन स्थाई नहीं हुआ करते, देशों को समय और स्थितियों के अनुसार अपनी नीतियां बदलनी पड़ती हैं। हां, इस बारे में सावधानी बरतना एक महत्वपूर्ण शर्त है। गले मिलना कतई ज़रूरी नहीं है। ‘जरा फासले से मिला करो’ वाली नसीहत याद रखनी चाहिए। पर फासला इतना भी न हो जाये कि उसे पाटा न जा सके अथवा पाटने की कोशिश ही न हो।

दुहराया जाना चाहिए कि पाकिस्तान जो कुछ कर रहा है, उसका समर्थन किसी भी दृष्टि से नहीं किया जा सकता। क्रिकेट मैच में जीत के बाद हमारी टीम ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ हाथ न मिलाकर स्पष्ट संदेश दिया है कि भारत से रिश्तों के संदर्भ में उसे अपनी दृष्टि और नीतियां दोनों, बदलनी होंगी। उसे यह भी समझना होगा कि पड़ोसी सबसे नज़दीकी रिश्तेदार होता है। यह बात सबको याद रखनी चाहिए। इस सब में वे भी शामिल हैं जो आज यह मान रहे हैं कि हमें पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच नहीं खेलना चाहिए। पहली नज़र में यह बात भले ही सही लगती हो कि पहलगाम जैसा अमानवीय काम करने-कराने वाले देश के साथ खेलों या कला के क्षेत्र में किसी भी प्रकार का रिश्ता नहीं रखना चाहिए, पर यह बात याद रखनी चाहिए कि रिश्ते जोड़ने वाली राह बहुत लंबी होती है। इस लंबी राह में थकना भी स्वाभाविक है। पर थकने के डर से चलना भी तो नहीं रुक सकता न? चलना तो पड़ेगा। पड़ोसी के साथ क्रिकेट खेलने को इस चलने के एक उदाहरण के रूप में देखा जाना चाहिए।

जैसा कि शुरू में कहा, मैंने दुबई में खेला गया भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट का मुकाबला देखा है–मैं पाकिस्तान को हारते हुए देखना चाहता था। मैंने यह भी देखा कि खिलाड़ियों ने हाथ नहीं मिलाये। अपनी टीम के कप्तान को यह कहते हुए देखना भी अच्छा लगा कि टीम ने इस विजय को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को कामयाब बनाने वाले सैनिकों और पहलगाम में शहीद होने वाले पर्यटकों के परिवारों को समर्पित किया है।

जो ग़लत हुआ उसका दुख और गुस्सा अपनी जगह सही है, पर ग़लत को सही करने की आवश्यकता को भी समझना ज़रूरी है। सुना है, इस और ऐसे मैचों से हमारे क्रिकेट संघ को कोई बड़ा आर्थिक लाभ भी होता है। मैं नहीं जानता कितना लाभ होता है, पर मैं इतना अवश्य जानता हूं कि उस रात दुबई के उस मैदान में भारत और पाकिस्तान के समर्थक अपने-अपने देश के झंडे लेकर अपने खिलाड़ियों का हौसला बढ़ा रहे थे। झंडे लहरा रहे थे, एक-दूसरे से टकरा नहीं रहे थे। खिलाड़ियों ने भले ही एक-दूसरे से हाथ न मिलाये हो, लेकिन पाकिस्तान के झंडे वाली एक युवती को भारत का झंडा लहराते पड़ोसी दर्शक को बधाई देते हुए देखना एक उम्मीद जगाने वाला पल था!

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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