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जंगल सुलगने से खतरे में जैव विविधता

जयसिंह रावत धरती पर जीवन के लिए अति आवश्यक आक्सीजन के उत्पादन में एल्गी या शैवाल के बाद वनों की भूमिका को देखते हुए वनों को धरती के फेफड़े की संज्ञा भी दी जाती है। लेकिन जब फेफड़ा ही जल...
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जयसिंह रावत

धरती पर जीवन के लिए अति आवश्यक आक्सीजन के उत्पादन में एल्गी या शैवाल के बाद वनों की भूमिका को देखते हुए वनों को धरती के फेफड़े की संज्ञा भी दी जाती है। लेकिन जब फेफड़ा ही जल रहा हो तो फिर प्राणवायु की उपलब्धता और उससे जुड़ी अन्य प्राकृतिक व्यवस्थाओं की कल्पना की जा सकती है। अगर आप भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के वनाग्नि डैशबोर्ड पर सुबह की ताजा स्थिति पर नजर डालें तो आपको देशभर में पृथ्वी के दहकते फेफड़ों में मची तबाही का मंजर अवश्य नजर आयेगा।

भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग उपग्रह से प्राप्त वनाग्नि के दृश्यों के विश्लेषित आंकड़े राज्यों के वन विभागों को देता है ताकि वे विभाग वनाग्नि को बुझाने के लिये तत्काल कार्रवाई कर सकें। विभाग के डैशबोर्ड पर 24 अप्रैल की प्रातः उत्तर से लेकर दक्षिण तक देश के 13 राज्यों में 62 वन क्षेत्रों में भीषण आग लगी हुई थी जिनमें हिमालयी राज्य उत्तराखंड में सर्वाधिक 30 स्थानों पर जंगल भयंकर रूप से धू-धू कर वृक्षों, नाजुक वनस्पतियों के साथ ही वन्यजीव संसार भी खाक हो रहे थे। डैशबोर्ड में दूसरे नम्बर पर 8 घटनाओं के साथ आंध्र प्रदेश, 6 के साथ बिहार और 3 अग्निकांडों के साथ झारखंड को दर्शाया गया था। बाकी राज्यों में एक या दो घटनाएं दर्शायी गयी थीं। यही नहीं, डैशबोर्ड में 17 अप्रैल से 22 अप्रैल तक के सप्ताह में हुए अन्य अग्निकांडों में उड़ीसा को पहले और उत्तराखंड को दूसरे स्थान पर दर्शाया गया था। उसके बाद वन बाहुल्य छत्तीसगढ़ और झारखंड की स्थिति बतायी गयी है।

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चूंकि वन अब समवर्ती सूची के विषयों में शामिल हो गया है। इसलिये इसे बचाने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकारों की ही है। केन्द्र सरकार इस संबंध में राज्यों को तकनीकी सहायता, जानकारियां और वित्तीय योगदान ही दे सकती है और बचाव की मुख्य जिम्मेदारी राज्यों पर निर्भर हो जाती है। लेकिन प्रायः देखा जाता है कि राज्य सरकारें अक्सर संसाधनों के अभाव का ठीकरा केन्द्र सरकार पर फोड़ देती हैं। यही नहीं, वनाग्नि के नुकसान में केवल पेड़ों की गिनती करने के साथ ही आर्थिक नुकसान का आंकलन कर दिया जाता है। जबकि वन पेड़ पौधों और जीवों की प्रजातियों की एक विशाल शृंखला का घर है, जिनमें से कई अन्यत्र कहीं नहीं पाए जाते हैं। वे वैश्विक जैव विविधता में योगदान करते हुए अनगिनत जीवों को आवास प्रदान करते हैं।

जंगल में बड़े पेड़ों के अलावा छोटी नाजुक वनस्पतियां, लाइकेंस के साथ ही जीवों की कई प्रजातियां होती हैं जिनमें हिरन, लाेमड़ी, गुलदार जैसे जीव प्रायः भागकर जान बचाने में कामयाब हो सकते हैं। लेकिन पक्षी, तितलियां, मक्खियां, मकड़े कीड़े मकोड़े, मेढक, दीमक, रेंगने वाले सांप छिपकलियां और केंचुए जैसे अनगिनत जीव प्रजातियां खाक हो जाती हैं। आप कह सकते हैं कि वनाग्नि से भरा पूरा वन्यजीव संसार खाक हो जाता है। जबकि चींटी और दीमक से लेकर बड़े स्तनपाई जीवों तक हर एक को प्रकृति ने कुछ न कुछ दायित्व सौंपा हुआ है। उदाहरण के लिये अगर वनों में दीमक न होंगे तो मिट्टी में उपजे बड़े पेड़ फिर मिट्टी में कैसे मिल पायेंगे।

वनों को पृथ्वी के फेफड़े बताये जाने के पीछे का सत्य यह है कि मानव फेफड़े की तरह वन ऑक्सीजन का उत्पादन करने और कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हम सांस में ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ते हैं। हमारी त्यागी गयी कार्बन डाइआक्साइड वृक्षों के काम आती है और पेड़-पौधों द्वारा छोड़ी गयी ऑक्सीजन हमारे काम आ जाती है। वन प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के माध्यम से वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं।

जंगल की आग से उत्पन्न धुआं और राख हवा की गुणवत्ता को खराब करता है, जिससे आस-पास के समुदायों में रहने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य जोखिम पैदा हो सकता है। बड़े जंगल की आग का धुआं बहुत दूर तक जाता है, जिससे दूर के क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। जंगल की आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल में छोड़ती है, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करती है और ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाती है। इस धुएं में ब्लैक कार्बन होता है जो कि ग्लोबल और लोकल वार्मिंग को बढ़ाता है और इसका ऐरासोल वृद्धि के साथ ही अतिवृष्टि में भी सीधा योगदान होता है।

जंगल की आग एक वैश्विक समस्या है। अास्ट्रेलिया, अमेजॉन, कनाडा के लम्बे समय तक दहकने वाले अग्निकांड इतिहास में दर्ज हैं। चूंकि अब धीरे-धीरे धरती का वनावरण सिमट रहा है इसलिये बचे-खुचे जंगलों की आग और अधिक विनाशकारी साबित हो रही है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग के आंकड़ों के अनुसार देश का 36 प्रतिशत वन क्षेत्र अक्सर वनाग्नि से धधकता रहता है और इसमें से भी 4 प्रतिशत क्षेत्र वनाग्नि की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। जबकि 6 प्रतिशत वनावरण अत्यधिक अग्नि प्रवण पाया गया है। फारेस्ट इन्वेटरी रिकार्ड के अनुसार भारत में 54.40 प्रतिशत वन कभी-कभी आग की चपेट में आते हैं, 7.49 प्रतिशत मामूली रूप से बार-बार जलते हैं जबकि 2.40 प्रतिशत वन अक्सर जलते रहते हैं। देश का 35.71 प्रतिशत वन क्षेत्र कभी भी आग की चपेट में नहीं आया।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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