फ्रांस का सर्न फिर से एक बार चर्चा में है। सर्न माने दुनिया की सबसे बड़ी प्रयोगशाला। यह 2011 की बात है। स्विट्ज़रलैंड में थी। यात्रा के दौरान दूर-दूर तक सरसों के फूलों की चादर। नीले रंगों, सफेद बादलों से भरा आसमान। चारों ओर नजर आती बर्फीली पहाड़ियां। तभी बाएं हाथ पर एक गोल घेरा-सा नजर आया। कार चलाते बेटे ने कहा- ये सर्न है।
सर्न, जहां हिग्स- बोसोन या गॉड पार्टिकल की खोज के लिए वैज्ञानिक रात-दिन एक कर रहे हैं। मन हुआ कि काश, इस अद्भुत प्रयोग को देख सकती। गाॅड पार्टीकल को हिग्स-बोसोन नाम, दो वैज्ञानिकों के नाम पर दिया गया –पीटर हिग्स और सत्येंद्रनाथ बोस। गॉड पार्टीकल का मतलब है कि वह इस जगत में हर एक के अंदर मौजूद है। यह दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक प्रयोग में से एक है। दिलचस्प यह भी है कि इसे खोजते-खोजते वैज्ञानिकों ने वर्ल्ड वाइड वेब की खोज कर ली। वही जिसके जरिए कम्प्यूटर और इंटरनेट ने दुनिया की शक्ल बदल दी है। इनके बिना आज दैनिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सर्न में भारत 2017 से शामिल है। यूरोपीय देशों के अलावा अमेरिका भी। कह सकते हैं कि पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के लिए सर्न एक पूजा स्थल की तरह है। पीटर हिग्स और सत्येंद्र नाथ बोस ने जिस गॉड पार्टीकल की कल्पना की थी और जिसे हिग्स बोसोन नाम दिया गया, उसे एलएचसी और सीएमएस के जरिए वैज्ञानिकों ने 4 जुलाई, 2012 को ढूंढ़ निकाला था।
अब इस खोज के दस साल पूरे हो गए हैं। दोबारा से एलएचसी शुरू होने जा रहा है। वैज्ञानिकों को कितनी नई खोजें करने का मौका मिलेगा, बताया नहीं जा सकता। सर्न में पिछले चौंतीस साल से काम करती हैं भारत की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. अर्चना शर्मा। वह झांसी की रहने वाली हैं। उनसे भारतीय दूतावास के एक कार्यक्रम में मुलाकात हुई थी।
यह 2019 की बात है। उन्नीस अगस्त की सुबह उनका फोन आया कि क्या हम सर्न देखना चाहेंगे। 2011 में जहां जाने का सपना देख रही थी, वह पूरा होने को था। बच्चों की तरह उत्साहित हो उठी। फौरन हां कह दी।
अगले दिन साढ़े बारह बजे के करीब वहां पहुंचना था। उत्साह इतना ज्यादा था कि समय से पहले ही जा पहुंचे। एक विशाल परिसर। चारों ओर पेड़-पौधे। युवाओं का आना-जाना। सामने नजर पड़ी तो सर्न के बड़े गोल गुम्बद पर लिखा दिखा-यूनिवर्स आफ पार्टीकल्स। यानी कि कणों या अणुओं की दुनिया। सचमुच हम सब अणुओं से ही तो बने हैं। तभी सामने से अर्चना आती दिखाई दीं। वह हमें अंदर ले गईं। हमारे लिए पास बने। वहां एक प्रदर्शनी लगी थी। उसे देखने लगे। एलएचसी का एक मॉडल भी था। बहुत से वैज्ञानिकों के जीवन के बारे में भी बताया गया था। लेकिन हमें तो आठ किलोमीटर दूर, उस प्रयोगशाला में जाना था, जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी मशीन एलएचसी, सीएमएस लगी है। अभी सर्न की मशीन कूलिंग पीरियड में चल रही थी। इसलिए वहां कुछ लोगों को ले जाया जा सकता था। बताया गया कि 2021 के बाद जब तक मशीन काम करेगी, वहां कोई नहीं जा सकेगा।
