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भोला जी स्वच्छंद, तोड़ते वाणी के तटबन्ध

व्यंग्य/तिरछी नज़र
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धर्मेंद्र जोशी

भोला जी घर पर बहुत ही संयमित भाषा का इस्तेमाल करते हैं। कई बार तो श्रीमती जी को सामने पाकर मौन हो जाते हैं। शब्द खो जाते हैं, केवल इशारों से ही अपने भावों की अभिव्यक्ति बमुश्किल दे पाते हैं। मगर जब वे घर की दहलीज लांघ कर बाहर निकलते हैं, तो यकायक उनकी जीभ की आवृत्ति अनंत पर पहुंच जाती है। इस बीच यदि मंच मिल जाए, उस पर माइक भी हो और सामने कुर्सियों पर मानव मुंड भी हों, तो वे अपने आप को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं। तालियों की प्रत्याशा में ऊलजलूल बकने लगते हैं। यहां तक कि भाषाई मर्यादा के तटबन्ध तोड़ देते हैं। सोशल मीडिया पर उनके बदजुबानी और बड़बोलेपन के वीडियो निर्बाध, अविरल वायरल होने लगते हैं।

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हालांकि, वे खेद व्यक्त करने में भी देर नहीं करते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। चार इंच की जीभ का खमियाजा पद और प्रतिष्ठा को भुगतना पड़ता है। नाम भले ही उनका ‘भोला’ हो मगर वे इतने भोले भी नहीं हैं। वे तत्काल अपना कसूर दूसरों के मत्थे डालकर नई चाल चल देते हैं। वे सामने वाले पर उनके बयान को ‘तोड़-मरोड़’ कर पेश करने के आरोप की कोशिश में जुट जाते हैं। वे तो यहां तक कह जाते हैं कि जो उन्होंने बोला वो उनके शब्द ही नहीं थे। वे तो इस तरह के व्यक्ति ही नहीं हैं, दूसरों के प्रति सम्मान तो उनमें कूट-कूट कर भरा है। यह बात दीगर है कि एक बार कड़ा प्रश्न पूछने पर वे सामने वाले को कूटने पर उतारू हो गए थे।

पिछले दिनों वे बैठे ठाले कौतुक कर बैठे, जो नहीं कहना था, वो मुंह से निकल गया, ‘होंठ बाहर तो कोट बाहर’ वाली पुरानी कहावत चरितार्थ हो गई। विरोधियों को गर्मागर्म मुद्दा मिल गया। मगर भोला जी अपनी आदत के मुताबिक मुश्किल घड़ी में भी मुस्कुराते रहे।

उनकी खुशी लोगों से बर्दाश्त नहीं हुई। चारों ओर कोहराम मच गया, ऐसे में डेमेज कंट्रोल के लिए उनको वाणी पर संयम रखने की हिदायत दी गई। कुछ दिन तक तो वे नेपथ्य में रहे, लेकिन अधिक दिनों तक चुप रहने पर विचारों की कब्ज हो गई। और एक दिन मनमाफिक माहौल मिलने पर फिर मनमानी कर बैठे।

इतना ही नहीं, उनको एक वरिष्ठ साथी ने नैतिकता की दुहाई दी और बोलने से पहले सोचने की बात कही। लेकिन वे बिफर गए, तमतमाते हुए बोले, क्या मर्यादा और नैतिकता का सारा ठेका मैंने लिया है, अमके जी, फलाने जी की भाषा आपने सुनी? उनके शुभचिंतक यह सोचकर मौन हो गए जब भांग सारे कुएं में ही घुली हो तो अच्छी भाषा की उम्मीद करना ही बेमानी है।

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