आगे-आगे अर्चना चलीं और पीछे-पीछे हम। चारों ओर फैले पहाड़, उन पर फैली हरियाली। उनके ऊपर दूर से दिखते झोंपड़ीनुमा मकान। रास्ते भर फलों से लदे पेड़। उन पर उछल-कूद मचाती बड़ी-बड़ी गिलहरियां, कौए, चिड़ियां। ऐसा लगता था जैसे हम सचमुच के दृश्य नहीं, किसी चित्रकार की बनाई पेंटिंग्स देख रहे हैं। गॉड़ियों के साथ-साथ अपनी सेहत बनाने के लिए आठ से अस्सी साल के दौड़ते लोग। यहां दौड़ने के लिए कोई वक्त नहीं। सुबह, दोपहर, शाम, जब समय होता है, तभी लोग दौड़ने लगते हैं। वहां पहुंचकर, तमाम तरह की सुरक्षा चैक के बाद हम अंदर पहुंचे। अर्चना लगातार हमारे साथ थीं। तभी एलिजाबेथ नाम की वैज्ञानिक आ पहुंचीं। उन्होंने सबसे पहले इस प्रयोग को समझाने के लिए एक फिल्म दिखाई। फिल्म के खत्म होने के बाद अर्चना ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि विज्ञान ब्रह्मांड को अनंत मानता है, वेदों में तो बहुत पहले ऐसा कह दिया गया।
इसके बाद हमें जगह-जगह ले जाया जा रहा था। प्रयोग के बारे में समझाया जा रहा था। इसे कितने स्तर पर किया गया है, यह भी बताया जा रहा था। अर्चना ने हमें बताया था कि एलएचसी, सीएमएस में एक सैकंड में चालीस मिलियन कण एक-दूसरे की तरफ दौड़ते हैं, मगर टकराते बहुत कम हैं। उन्होंने इसे समझाने के लिए मजेदार उदाहरण दिया कि यदि आप एफिल टाॅवर (फ्रांस) से स्टेच्यू आफ लिबर्टी (अमेरिका) की तरफ कोई सुई फेंकें, तो जितना उसका वहां पहुंचने का चांस है, वही स्थिति पार्टीकल्स की एक-दूसरे से टकराने की है। यानि कि बहुत ही कम, कभी-कभार ही। उन्होंने यह भी बताया कि सीएमएस ने 1999 से काम शुरू किया था। यहां पर दुनिया की इतनी शक्तिशाली चुम्बक लगी है कि चौदह हजार टन सोने को पल भर में पिघला सकती है। ये सारी बातें सुनते हुए हम और भी बहुत से काम करते जा रहे थे। जैसे कि रेडिएशन से बचने के लिए हेलमेट पहने थे। हम दीवारों पर तरतीब से लगे उन वैज्ञानिकों के चित्रों को भी देखते जा रहे थे, जिन्होंने इस प्रयोग को सफल बनाने के लिए रात-दिन एक कर दिया। अर्चना का चित्र भी यहां था। आते वक्त वह बता रही थीं कि यहां दुनियाभर के पांच हजार से ज्यादा वैज्ञानिक काम करते हैं। खुद अर्चना के विभाग में पांच सौ वैज्ञानिक हैं।
फिर हम एक लिफ्ट के पास आए। विशालकाय इस लिफ्ट से हमें पाताल में चौरासी मीटर नीचे जाना था। लिफ्ट से बाहर निकलकर तीन मंजिल सीढ़ियां और भी उतरनी पड़ीं। जब हम एलएचसी, या लार्ज हेड्रान कोलाइडर, सीएमएस के सामने पहुंचे तो उसकी विशालता देखकर दंग रह गए। इतनी बड़ी मशीन पहले कभी नहीं देखी थी। उसमें लगे लाल, पीले, नीले रंगों के लाखों तार। हर तार की कोई न कोई भूमिका, उपयोगिता। अर्चना ने बताया था कि इस मशीन को नीचे उतारने के लिए विशेष क्रेन बनाई गई थीं।
इस मशीन से जो डाटा मिलता है, उसमें से निन्यानवें प्रतिशत के बारे में जानने की फुरसत अभी वैज्ञानिकों के पास नहीं है। उनके पास इतने संसाधन और समय नहीं है। वे तो बस एक प्रतिशत पर काम करते हैं। इस एक प्रतिशत की जानकारी से भी अभूतपूर्व परिणाम निकल रहे हैं। इनकी दुनिया और मानवता के लिए बड़ी उपयोगिता है। जिसमें एक है- कैंसर का सफल इलाज। जब हम लौट रहे थे, तो लगा जैसे किसी दूसरे लोक को अभी-अभी देखा हो। ऐसा मौका बहुत कम लोगों को मिलता है, वह भी जीवन में शायद एक बार। इन दिनों इसीलिए सर्न खबरों में है। कूलिंग पीरियड खत्म हो गया है। फिर से मशीन अपनी पूरी शक्ति से काम पर जुट गई है। अब यहां कोई नहीं जा सकेगा। हम सौभाग्यशाली थे कि जा सके। देखिए कि इस आश्चर्य लोक में क्या-क्या निकलता है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।